नरेंद्र मोदी की पूर्ण बहुमत की सरकार ने अपने पाँच साल लगभग पूरे कर लिए हैं। अब अपने कामकाज और चुनावी वादों की कसौटी पर जल्दी ही अगला जनादेश माँगने के लिए बीजेपी जनता की अदालत में होगी। उधर आज़ादी के बाद 2014 के लोकसभा चुनावों में सबसे कमज़ोर स्थिति में आई कांग्रेस बीते पाँच सालों में अपनी विपक्षी भूमिका और मोदी सरकार की विफलताओं को आधार बनाकर जनता से फिर मौका माँगने के लिए मैदान में उतरेगी।
बीजेपी और कांग्रेस के नेतृत्व वाले एनडीए और यूपीए गठबंधनों के बीच होने वाले मुख्य मुक़ाबले के अलावा ग़ैर बीजेपी ग़ैर कांग्रेस के नारे के साथ कुछ अन्य दल भी तीसरे मोर्चे की शक्ल में जनता के बीच आएँगे। फिर चुनाव के बाद वे अपनी-अपनी सुविधा के मुताबिक अपना रास्ता तय करेंगे। जनता एक बार फिर तय करेगी कि अगले पाँच सालों तक देश की कमान किसके हाथ में होनी चाहिए।
2014 में क्या दिखाए गए थे सपने?
बीजेपी के वादों और दावों को अगर कसौटी पर कसा जाए तो 2014 में जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था, तब बीजेपी के शीर्ष नेताओं और पार्टी के सरपरस्त आरएसएस को भी ये उम्मीद नहीं थी कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा को अकेले बहुमत और एनडीए को 337 सीटें मिल जाएँगी।आकलन यही था कि भाजपा करीब सवा दो सौ या कुछ इससे अधिक सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में आएगी और सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाएगी। इसलिए पार्टी के घोषणापत्र से लेकर नरेंद्र मोदी के भाषणों में हर वह वादा किया गया जो अगर पूरे हो जाते तो देश की कायापलट हो जाती।
मसलन विदेशी बैंकों से लाखों करोड़ रुपए के काले धन की वापसी और हर व्यक्ति के खाते में 15-15 लाख रुपए , हर साल दो करोड़ लोगों को रोज़गार, अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी और आमूलचूल सुधार, चीन और पाकिस्तान जैसे देशों से आँख मिलाकर बात करने जैसी बातें बीजेपी के घोषणा पत्र और चुनावी भाषणों में थीं।
यही नहीं अमेरिका, रूस जैसी महाशक्तियों से बराबरी के दोस्ताना रिश्ते,आतंकवाद का समूल नाश,अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण, जम्मू कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति, समान नागरिक कानून, गंगा को पूरी तरह निर्मल करना और महिलाओं पर अत्याचारों की समाप्ति के अलावा उनकी संपूर्ण सुरक्षा जैसे तमाम वादे भी घोषणापत्र से लेकर नारों और भाषणों में थे।
हर वर्ग को दिखाए अलग सपने
समाज के हर वर्ग हर क्षेत्र और हर समुदाय को भी अलग अलग सपने दिखाए गए थे। इन प्रकट वादों और इरादों के जरिए, आक्रामक प्रचार अभियान के जरिए देश में नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे महानायक की बनाई गई जो दशकों ही नहीं सदियों बाद इस देश के उद्धार के लिए सामने आया है।
इसके साथ ही पिछड़ों ने मोदी को अपने सजातीय महानायक के तौर पर देखा तो हिंदुओं के एक बड़े हिस्से ने उन्हें हिंदुत्व का सबसे प्रखर प्रहरी माना था, जो देश और दुनिया में बढ़ रहे कथित इस्लामिक जिहाद के ख़तरे से उन्हें बचा सकता है।
सपनों की इस चुनावी बाजीगरी के अलावा मोदी की अगुआई में भाजपा ने बहुत ख़ूबसूरती से जातीय समीकरण भी साधे। उत्तर प्रदेश में ‘अपना दल’ जैसे छोटे दल और बिहार में अपने घोर निंदक रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा को जोडकर दलितों और पिछड़ों की गोलबंदी भी अपने पक्ष में सफलता पूर्वक की। इसके अलावा आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम के साथ गठजोड़ किया तो झारखंड में आजसू और तमिलनाडु में कई छोटे दलों को साथ लेकर धुर दक्षिण में पैठ बनाई।
