अपनी सरकार के ख़िलाफ़ व्याप्त ज़बर्दस्त एंटी-इंकम्बेंसी और चुनाव-प्रचार के दौरान संगठित विपक्ष के हमलों का मुक़ाबला करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिस आक्रामक मुद्दे की लंबे अरसे से तलाश थी वह मिल गया लगता है ! तलाश किए जा रहे मुद्दे में सिर्फ़ राहुल गांधी को ही निशाने पर लिया जाना था और वह मुमकिन नहीं हो पा रहा था। भाजपा में इस बारे में सोचा नहीं गया होगा कि तेलंगाना के असफल प्रयोग की तरह अगर नया दांव भी जनता के बीच नहीं चल पाया तो पार्टी क्या करेगी ?
दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में 31 मार्च को हुई विपक्षी गठबंधन की विशाल रैली में राहुल गांधी ने कहा था ‘भाजपा अगर चुनावों में जीतकर संविधान बदलती है तो देश में आग लग जाएगी। जिस दिन संविधान ख़त्म होगा हिंदुस्तान नहीं बचेगा। यह संविधान की रक्षा वाला चुनाव है।’
मंगलवार (2 अप्रैल) को उत्तराखंड के रूद्रपुर में प्रधानमंत्री ने राहुल द्वारा दिल्ली की रैली में कहे गए शब्दों को बिलकुल नए और मतदाताओं को उत्तेजित कर सकने वाले अन्दाज़ में प्रस्तुत कर दिया। राहुल पर निशाना साधते हुए मोदी ने कहा : कांग्रेस के शाही परिवार के शहज़ादे ने ऐलान किया है कि अगर देश ने तीसरी बार भाजपा को चुना तो ( देश में ) आग लग जाएगी। साठ साल तक देश पर राज करने वाले दस साल सत्ता से बाहर क्या रह गए, देश में आग लगाने की बात कर रहे हैं।’ प्रधानमंत्री ने सभा में उपस्थित लोगों से इस सवाल का जवाब देने का आह्वान भी किया कि क्या वे देश में आग लगने देंगे? उन्होंने लोगों से अपील की कि वे कांग्रेस का सफ़ाया कर दें।
आश्चर्य भी व्यक्त किया जा रहा था कि रामलीला मैदान में दिए गए भाषण के दो दिन बाद तक भी प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी पर कोई सीधा आक्रमण क्यों नहीं किया? मेरठ में तो उनकी सभा 31 मार्च को ही हो गई थी । उसमें भी उन्होंने ‘आग लग जाएगी’ वाली बात को नहीं उठाया। निश्चित ही इसके लिए उत्तराखण्ड जैसी देवभूमि की तलाश रही होगी जहां उनके कहे को श्रोताओं ने समुचित सम्मान के साथ ग्रहण किया। भय व्यक्त किया जा सकता है कि उत्तराखण्ड का प्रयोग अब देश के अन्य स्थानों पर भी दोहराया जाएगा।
प्रधानमंत्री इसके पूर्व मुंबई के शिवाजी पार्क मैदान में ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा ‘की समाप्ति पर 17 मार्च को हुई विपक्ष की रैली में राहुल द्वारा परिभाषित ‘मोदी की असली शक्ति’ वाली बात को तेलंगाना की अपनी जनसभा में नारी शक्ति के अपमान के रूप में प्रस्तुत कर महिला मतदाताओं का समर्थन बटोरने की कोशिश कर चुके थे।
लोकसभा चुनावों को लेकर ताज़ा चिंताएँ यह हैं कि संपूर्ण विपक्ष ने संगठित होकर जिस तरह की चुनौती भाजपा के सामने पेश की है प्रधानमंत्री उसका मुक़ाबला लोकतांत्रिक तरीक़ों से ही करेंगे कि नहीं ? उत्तराखण्ड की सभाओं में उनके द्वारा दिये गए भाषण चिंताएँ बढ़ाने वाले हैं। विपक्ष की चिंताओं में अब यह भी शामिल हो रहा है कि पराजय की स्थिति में प्रधानमंत्री संवैधानिक परंपराओं का सम्मान करते हुए शांतिपूर्ण तरीक़ों से सत्ता के हस्तांतरण के लिए अपने समर्थकों को राज़ी कर पाएँगे कि नहीं ?
प्रधानमंत्री अथवा एनडीए के किसी घटक दल ने भी इस रहस्य का खुलासा नहीं किया है कि लोकसभा की कुल जमा 543 सीटों में अकेले उन्हें ही 400 कैसे मिल सकती हैं ? क्या कांग्रेस सहित संपूर्ण विपक्ष को केवल बची 143 अथवा उससे कम सीटें ही प्राप्त होंगी ? प्रधानमंत्री के दावों के पीछे कोई तो आधार होगा ? एकमात्र खुलासा जो कर्नाटक से भाजपा के सांसद अनंतकुमार हेगड़े ने गलती से या जान-बूझकर किया और जिसकी क़ीमत उन्हें पार्टी-टिकिट से वंचित होकर उठानी पड़ी वह यह था कि 400 सीटों की ज़रूरत देश का संविधान बदलने के लिए है।
रामलीला मैदान की रैली में राहुल गांधी ने न सिर्फ़ सीटों के मुद्दे पर ही मोदी को चुनौती दी यह भी बता दिया कि भाजपा के 400 के नारे के पीछे असली ताक़त किन शक्तियों की है। राहुल गांधी ने दावा किया कि भाजपा को सिर्फ़ 180 सीटें मिलने वाली हैं और 400 सीटों का नारा इवीएम और मैच फिक्सिंग के दम पर दिया जा रहा है। इवीएम की विश्वसनीयता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में लंबित याचिकाओं के संबंध में ताज़ा जानकारी यही है कि वीवीपैट की सभी पर्चियों की गिनती पर केंद्र और निर्वाचन आयोग से 17 मई तक जवाब माँगा गया है। मतों की गिनती 4 जून को होना निर्धारित है।
प्रधानमंत्री या उनके सहयोगियों में किसी ने इस संबंध में कोई संकेत नहीं दिया है कि भाजपा और उसके सहयोगी दल विपक्षी गठबंधन के पक्ष में सड़कों पर उमड़ रहे व्यापक जन-आक्रोश का किस प्रकार मुक़ाबला करेंगे ? जिस तरह के सरकार-विरोधी मूड में देश की जनता इस समय है क्या वह अविश्वसनीय चुनाव परिणामों को आँखें बंद करके स्वीकार कर लेगी?
आश्चर्यजनक है कि विपक्ष के ख़िलाफ़ हमले के लिए प्रधानमंत्री को राहुल के अलावा कोई दूसरा मुद्दा नहीं मिल रहा है । यह बताता है कि जनता के बीच उनकी बहु-प्रचारित ‘चमत्कारिक’ छवि का जादू इस बार नहीं चल पाएगा । प्रधानमंत्री के लिए 2024 की लड़ाई राजनीतिक रूप से जीवन-मरण का प्रश्न बनती जा रही है। उनकी सफलता-असफलता के साथ पार्टी और संघ के भविष्य के अलावा निहित स्वार्थों के शक्तिशाली समूह का अस्तित्व भी जुड़ा हुआ है। सवाल यह है कि अपनी तीसरी पारी के लिए जिन मुद्दों को मोदी अपनी विजय का ‘बालाकोट’ बनाना चाहते हैं क्या राहुल गांधी उसे बनने देंगे?