महाराष्ट्र की अपेक्षा असम में सुबह जल्दी होती है। मगर, बागी शिवसैनिकों के लिए सुबह का इंतज़ार हर रोज लंबा होता जा रहा है। एकनाथ शिंदे के राष्ट्रीय पार्टी के समर्थन की खुली घोषणा के बावजूद बीजेपी अब तक बागियों का साथ देने सामने नहीं आ सकी है। संख्या बल में लगातार बढ़ोतरी और यहां तक कि शिवसेना की ताकत का दो तिहाई जुटा लेने के बाद भी बागी खेमा निराश है क्योंकि उसे कोई नतीजा मिलता नहीं दिख रहा है।
न उद्धव ठाकरे इस्तीफा दे रहे हैं और न महा विकास अघाड़ी गठबंधन में कोई ऐसी फूट पड़ रही है जिससे उद्धव सरकार गिर जाए।
इनमें से कोई भी घटना होती तो बीजेपी महाराष्ट्र पर उपकार करने चली आती कि अब जनता के लिए बीजेपी ही विकल्प है। मगर, एनसीपी और कांग्रेस के बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहार ने न सिर्फ बागी शिवसैनिक विधायकों के मंसूबों पर पानी फेर दिया है बल्कि बीजेपी की सारी योजना भी धरी की धरी रह गयी है।
कांग्रेस-एनसीपी हैं साथ
महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री आवास खाली है। मगर, मुख्यमंत्री का पद नहीं। याद रामायण की आती है। राम सिंहासन खाली कर देते हैं। लेकिन, भरत उनकी खड़ाऊं को ही सिंहासन पर बिठाकर राम राज को आगे बढ़ाते हैं। आज भरत की भूमिका में कहीं न कहीं एनसीपी और कांग्रेस हैं। रामायण में राम के वनवास से लौटने के दौरान भ्रातृत्व सबसे ज्यादा मजबूत हुआ था। राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के बीच प्यार गहरा हुआ था। क्या उद्धव ठाकरे की शिवसेना और एनसीपी-कांग्रेस के दरम्यान भ्रातृत्व पहले से अधिक मजबूत होकर उभरने वाला है?
कहते हैं कि विपत्ति में ही मित्र की पहचान होती है। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना पर विपत्ति आन पड़ी है। अपने ही बेगाने हो चुके हैं। मगर, जो साथ खड़े हैं वे एनसीपी और कांग्रेस हैं। आम तौर पर राजनीति में कमजोर पड़ने पर सहयोगी बिदक जाते हैं। मगर, ये दोनों ही चिपक गये हैं और महाविकास अघाड़ी को पहले से अधिक मजबूती देने में जुटे हैं।
कमजोर दिख रहा है बागी गुट
एक वक्त आया जब लगा कि महाविकास अघाड़ी गठबंधन बस टूटने ही वाला है। शिवेसना प्रवक्ता संजय राउत ने कह दिया था कि बागी शिवसैनिकों की मांग एनसीपी-कांग्रेस से दूर होने की है, तो वे गठबंधन पर भी पुनर्विचार को तैयार हैं। राउत की इस टिप्पणी के बाद एनसीपी-कांग्रेस के कई नेताओं ने जवाबी प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया था। ऐसा लगा कि बीजेपी की मुराद पूरी होने वाली है।
ऐसे में अजित पवार और कमलनाथ की ओर से यह स्पष्ट कर दिया गया कि वे हर हाल में शिवसेना के साथ डटे रहेंगे।
मंगलवार से शुरू हुआ बागी शिवसैनिकों का खेल लगातार जारी है। वे लगातार मजबूत हुए हैं। फिर भी अपने मकसद से बहुत दूर हैं। शिवसेना पर कब्जा करना और बीजेपी के साथ सरकार बनाना बागी शिवसैनिकों का खुला मकसद है। इसके लिए हिन्दुत्व का मुद्दा उठाया गया है। मगर, जिस तरह से उद्धव ठाकरे के साथ एनसीपी-कांग्रेस ने एकजुटता का इजहार किया है वैसा समर्थन एकनाथ की शिवसेना को बीजेपी की ओर से नहीं मिल सका है। यह फर्क बहुत बड़ा है।
इसी वजह से संख्या में ज्यादा होकर भी एकनाथ अब प्रभावशाली नहीं दिख रहे हैं जबकि कम विधायकों के साथ भी उद्धव ठाकरे मजबूत नज़र आ रहे हैं।
डिप्टी स्पीकर के फैसले ने फूंकी जान
डिप्टी स्पीकर की ओर से शिवसेना के विधायक दल के नेता पद से एकनाथ शिंदे को हटाने का अनुमोदन और अजय चौधरी को उनकी जगह नियुक्त करने के फैसले से उद्धव ठाकरे के संघर्ष को जैसे नया जीवन मिल गया है। वहीं, एकनाथ शिंदे के लिए यह बड़ा धक्का साबित हुआ है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि शिवसेना विधायक दल की बैठक आगे जब कभी बुलायी जाएगी तो यह अधिकार अजय चौधरी के पास होगा। दूसरा मतलब यह है कि गुवाहाटी में विधायक दल का नेता चुनने की जो कवायद एकनाथ के समर्थन में हुई थी वह अवैध है।
अदालत पहुंचेगा मामला?