कुल मिलाकर 2014 में बनी मोदी सरकार को एक वाक्य में इस तरह समेटा जा सकता है कि जातीय समीकरणों की ईंटें, हिंदुत्व का सीमेंट, विकास का प्लास्टर और सुशासन का पेंट यानी मोदी सरकार।
सवालों के घेरे में मोदी
भाजपा के इस चुनावी चक्रव्यूह के सामने थी दस साल के सत्ता विरोधी रुझान वाली वो मनमोहन सरकार जिसके ऊपर टू जी से लेकर कॉमनवेल्थ, कोयला घोटाले जैसे अनेक भ्रष्टाचार के आरोप और नीतिगत विकलांगता की शिकायतें भी थीं। सोनिया गांधी के थक चुके कमजोर नेतृत्व और अपने ही नेताओं की करतूतों के बोझ से टूटती कमर वाली कांग्रेस नरेंद्र मोदी के करिश्मे और भाजपा के चुनावी झंझावत के सामने भरभराकर गिर पड़ी। जिसके बाद अपने इतिहास के सबसे कमज़ोर दौर में पहुँच गई।इस पृष्ठभूमि में पूरी धमक और चमक के साथ सत्ता में आई मोदी की भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार अब फिर जनता से मुख़ातिब होने जा रही है। 2014 के चुनावी वादों में काले धन की वापसी, हर साल दो करोड़ लोगों को रोज़गार, किसानों को फसल की लागत का दोगुना मूल्य, अर्थव्यवस्था में सुधार, महिलाओं पर अत्याचारों की रोकथाम और उनकी सुरक्षा राम मंदिर के निर्माण, चीन और पाकिस्तान के साथ नीति जैसे मुद्दों को लेकर सवालों के घेरे में है।
वहीं दूसरी तरफ स्वच्छता अभियान, उज्ज्वला योजना, जनधन खाते, फसल बीमा योजना, किसान सम्मान राशि, आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा, डिजिटल इंडिया, मुद्रा लोन जैसे कार्यक्रमों को लेकर मोदी सरकार दोबारा जनादेश माँगने जा रही है।
बीजेपी रणनीतिकार हैं चिंतित
2014 के बाद झारखंड, जम्मू कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, असम, उत्तराखंड और त्रिपुरा जैसे राज्यों में मिली जीत ने जहाँ भाजपा का मनोबल बढ़ाया वहीं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के सियासी दबदबे को भी कायम किया। इन राज्यों में मिली जीत ने नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ को भी नई ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया। वहीं दिल्ली, बिहार, पंजाब की हार, गुजरात में कांग्रेस के साथ काँटे के संघर्ष और कर्नाटक में तमाम ज़ोर के बावजूद सत्ता के हाथ से फिसल जाने ने मोदी-शाह की जोड़ी की अजेयता के मिथक को कमजोर ज़रूर किया था।वहीं लोकसभा चुनावों से महज चंद महीने पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ के विधानसभा चुनावों की हार ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। दूसरी और इन राज्यों में हुई भाजपा की हार ने कांग्रेस में जान फूँकने का काम किया। इसके बाद पूरे चार साल तक मोदी के मुकाबले पप्पू छवि वाले राहुल गांधी अचानक प्रधानमंत्री को चुनौती देते नज़र आने लगे।
पहले नोटबंदी, जीएसटी और फिर रफ़ाल के मुद्दे पर जिस तरह राहुल ने लगातार नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला करना जारी रखा, उसने भाजपा और उसके रणनीतिकारों को परेशान कर दिया।
रफ़ाल पर उलझती सरकाररफ़ाल मामले पर सरकार लगातार उलझती गई। नोटबंदी और जीएसटी के कारण अर्थव्यस्था में आई सुस्ती, बेरोज़गारी और किसानों की दुर्दशा ने विपक्ष को और धार दे दी। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन ने भाजपा रणनीतिकारों के माथे पर चिंता की लकीरें बढ़ा दीं।
वहीं देश भर के विपक्षी दलों की बढ़ती नज़दीकी और उनकी संभावित एकजुटता के जवाब में मोदी-शाह की जोड़ी ने ‘मोदी के मु़क़ाबले कौन’ का नारा दिया। इस नारे से बीजेपी ने विपक्ष के सामने नेतृत्व की चुनौती खड़ी करने की कोशिश भी की। वहीं सियासी माहौल में एक साल पहले तक जो लोग मोदी शाह की भाजपा को अपराजेय मानते थे, वे भी सवाल पूछने लगे हैं कि 2019 में क्या मोदी वापस आ सकेंगे?
