महाराष्ट्र में चुनाव आते ही दलित मतदाताओं को रिझाने के लिए हर पार्टी दाँव चलने लगती है। सिर्फ़ मुख्यधारा की पार्टियाँ ही नहीं दलितों के नाम पर पार्टियाँ चलाने वाले दलित नेता भी मोलभाव के लिए तैयार हो जाते हैं और इस मोलभाव में ‘उन्हें क्या मिलेगा’ के फ़ॉर्मूले पर गठबंधन में अपनी जगह तलाशने लगते हैं। ऐसे में ना तो भीमा-कोरेगाँव की जैसी घटना आड़े आती है और न ही एससी-एसटी एक्ट में बदलाव जैसी कोई बात। लेकिन क्या इस बार मराठा नेता शरद पवार इन दलित नेताओं का एक मंच तैयार कर पाने में सफल हो पाएँगे, जैसा उन्होंने साल 1998 के लोकसभा चुनाव में किया था।
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- 1998 के चुनाव में कांग्रेस को प्रदेश की 33 लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी जबकि बीजेपी को 4 व शिवसेना को 6, आरपीआई को 4 तथा शेतकरी कामगार पार्टी को एक सीट पर जीत मिली थी। शरद पवार जो बात अपने भाषणों में बोलते हैं कि वे 1998 को दोहराएँगे लेकिन क्या सभी दलित नेता एक साथ आएँगे, इस पर संशय बरक़रार है।
साल 2011 की जनगणना के अनुसार महाराष्ट्र की 6.6 % जनसंख्या यानी 1 करोड़ 43 लाख 52 हज़ार 360 आबादी दलित है और इसी वोट को हासिल करने के लिए हर पार्टी अपने दाँव चलती रहती है।
डॉ. आंबेडकर देश भर के दलितों को एक मंच पर लाकर एक नई राजनीतिक ताक़त बनाना चाहते थे और इसी सिलसिले में 'उन्होंने 1955 में अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी' के गठन का निर्णय लिया। लेकिन दिसंबर 1956 में उनका आकस्मिक निधन हो गया।
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टूटती चली गई आरपीआई
डॉ. आंबेडकर के अनुयायियों ने 3 अक्टूबर 1957 को नागपुर में रिपब्लिकन पार्टी का गठन किया लेकिन चुनाव दर चुनाव उस पार्टी का विघटन होता चला गया। रिपब्लिकन पार्टी गवई, खोब्रागडे और कांबले गुटों में बंटी। उसके बाद डॉ. आंबेडकर के प्रपौत्र प्रकाश आंबेडकर ने अलग से भारिप-बहुजन महासंघ पार्टी बनाई।
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दलित पैंथर के नेता रामदास आठवले ने भी अपनी अलग रिपब्लिकन पार्टी (आठवले) बनाई। लांग मार्च के नेता योगेन्द्र कवाडे ने अलग से रिपब्लिकन पार्टी बनाई। यानी दलितों की इतनी पार्टियाँ बन गईं कि प्रदेश के किस क्षेत्र में किस गुट का वर्चस्व है, यह पता करने के लिए भी काफ़ी क़वायद करनी पड़ेगी।
आर. एस. गवई और जोगेंद्र कवाडे हमेशा कांग्रेस के साथ रहे और विभिन्न राजनीतिक पदों का लाभ लेते रहे। रामदास आठवले अपनी पार्टी का सपोर्ट कभी शिवसेना-बीजेपी, तो कभी कांग्रेस-एनसीपी को देकर सत्ता में बने रहे हैं।
अब कहाँ जाएँगे आठवले
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में रामदास आठवले ने बीजेपी-शिवसेना के साथ महागठबंधन बनाया और राज्यसभा के साथ-साथ केन्द्रीय मंत्री का पद भी प्राप्त किया। इस बार बीजेपी-शिवसेना ने लोकसभा की एक भी सीट उन्हें नहीं दी लिहाजा वे अपनी नाराज़गी जाहिर करते घूम रहे हैं और कह रहे हैं कि मार्च के पहले सप्ताह में वे अपनी रणनीति बताएँगे कि वे किस गठबंधन के साथ रहेंगे। जो ख़बरें मिल रही हैं उसके अनुसार आठवले कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं से भी बातचीत कर रहे हैं।
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ओवैसी-आंबेडकर बना रहे गठबंधन
भारिप बहुजन महासंघ पार्टी के नेता प्रकाश आंबेडकर, प्रदेश में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदउद्दीन ओवैसी के साथ मिलकर वंचित बहुजन आघाडी बनाकर राजनीति में नया समीकरण खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। इसी समीकरण के तहत उनकी पार्टी के पास अकोला नगर निगम की सत्ता है। पार्टी के पास दो विधायक हैं और पिछले एक महीने से वह कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर चर्चा कर रहे हैं। जानकारी के अनुसार, प्रकाश कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस से लोकसभा की 5 से ज़्यादा सीटें माँग रहे हैं।
प्रकाश आंबेडकर और असदुद्दीन ओवैसी।