एकनाथ शिंदे समर्थक निर्दलीय विधायकों ने डिप्टी स्पीकर के खिलाफ अविश्वास जताया है लेकिन इससे डिप्टी स्पीकर के फैसले पर कोई असर नहीं पड़ेगा। इस बाबत आपत्तियां अगर अदालत में जाती हैं तो यह मामला लटकता चला जाएगा। अगली कार्रवाई डिप्टी स्पीकर 16 विधायकों की अयोग्यता के संदर्भ में लेने वाले हैं जिसके लिए उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने आग्रह किया है।
इस बाबत संबंधित विधायकों को सशरीर उपस्थित होने का आदेश डिप्टी स्पीकर दे सकते हैं ताकि उनके पक्ष को सुना जा सके। उपस्थित नहीं हो पाने की स्थिति में इन विधायकों को अयोग्य ठहराया जा सकता है।
अगर शिवसेना के 16 विधायक अयोग्य हो जाते हैं तो सदन में शिवसेना की ताकत रह जाएगी 39। उसके बाद बागी गुट के पास इस संख्या का दो तिहाई होना जरूरी हो जाएगा। तभी वे दल बदल कानून के दायरे से बच सकते हैं। इसका मतलब है कि उनके पास 26 विधायक होने चाहिए। अब तक की स्थिति के अनुसार 40 शिवसैनिक विधायकों के दावे ही अधिकतम सामने आए हैं। लेकिन इनमें से 16 विधायकों के अयोग्य होने पर बागियों के हौसले पस्त हो सकते हैं।
एमपी का फॉर्मूला क्यों नहीं ला सकी बीजेपी?
अगर बीजेपी खुलकर बागी शिवसैनिकों का साथ देती तो कई विकल्प खुल सकते थे जिससे उद्धव सरकार बेचैन हो जाती। ऐसा वह मध्य प्रदेश वाला फॉर्मूला अपनाकर कर सकती थी। आसान और मजबूत विकल्प था कि बागी शिवसैनिक विधायकी छोड़ने का एलान करते। अगर दावे के मुताबिक 40 विधायक इस्तीफा दे देते तो शिवसेना के पास 15 विधायक रह जाते हैं। तब सदन की ताकत 287-40 यानी 247 रह जाती है।
ऐसी सूरत में विधानसभा में बहुमत का जादुई आंकड़ा 124 पर आ ठहरता है। बीजेपी के पास अपने व निर्दलीय मिलाकर 113 विधायक हैं।
11 अतिरिक्त निर्दलीय या अन्य विधायकों का समर्थन जुटाना बीजेपी के लिए आसान था। मगर, बीजेपी इस दिशा में कदम उठाती नहीं दिख रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि यह राह भी जोखिम वाली है।
बीजेपी अब 2019 वाली गलती नहीं दोहराना चाहती जिसमें एनसीपी के महज पांच विधायकों के साथ उसने आनन-फानन में शपथग्रहण करवा ली थी। तब उसकी बहुत किरकिरी हुई थी।
बीजेपी इसलिए भी हिम्मत नहीं कर पा रही है कि उसकी उपरोक्त योजना संभवत: बागी शिवसैनिकों को भी मंजूर ना हो। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इन बागी शिवसैनिकों को दोबारा चुनाव जीतने का भरोसा नहीं है। बीजेपी को इंतज़ार था कि जब शिवसैनिकों में मतभेद बढ़ेंगे और उद्धव ठाकरे पर दबाव बढ़ेगा तो महाविकास अघाड़ी गठबंधन भी कमजोर होगा। तब कोई न कोई ऐसी सूरत जरूर बन जाएगी जिससे सत्ता में आने का अवसर बन जाए। मगर, ऐसा होता नहीं दिख रहा है।
उद्धव के पास और भी हैं विकल्प
थोड़ा समय मिला तो पदलोलुपता के आरोप से बचने के लिए उद्धव ठाकरे कई और चाल चल सकते हैं। वे किसी अन्य शिवसैनिक को मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर सकते हैं। इससे बागी विधायकों के तेवर ढीले पड़ेंगे। उद्धव ठाकरे पूरे प्रदेश में जिला स्तर पर शिवसैनिकों से सीधा संवाद करते हुए जहां संगठन को मजबूत कर सकते हैं वहीं बागी विधायकों को जनता से अलग-थलग भी कर सकते हैं।
उद्धव ठाकरे के लिए यह सुखद स्थिति है कि सारे बागी विधायक महाराष्ट्र में न होकर गुवाहाटी में हैं। वे जनता से कटे हुए हैं। इसके अलावा ऐसा भी नहीं है कि जनता बागी विधायकों के पक्ष में जुलूस या प्रदर्शन करती दिख रही है।
चूंकि उद्धव ठाकरे के समर्थक सड़कों पर उतर आए हैं और वे भावनात्मक तौर पर गुस्से में हैं इसलिए बागी विधायकों के समर्थकों की इतनी हिम्मत नहीं कि वे उनका सामना कर सकें। निश्चित रूप से जनता से कनेक्ट होने का उद्धव के पास पूरा मौका है। कहने की जरूरत नहीं कि यह मौका उन्हें इसलिए मिल पा रहा है क्योंकि महाविकास अघाड़ी गठबंधन मजबूत है।