इस बार मोदी की मुश्किल डगर
धारणा बनने लगी हैं कि भाजपा के लिए इस बार बहुमत के आँकड़े को पार पाना मुमकिन नहीं होगा। इसका संकेत एनडीए से पहले तेलुगू देशम के छिटकने, फिर उपेंद्र कुशवाहा के अलग होने, शिवसेना की रोज़ाना उलटबांसी और उत्तर प्रदेश में एनडीए के छोटे घटक दलों के बागी तेवरों से भी मिलने लगा।अपने गठबंधन को बचाए रखने के लिए भाजपा नेतृत्व ने बिहार में नीतीश,पासवान और महाराष्ट्र में शिवसेना के आगे अपना रुख बेहद नरम करके सीटों का समझौता कर लिया। इसके बाद तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक को भी साध लिया गया और तेलंगाना में टीआरएस, उड़ीसा में नवीन पटनायक और आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी को चुनाव के बाद संभावित सहयोगियों की श्रेणी में रख लिया गया है।
राम नहीं सेना लगाएगी नैया पार!
उधर संघ परिवार ने पिछले कुछ महीनों से राम मंदिर के लिए जबर्दस्त दबाव बनाया था। प्रयागराज में हुए अर्द्धकुंभ को कुंभ का रूप देकर हिंदू भावनाओं को तुष्ट करने के साथ-साथ राम मंदिर निर्माण का शंखनाद भी शुरू हो गया था। लेकिन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक प्रक्रिया की आड़ में संघ परिवार को अगले चार महीनों तक चुप रहने को राज़ी कर लिया। क्योंकि मोदी इस चुनाव को राम मंदिर पर नहीं किसी दूसरे अजेंडे पर ले जाना चाहते थे।जल्दी ही वह दूसरा अजेंडा भी सामने आ गया जब 14 फरवरी को पुलवामा में जैश के आतंकवादी हमले में सीआरपीएफ़ के 40 से ज़्यादा जवानों की शहादत का बदला लेने के लिए पाकिस्तान के बालाकोट में भारतीय वायुसेना ने जैश के ठिकानों पर हमला किया। जिसमें सैकड़ों आतंकवादियों के मारे जाने के दावा किया गया। जिसके बाद ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी जनसभाओं में पाकिस्तान को ललकारते हुए कहा कि घर में घुसकर मारेंगे।
मोदी के साथ ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, गृह मंत्री राजनाथ सिंह समेत सभी केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा नेताओं ने पाकिस्तान में आतंकवादियों के ख़िलाफ़ वायुसेना के हमले को मोदी सरकार की नई नीति के रूप में पेश किया। जिसके बाद राम मंदिर पीछे चला गया और राष्ट्रवाद सबसे बड़े मुद्दे के रूप में सामने आ गया।
हवाई हमले के चार दिनों तक विपक्ष को साँप सूँघ गया। बड़े सधे तरीके से विपक्ष ने संयुक्त रूप से वायुसेना की तारीफ़ की और सरकार से इसके राजनीतिकरण पर एतराज़ भी जताया। जिसके बाद मोदी और शाह की आक्रामकता ने राम से ज़्यादा राष्ट्र के मुद्दे को धार दे दी।
राष्ट्रवाद बनेगा चुनावी मुद्दाअब भाजपा को पूरी उम्मीद हो गई है कि राष्ट्रवाद की लहरों पर तैर कर उसकी चुनावी नाव 2019 का चुनावी महासागर पार कर लेगी। उधर विपक्ष ने भी धीरे-धीरे इसके जवाब में विदेशी मीडिया और सोशल मीडिया में वायुसेना के हमले में आतंकवादियों की मौत पर उठने वाले सवालिया निशानों की आड़ में सरकार से सबूत माँगने शुरू कर दिए।
