महाराष्ट्र: मिलने लगे हैं शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी के सुर, जल्द बनेगी सरकार!

06:34 pm Nov 13, 2019 | संजय राय - सत्य हिन्दी

महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन भले ही लागू हो चुका है लेकिन सरकार बनाने के प्रयासों में कहीं कोई शिथिलता नजर नहीं आ रही है। न्यूज़ चैनलों के मुताबिक़, शिवसेना को समर्थन देने में देरी के चलते कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और ख़ुद शिवसेना में तनाव की स्थिति है। लेकिन जिस तरह से तीनों दलों के नेता आपस में मिल रहे हैं और न्यूनतम साझा कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम) की बात कह रहे हैं, उसे देखकर यही लगता है कि समझौते का कोई ठोस स्वरूप दो-तीन दिन में तय हो जाएगा। 

कांग्रेस और एनसीपी ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम के लिए पांच-पांच सदस्यीय टीमों का गठन कर लिया है। कांग्रेस की टीम में अशोक चव्हाण, पृथ्वीराज चव्हाण, माणिक राव ठाकरे, बालासाहब थोरात और विजय वड्डेटीवार शामिल हैं जबकि एनसीपी की टीम में जयंत पाटिल, अजीत पवार, धनंजय मुंडे, छगन भुजबल और नवाब मलिक शामिल हैं। ये नेता शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे और संजय राउत से चर्चा कर एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करेंगे। 

हिंदुत्व का मुद्दा नहीं आएगा आड़े

शिवसेना के साथ कांग्रेस-एनसीपी को न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने में जो सबसे बड़ी अड़चन बतायी जाती है, वह शिवसेना का हिंदुत्व को लेकर रुख है। लेकिन राउत ने बुधवार को साफ़ कहा है कि हिंदुत्व का मुद्दा न्यूनतम साझा कार्यक्रम या सरकार बनाने में आड़े नहीं आएगा। उन्होंने हरिवंश राय बच्चन की कविता अग्निपथ की लाइनें भी ट्वीट की हैं। राउत ने कहा है कि बीजेपी के साथ उनका गठबंधन टूट गया है और अब स्थिर सरकार के लिए नए साथियों के साथ कार्य आगे बढ़ रहा है। 

न्यूनतम साझा कार्यक्रम में एक और प्रमुख बात है, वह है शिवसेना की नौकरी के अवसरों में स्थानीय मराठी लोगों को प्राथमिकता की बात। मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार भी आज वहां स्थानीय लोगों को प्राथमिकता की बात कह रही है और उन्हें नौकरियों में प्रमुखता दे रही है, इसलिए इस मुद्दे पर अब कांग्रेस का रुख नरम ही रहेगा। दूसरी बात यह है कि शिवसैनिकों द्वारा गाहे-बगाहे हिंदी भाषी या पर-प्रांतीय लोगों पर हमले की। इसके बारे में शिवसेना का रुख राज ठाकरे की  महाराष्ट्र नव निर्माण सेना से थोड़ा हटकर है। विगत कुछ वर्षों में शिव सैनिकों का ज़्यादा टकराव पर-प्रांतीय लोगों से नहीं हुआ है। 

शिवसेना को बदलनी होगी छवि

यही नहीं, बाला साहब ठाकरे के रहते हुए ही उद्धव ठाकरे ने पार्टी की छवि को नए सिरे से संवारने के लिए ‘मी मुंबईकर’ मुहिम शुरू की थी।  इस मुहिम का मक़सद उत्तर भारतीय व अन्य प्रान्त के लोगों में पार्टी का आधार बढ़ाना था। अब जब शिवसेना नए गठबंधन के सहयोगियों के साथ आ रही है तो उसे फिर से अपनी इस मुहिम को प्रमुखता से आगे बढ़ाना होगा क्योंकि पर-प्रांतीय मतदाता मुंबई की बहुत सारी सीटों पर हार-जीत का समीकरण तय करते हैं। पहले यह मतदाता कांग्रेस की ताक़त हुआ करते थे लेकिन अब वह मोदी दौर में बीजेपी से जुड़ गये हैं। शिवसेना के साथ-साथ कांग्रेस को भी इस मतदाता को अपने साथ फिर से जोड़ने के लिए प्रयास करने होंगे।

किसानों के मुद्दे पर हैं सहमत

न्यूनतम साझा कार्यक्रम में एक और बड़ा मुद्दा है - प्रदेश के किसानों के लिए योजना। तीनों पार्टियों की इस मुद्दे पर राय क़रीब एक जैसी ही है। तीनों दल किसानों की पूर्ण कर्ज माफ़ी और उन्हें स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर उपज का दाम देने के पक्षधर हैं। निजीकरण की नीति पर शिवसेना हमेशा बीजेपी को घेरती रहती थी और मनमोहन सिंह की नीतियों का उदाहरण देकर देश की चौपट होती जा रही अर्थ व्यवस्था के लिए मोदी सरकार पर हमले करती थी। लिहाजा, इस मुद्दे पर भी तीनों दलों का मत क़रीब-क़रीब एक जैसा है।

शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होकर काम पर लौट चुके हैं, ऐसे में न्यूनतम साझा कार्यक्रम का प्रारूप भी एक-दो दिनों में आपस में साझा करके तीनों पार्टियाँ उस पर चर्चा शुरू कर देंगी, ऐसा कहा जा रहा है।  इसके विपरीत, सरकार बनाने को लेकर बीजेपी की ओर से कथित रूप से जो ख़बरें फैलाई जा रही हैं, उनका खंडन करते हुए शरद पवार ने पार्टी विधायकों को भरोसा दिलाया है कि राज्य में किसी भी हाल में फिर से चुनाव नहीं होंगे और शीघ्र ही नयी सरकार बनेगी। 

बग़ावत न करें विधायक!

एनसीपी नेता अजीत पवार ने विधायकों को इशारों-इशारों में यह संकेत दिए हैं कि बग़ावत करने वालों का जो हाल विधानसभा चुनाव में हुआ उससे भी कहीं ज़्यादा बुरा हाल अब हो सकता है, क्योंकि अब तीनों दल बाग़ी या पार्टी छोड़कर जाने वाले विधायक के ख़िलाफ़ साझा प्रत्याशी खड़ा करके उसे हरायेंगे। 

उल्लेखनीय है कि बीजेपी की ओर से गुरुवार को विधायकों की बैठक आहूत की गयी है जिसका विषय है - मध्यावधि चुनावों की तैयारी पर चर्चा करना। इस बैठक को दबाव की राजनीति के तहत दूसरी पार्टियों के विधायकों में डर फैलाने के नजरिये से देखा जा रहा है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि भले ही प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया है लेकिन यह ज़्यादा दिन तक नहीं रहेगा क्योंकि नई सरकार के गठन को लेकर गतिविधियां थमीं नहीं बल्कि बढ़ गयी हैं।