लोकसभा चुनाव में बीजेपी की प्रचंड जीत के बाद एक बार फिर चुनाव होने हैं। चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की तारीख़ों की घोषणा कर दी है। 21 अक्टूबर को राज्य में मतदान होगा और 24 अक्टूबर को नतीजे आएँगे। कुल मिलाकर एक महीने का समय बचा है और राज्य में क्या चुनावी हालात हैं, इस पर बात करते हैं।
महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश के बाद लोकसभा सीटों के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा राज्य है। यहाँ लोकसभा की 48 और विधानसभा की 288 सीटें हैं। लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी-शिवसेना को जोरदार जीत मिली और दोनों ने मिलकर 41 सीटें झटकीं। इनमें बीजेपी को 23 और शिवसेना को 18 सीटें मिलीं। विधानसभा सीटों के लिहाज से अगर आप चुनाव परिणाम को देखेंगे तो दोनों दलों को कुल 226 सीटों पर जीत मिली थी।
इस जीत से उत्साहित होकर ही गठबंधन की ओर से ‘मिशन 220 प्लस’ का नारा दिया गया है। बीजेपी इन राज्यों में जीत को लेकर कितनी सावधान है, इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि अमित शाह ने केंद्र में गृह मंत्रालय संभालने के कुछ ही दिन बाद इन राज्यों के बीजेपी नेताओं की बैठक बुलाई थी और चुनावी तैयारी को लेकर चर्चा की थी।
लेकिन लगता है कि बीजेपी को जिताने का दारोमदार इस बार भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के कंधों पर ही है। क्योंकि मोदी और शाह महाराष्ट्र में रैली कर चुनाव प्रचार का आगाज कर चुके हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या मोदी-शाह की जोड़ी बीजेपी को एक बार फिर से चुनावी जीत दिला पायेगी।
लोकसभा चुनाव के आंकड़े को देखें तो बीजेपी-शिवसेना गठबंधन का राज्य में जीत हासिल करना मुश्किल नहीं दिखता। इसके पीछे एकदम कमजोर विपक्ष का होना भी एक बड़ा कारण है।
शिवसेना की मजबूरी समझिए!
कुछ दिनों पहले ख़बरें आ रही थीं कि शिवसेना महाराष्ट्र में ज़्यादा सीटें देने की माँग पर अड़ी थी लेकिन बाद में शायद उसे यह समझ आ गया कि बीजेपी को लोकसभा चुनाव में जितनी बड़ी जीत मिली है, उसके बाद उसके सामने सिर झुकाना ही सही होगा। क्योंकि पिछली बार जब टिकट बंटवारे को लेकर तनातनी हुई थी तो बीजेपी ने गठबंधन तोड़ दिया था और अकेले दम पर 122 सीटें जीती थीं। निराश और परेशान शिवसेना को उसके साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी थी। इस बार भी बीजेपी नेता और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस कह चुके हैं कि मुख्यमंत्री की कुर्सी उन्होंने ख़ुद के लिए रिजर्व रखी है। ऐसे में शिवसेना बीजेपी को गरज दिखाना तो दूर उसकी शर्तों पर ही समझौता करने को बाध्य है, जिसकी घोषणा जल्द ही हो जाएगी।कांग्रेस: क़रारी हार और गुटबाज़ी
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महाराष्ट्र में सिर्फ़ एक सीट मिली है और उसके तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चव्हाण तक चुनाव हार गए थे। क़रारी शिकस्त के बाद कांग्रेस की दूसरी मुसीबत गुटबाज़ी है। महाराष्ट्र में कांग्रेस भयंकर गुटबाज़ी से जूझ रही है। उसके कई वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं। इनमें विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे राधाकृष्ण विखे पाटिल से लेकर मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह तक शामिल हैं।
उर्मिला गईं, निरुपम-देवड़ा का झगड़ा
लोकसभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस का दामन थामने वाली फ़िल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर ने भी गुटबाज़ी की बात कहकर पार्टी को अलविदा कह दिया है। उर्मिला के इस्तीफ़े के बाद मुंबई कांग्रेस में संजय निरूपम और मिलिंद देवड़ा का झगड़ा सरेआम हो चुका है। कभी महाराष्ट्र में लंबे समय तक सरकार चलाने वाली कांग्रेस ऐसे हालात में क्या बीजेपी-शिवसेना गठबंधन का मुक़ाबला कर पायेगी। शायद जवाब होगा ना।
एनसीपी का भी वजूद ख़तरे में