वहीं बीजेपी ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि 26 नवंबर 2008 के आतंकवादी हमले के बाद यूपीए सरकार ने सेना को ऐसी कार्रवाई करने से रोक दिया था। जवाब में राहुल गांधी ने भी बीजेपी पर उल्टा सवाल दाग दिया कि जैश सरगना मसूद अज़हर को कंधार कांड के समय किसने रिहा किया और पाकिस्तान छोड़ने कौन गया था?
ग़ौरतलब है कि जब कंधार कांड हुआ था तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी नीत एनडीए सरकार थी और कंधार में अपह्रत भारतीय विमान के यात्रियों को सकुशल वापस लाने के लिए किए गए समझौते में तत्कालीन शीर्ष ख़ुफ़िया अधिकारी अजीत डोभाल की प्रमुख भूमिका थी।
बता दें कि डोभाल इस समय मोदी सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं। राहुल के निशाने पर सीधे डोभाल ही हैं जो इस समय आतंकवादियों के ख़िलाफ़ होने वाली दोनों ही सर्जिकल स्ट्राईक के प्रमुख रणनीतिकार और सूत्रधार माने जाते हैं।
कुल मिलाकर 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए विकास,सुशासन से होते हुए राम मंदिर और अब राष्ट्र की सुरक्षा के चुनावी अजेंडे पर आ गया है। वहीं विपक्ष विशेषकर कांग्रेस इसे रोज़गार, आर्थिक संकट, किसानों की दुर्दशा और कश्मीर व पाकिस्तान पर मोदी सरकार की नीतियों की अस्पष्टता को मुद्दा बनाकर मैदान में उतर रही है। बीजेपी मोदी की लोकप्रियता, आक्रामक भाषण और संवाद शैली के अलावा पाकिस्तान की आड़ में हिंदुत्व के ध्रुवीकरण को अपना ट्रंप कार्ड मान रही है। वहीं विपक्ष के लिए सामाजिक और जातीय समीकरण, विपक्षी गोलबंदी और अलग-अलग राज्यों में भाजपा को रोकने वाले नेताओं (मायावती, अखिलेश, ममता, नवीन पटनायक,चंद्रबाबू नायडू,डीएमके आदि) की ताक़त उसका हथियार हैं
तारीख़ दोहराना होगा मुश्किल
भाजपा के सामने उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़,झारखंड, दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, और पूर्वोत्तर में पिछले लोकसभा चुनाव में जीती अपनी सीटें बचाए रखने की बेहद कठिन चुनौती है। इन राज्यों में भाजपा लगभग अपने अधिकतम और सफलतम प्रदर्शन पर है। जहाँ से आगे बढ़ना नामुमकिन है और सीटें घटने की आशंका ज़्यादा है।बिहार में नीतीश को साथ लेकर भाजपा को अपने पिछले प्रदर्शन दोहराने की उम्मीद है तो उत्तर प्रदेश में उसे राम लहर के बाद अब राष्ट्र लहर का सहारा है। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा की संयुक्त चुनौती भाजपा पर भारी पड़ सकती है तो कर्नाटक में कांग्रेस जद(एस) गठबंधन से कड़ी टक्कर मिल रही है। कांग्रेस से सीधे मुकाबले वाले गुजरात में भाजपा का पलड़ा भारी रह सकता है लेकिन पिछली बार की तरह पूरी 26 सीटें जीतना आसान नहीं है।
