राष्ट्रवादी कांग्रेस यानी एनसीपी नेता शरद पवार ने अब भीमा कोरेगाँव मामले की जाँच के लिए सही तरीक़े से जाँच के लिए विशेष जाँच दल यानी एसआईटी बनाने की माँग की है। उन्होंने कहा कि वह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से कहेंगे कि वह इसके लिए एसआईटी का गठन करें। इसी मामले में गिरफ़्तार किए गए सामाजिक कार्यकर्ताओं पर 'अर्बन नक्सल' होने के आरोप लगाए गए हैं। राज्य में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार में शिवसेना और कांग्रेस के साथ एनसीपी भी शामिल है। इसी महीने सरकार गठन के तुरंत बाद ही एनसीपी के नेताओं ने इसके लिए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिखा था। पत्र लिखने वालों में वरिष्ठ एनसीपी नेता और पंकजा मुंडे के चचेरे भाई धनंजय मुंडे भी शामिल हैं। तब एक सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने भी इस पर सकारात्मक संदेश दिया था और कहा था कि वह पहले यह देखेंगे कि उनके ख़िलाफ़ केस हटा तो नहीं लिए गए हैं।
बता दें कि 31 दिसंबर, 2017 को पुणे में एलगार परिषद सम्मेलन हुआ था और उसके अगले दिन भीमा कोरेगाँव में हिंसा हुई थी। जनवरी, 2018 में पुलिस ने वामपंथी कार्यकर्ता के पी. वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वरनो गोन्जाल्विस के ख़िलाफ़ केस दर्ज किया था। बाद में कई लोगों को गिरफ़्तार भी किया गया था। आरोप लगाया गया है कि इस सम्मेलन के बाद भीमा-कोरेगाँव में हिंसा भड़की। हालाँकि इनकी गिरफ़्तारी के बाद से ही कई लोग यह दावा कर रहे हैं कि इस मामले में इनको जानबूझ कर इसलिए फँसाया जा रहा है क्योंकि वे दलित समुदाय के अधिकारों की पैरवी करते हैं।
इसी संदर्भ में वरिष्ठ एनसीपी नेता धनंजय मुंडे ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिखकर भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले में सामाजिक कार्यकर्ताओं और प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ दर्ज एफ़आईआर को वापस लेने की माँग की थी। एनसीपी के विधायक प्रकाश गजभिए ने भी मुख्यमंत्री को लिख कर भीमा कोरेगाँव हिंसा में दलितों के ख़िलाफ़ दर्ज मामलों को वापस लेने की माँग की थी। इसी बीच उद्धव ठाकरे ने तो दावा किया था, ‘पूर्व की सरकार ने ही भीमा कोरेगाँव से जुड़े केसों को वापस लेने का आदेश दे दिया था। पहले हम यह देख रहे हैं कि कहीं इस पर अमल तो नहीं कर दिया गया है।’
यदि अभी तक केसों को वापस नहीं लिया गया है तो इन एनसीपी नेताओं की यह माँग काफ़ी अहमियत रखती है। दरअसल, एनसीपी महाराष्ट्र में शिवसेना और कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार में शामिल है। गठबंधन सरकार में उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री हैं। बीजेपी को सत्ता से दूर रखने और गठबंधन सरकार को बनाने में शरद पवार की काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसमें शरद पवार की हैसियत काफ़ी बढ़ी है। सरकार बनाने में पवार की भूमिका को भी शिवसेना और कांग्रेस ने भी माना है।
ऐसे में सवाल है कि सरकार यदि उन सामाजिक कार्यकर्ताओं और दलितों के ख़िलाफ़ से केस वापस लेती है तो उसका आधार क्या होगा?