कांग्रेस की साथी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) भी सियासी संकट से गुजर रही है। लोकसभा चुनाव में एनसीपी की हालत बेहद ख़राब रही और वह सिर्फ़ 4 सीटों पर ही सिमट गई थी। उसकी मुंबई इकाई के प्रदेश अध्यक्ष सचिन अहीर, महिला शाखा की अध्यक्ष से लेकर कई वरिष्ठ नेता पार्टी को छोड़ चुके हैं। पार्टी को एकमात्र सहारा सिर्फ़ पार्टी प्रमुख शरद पवार की छवि का है लेकिन बीजेपी-शिवसेना को जिस तरह पिछले विधानसभा चुनाव और इस बार लोकसभा चुनाव में जीत मिली है, उससे लगता नहीं है कि पवार कोई करिश्मा कर पायेंगे। मुख्यत: महाराष्ट्र तक ही सीमित एनसीपी अगर इस चुनाव में बेहतर प्रदर्शन नहीं करती है तो उसके वजूद के लिए ख़तरा पैदा हो जायेगा।
जाँच एजेंसियों का डर
महाराष्ट्र में विपक्षी नेताओं को एक डर जाँच एजेंसियों का भी है। शरद पवार का नाम सहकारी बैंक घोटाले में आने की ख़बरें हैं, पूर्व उप-मुख्यमंत्री व एनसीपी के वरिष्ठ नेता अजित पवार के ख़िलाफ़ इसी मामले में कोर्ट एफ़आईआर दर्ज करने का आदेश दे चुकी है। लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेने वाले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे के ख़िलाफ़ मनी लॉन्ड्रिंग के एक मामले में ईडी पूछताछ कर रही है। ऐसे में बचे-खुचे विपक्षी नेता अगर जाँच एजेंसियों के डर से अनमने मन से चुनाव प्रचार में निकले तो फिर विपक्षी गठबंधन का दीवाला निकलना तय समझिए।
एक चरण में चुनाव क्यों
चुनाव की तारीख़ों की घोषणा होने के बाद जिस बात की तरफ़ राजनीतिक विश्लेषकों की नज़रें गई हैं, वह है महाराष्ट्र में एक ही चरण में चुनाव कराया जाना जबकि अमूमन महाराष्ट्र में दो चरणों में चुनाव कराये जाते थे। एक चरण में चुनाव होने का सबसे बड़ा नुक़सान कांग्रेस-एनसीपी को होगा क्योंकि उसके नेता पूरे प्रदेश में एक साथ समय नहीं दे पायेंगे। जबकि बीजेपी-शिवसेना एक तो सत्ता में हैं दूसरा वे अपनी चुनावी तैयारियाँ बहुत पहले शुरू कर चुके हैं। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस जन आदेश यात्रा के माध्यम से पूरे महाराष्ट्र का दौरा कर चुके हैं और शिवसेना के युवा नेता आदित्य ठाकरे जन आशीर्वाद यात्रा पूरी कर चुके हैं जबकि कांग्रेस-एनसीपी गुटबाज़ी और नेताओं के पार्टी छोड़कर जाने में ही उलझी हुई हैं।
अब बात करते हैं बीजेपी के सामने चुनौतियों की। विपक्षी दलों ने इन दिनों जोर-शोर से देश की ख़राब अर्थव्यवस्था, गिरती जीडीपी, जाती नौकरियों, घटते उत्पादन का मुद्दा उठाया है। उनके मुताबिक़, देश की माली हालत पिछले 70 सालों में सबसे ज़्यादा ख़राब है और वे चुनावों में इसे मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि मोदी-शाह की जोड़ी के आगे इन मुद्दों का कोई असर होगा। क्यों इसके लिए, हम ताज़ा ओपिनियल पोल का उदाहरण देते हैं।
एबीपी न्यूज/सी-वोटर के ओपिनियन पोल के मुताबिक़, बीजेपी-शिवसेना के साथ लड़ने पर उनका गठबंधन 205 सीटें जीत सकता है जबकि कांग्रेस और एनसीपी को सिर्फ़ 55 सीटें मिलती दिख रही हैं। मुख्यमंत्री के रूप में भी सीएम देवेंद्र फडणवीस जनता की पहली पसंद बने हुए हैं। जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को 185 सीटें मिली थीं।
फ़ोटो साभार - एबीपी न्यूज़
विपक्षी दलों के दावे पर भरोसा करे तो बीजेपी को तो हार जाना चाहिए लेकिन यहाँ तो ग्राफ़ चढ़ता दिख रहा है। आख़िर इसके पीछे क्या कारण है। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक़, जनता मोदी सरकार के तीन तलाक़ को लेकर क़ानून बनाने, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने और पाकिस्तान के बालाकोट में घुसकर हमला कर देने से बनी राष्ट्रवादी छवि से अभिभूत है और उसे ऐसा लगता है कि मोदी-शाह की जोड़ी ही बड़े फ़ैसले कर सकती है और उससे ज़्यादा बड़ी बात कि वही पाकिस्तान को सबक सिखा सकती है।
लोकसभा चुनाव में हमने देखा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद चुनावी रैली के मंच से पहली बार वोट देने वालों से बालाकोट में की गई सर्जिकल स्ट्राइक के नाम पर वोट माँगा था। ऐसे हालात में भले ही विपक्ष सही मुद्दों को उठा रहा हो लेकिन उनका असर जनता पर हो, यह दिखाई नहीं देता। बीजेपी ख़ुद अनुच्छेद 370 को हटाने के मुद्दे को भुनाने में जोर-शोर से जुटी दिखाई देती है।