- गठबंधन में ओवैसी की एआईएमआईएम की उपस्थिति को कांग्रेस ने खारिज करते हुए सिर्फ़ प्रकाश आंबेडकर की पार्टी से ही गठबंधन करने की बात कही है। ओवैसी से कांग्रेस की नाराज़गी 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के परम्परागत मुसलिम मतों में सेंध लगाने की वजह से है।
कांग्रेस को खोने पड़े मुसलिम वोट
ओवैसी की उपस्थिति से मुंबई की सभी लोकसभा तथा भिवंडी जैसी मुसलिम बहुल लोकसभा सीट पर भी 2014 में कांग्रेस को हार का सामना करना पडा था। अब जबकि मुसलिम मतदाता फिर से कांग्रेस के साथ खड़ा दिख रहा है तो पार्टी नेता यह कभी नहीं चाहेंगे कि एआईएमआईएम जैसी कोई नई पार्टी गठबंधन में अपनी जगह बनाए।
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- शनिवार रात को मुंबई में आंबेडकर और ओवैसी ने वंचित बहुजन आघाडी की सभा को संबोधित करते हुए कहा कि उन्हें कांग्रेस से सीटों को लेकर टकराव नहीं बल्कि इस बात को लेकर सवाल है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को लेकर कांग्रेस की क्या भूमिका रहेगी प्रकाश आंबेडकर का यह सवाल ही अपने आपमें नया सवाल खड़ा करता है कि वे कुछ और ही चाहते हैं।
संघ को लेकर आक्रामक हैं राहुल
संघ को लेकर जितने ज़्यादा राहुल गाँधी आक्रामक हैं शायद ही कोई और नेता हो गोडसे को महात्मा गाँधी का हत्यारा वे कई बार सभाओं में कह चुके हैं। सावरकर को बार-बार डरपोक और अंग्रेजों से माफ़ी माँगने वाला नेता भी राहुल गाँधी ने ही कहा है और इसे लेकर उनके ख़िलाफ़ महाराष्ट्र में मामले भी दर्ज हुए हैं। यही नहीं मध्य प्रदेश में जीत हासिल करने के बाद संघ को लेकर जो आदेश निकाला गया है वह भी कांग्रेस की भूमिका ही जाहिर करता है।
- अब जब आठवले बीजेपी-शिवसेना गठबंधन से छिटकते दिख रहे हैं तो कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी इस प्रयास में लगी हैं कि वे आठवले की और प्रकाश आंबेडकर की पार्टियों को जोड़कर प्रदेश में एक नया संदेश दें। शरद पवार इसी फ़ॉर्मूले को अंजाम देने का प्रयास भी कर रहे हैं लेकिन अभी तक सब चर्चाओं तक ही सीमित दिखाई दे रहा है।
महाराष्ट्र में दलितों का प्रभाव
महाराष्ट्र में विधानसभा सीटों की बात करें तो हर सीट पर औसतन 10,000 दलित वोटर्स हैं, जबकि लोकसभा की 15 सीटों पर दलित वोटर्स ख़ासा प्रभाव रखते हैं। इसमें विदर्भ में सबसे ज़्यादा 20% दलितों की संख्या है। जहाँ पर आर.एस. गवई, जोगेंद्र कवाडे, प्रकाश आंबेडकर और मायावती की बहुजन समाज पार्टी का भी असर है। इसी के चलते इस बार शरद पवार बहुजन समाज पार्टी को भी गठबंधन में लेने की जुगत चला रहे हैं।
मायावती से शरद पवार के संबंध अच्छे हैं लेकिन इस चुनावी गणित में वे कितना हिस्सा माँगेंगी अभी यह स्पष्ट नहीं है। हर चुनाव में बसपा अकेले लड़ती आई है और जहाँ-जहाँ उसके प्रत्याशी चुनाव लड़ते हैं बिना किसी बड़े प्रचार के 5 से 10 हज़ार तक वोट हासिल कर लेते हैं।
महाराष्ट्र में दलितों का चेहरा आरपीआई को माना जाता है लेकिन इस पार्टी के इतने टुकड़े हो चुके हैं कि किसके पास कितने वोट हैं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है।
गठबंधन के सवाल पर टूटी पार्टी
ऐसा नहीं है कि आरपीआई के इन गुटों को एक करने की क़वायद नहीं हुई हो। साल 1989 के चुनावों से पहले आरपीआई के सभी गुटों ने रिपब्लिकन पार्टी के विलय का संकल्प लिया था। लेकिन चुनावों में कांग्रेस या जनता दल किसके साथ गठबंधन हो, इस सवाल पर पार्टी में फिर फूट पड़ गई। प्रकाश आंबेडकर गुट जनता दल के साथ तो बाकी गुट कांग्रेस के साथ रहे।
- 1996 में आरपीआई में पुनः एकता के प्रयास किए गए और यह प्रयास सफल भी हुआ। सभी गुटों ने कांग्रेस से गठबंधन किया और इसका सकारात्मक परिणाम भी निकला। 1998 में हुए लोकसभा चुनावों में पार्टी के चार वरिष्ठ नेता विजयी हुए।अमरावती से आर.एस.गवई, मुंबई से रामदास आठवले, चिमूर से योगेन्द्र कवाडे और अकोला से प्रकाश आंबेडकर।
महाराष्ट्र के चुनावी इतिहास में रिपब्लिकन नेताओं को इससे बड़ी जीत कभी नहीं मिली। लेकिन यह एकता भी अधिक दिन नहीं टिकी और जल्द ही रिपब्लिकन पार्टी का ज़बरदस्त विघटन हुआ। शरद पवार इस बार इन सभी दलित नेताओं का एक मंच तैयार लोकसभा चुनावों में फिर से 1998 वाले फ़ॉर्मूले को सेट करने में जुटे हुए हैं।