लेकिन इससे पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि दरअसल उनके ख़िलाफ़ मामला क्यों और कब बना? दरअसल, मामला यह था कि हर साल जब 1 जनवरी को दलित समुदाय के लोग भीमा कोरेगाँव में जमा होते हैं, वे वहाँ बनाये गए 'विजय स्तम्भ' के सामने अपना सम्मान प्रकट करते हैं। यह विजय स्तम्भ ईस्ट इंडिया कंपनी ने उस युद्ध में शामिल होने वाले लोगों की याद में बनाया था। इस स्तम्भ पर 1818 के युद्ध में शामिल होने वाले महार योद्धाओं के नाम अंकित हैं। ये वे योद्धा हैं जिन्हें पेशवाओं के ख़िलाफ़ जीत मिली थी। कुछ लोग इस लड़ाई को महाराष्ट्र में दलित और मराठा समाज के टकराव की तरह प्रचारित करते हैं और इसकी वजह से इन दोनों समाज में कड़वाहट भी पैदा होती रहती है।
क्यों हुई थी हिंसा?
2018 में चूँकि इस युद्ध की 200वीं वर्षगाँठ थी लिहाज़ा बड़े पैमाने पर लोग जुटे और टकराव भी हुआ। इस सम्बन्ध में शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के अध्यक्ष संभाजी भिडे और समस्त हिंदू अघाड़ी के मिलिंद एकबोटे पर आरोप लगे कि उन्होंने मराठा समाज को भड़काया, जिसकी वजह से यह हिंसा हुई। भिडे, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक हैं और एकबोटे भारतीय जनता पार्टी के नेता और विधायक का चुनाव लड़ चुके हैं। हिंसा के बाद दलित नेता प्रकाश आंबेडकर ने इन पर मुक़दमा दर्ज कर गिरफ़्तार करने की माँग की थी। लेकिन इस बीच हिंसा भड़काने के आरोप में पहले तो बड़ी संख्या में दलितों को गिरफ़्तार किया गया और बाद में 28 अगस्त, 2018 को सामाजिक कार्यकर्ताओं को।
कैसे-कैसे आरोप लगाए गए?
इसमें पहले तो सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हिंसा में शामिल होने के आरोप लगाए गए और बाद में प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश रचने, माओवादियों से संबंध होने और फिर कुछ कार्यकर्ताओं के आतंकवादियों से संबंध होने के आरोप लगाए गए। मामला कोर्ट में है। 12 जून 2019 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा था कि नागरिक स्वतंत्रता के हिमायती कार्यकर्ता गौतम नवलखा के ख़िलाफ़ प्रथम दृष्टया कोर्ट ने कुछ नहीं पाया है। हालाँकि इसके बाद 24 जुलाई 2019 को पुणे पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में बॉम्बे हाईकोर्ट के सामने यह दावा किया था कि गौतम नवलखा हिज़्बुल मुजाहिदीन और दूसरे कई कश्मीरी अलगाववादियों के संपर्क में थे। तब पुलिस की माँग को ख़ारिज़ करते हुए हाई कोर्ट ने नवलखा की गिरफ़्तारी पर लगी रोक अगले आदेश तक बढ़ा दी थी और उन्हें सुरक्षा देने को कहा था। दिल्ली के रहने वाले 65 साल के गौतम नवलखा पेशे से पत्रकार रहे हैं। मानवाधिकार के मुद्दों पर नवलखा काफ़ी बेबाकी से अपने विचार रखते रहे हैं। पिछले दो दशकों में वह कई बार कश्मीर का दौरा कर चुके हैं।
पुलिस की जाँच प्रक्रिया संदेह के घेरे में है क्योंकि कोर्ट कई बार पुलिस को फटकार लगा चुका है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2 सितम्बर 2018 को महाराष्ट्र पुलिस को ग़िरफ्तार किए गए 5 सामाजिक कार्यकर्ताओं के संबंध में प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के कारण फटकार लगाई थी।
इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में पुलिस ने गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के पास से कथित रूप से ‘जब्त’ किए गए पत्रों से जुड़ी जानकारी मीडिया के साथ साझा की थी। तब नवलखा और उनके साथियों के तार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और गृह मंत्री राजनाथ सिंह की हत्या की साज़िश से भी जोड़कर बताया गया था। यह कहा गया था कि इनके माओवादियों से रिश्ते हैं। इस पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने कड़ी आपत्ति की थी।
इतिहासकार रोमिला थापर, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक और देवकी जैन, समाजशास्त्र के प्रो. सतीश पांडे और मानवाधिकार कार्यकर्ता माजा दारूवाला इन मानवाधिकार एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं का समर्थन करते रहे हैं।