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद भाजपा के लिए पिछला प्रदर्शन दोहरा पाना टेढी खीर है। दिल्ली में भाजपा, कांग्रेस और आप के बीच त्रिकोणात्मक मुकाबला हो सकता है। नतीजे कुछ भी हो सकते हैं। वहीं अगर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में समझौता हो गया तो भाजपा के लिए सात सीटों का पुराना प्रदर्शन दोहराना असंभव हो जाएगा।
हरियाणा में नगर निगम चुनावों और जींद उपचुनाव में जीत से भाजपा को उम्मीद बँधी है। हिमाचल प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड में भी कांग्रेस के साथ बराबरी का मुक़ाबला है। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन तो हो गया लेकिन पिछले कई महीनों से दोनों के बीच जो खटास आई है, उससे ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं में एकजुटता बनाने की चुनौती भी है। पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ पैदा हुए असंतोष ने भाजपा के सामने पुराने प्रदर्शन को दोहराने की बड़ी चुनौती पेश कर दी है।
घाटे की भरपाई दीदी के राज्य से?
भाजपा की कोशिश अपने प्रभाव क्षेत्र वाले राज्यों में होने वाले संभावित घाटे को पूरा करने के लिए प.बंगाल, ओड़ीशा, तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने की है। लेकिन प.बंगाल में ममता बनर्जी, उड़ीसा में नवीन पटनायक, तेलंगाना में चंद्रशेखर राव, आंध्र में चंद्रबाबू नायडू और जगन रेड़्डी जैसे इलाक़ाई नेता उसकी राह रोक रहे हैं।केरल में सबरीमाला मुद्दे के ज़रिए भाजपा ने हिंदु ध्रुवीकरण की बहुत कोशिश की है। उसकी यह कोशिश वोटों के प्रतिशत में बढ़ोत्तरी तक ही रह जाएगी या सीटें भी जिता सकेगी, यह चुनाव के बाद पता चलेगा। तमिलनाडु में भाजपा ने अन्ना द्रमुक से गठबंधन करके अपने लिए कुछ संभावनाएँ ज़रूर पैदा की हैं लेकिन जयललिता विहीन और शिखर स्तर पर विभाजित अन्ना द्रमुक ख़ुद कितना चमत्कार कर पाएगी यह कहना भी मुश्किल है।
पुरानी लहर तैयार करने की कोशिश
इस पूरे परिदृश्य में भाजपा को सिर्फ़ और सिर्फ 2014 वाली नरेंद्र मोदी की करिश्माई अपील पर ही भरोसा है। जिससे वह तमाम सारे सामाजिक समीकरणों को ध्वस्त करके 2014 से भी बड़ी लहर पैदा कर सकें। भाजपा और उसके रणनीतिकार इसे बनाने में जुटे भी हुए हैं। इसके लिए नरेंद्र ‘मोदी के मुकाबले विपक्ष के पास कौन’ ‘एक अकेला मोदी सब पर भारी’ ‘मोदी को देश की चिंता,विरोधियों को मोदी को हटाने की फिक्र’ जैसे नारे और नैरेटिव गढ़े जा रहे हैं।
उरी और पुलवामा के बाद सीमा पार की गई सैनिक कार्रवाइयों को भाजपा सरकार और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपलब्धि और सख़्त निर्णय बताकर उनकी नई छवि बनाने का अभियान मीडिया और सोशल मीडिया पर शुरु हो चुका है।
मोदी की विदेश नीति की सफलता, उनकी विश्व नेताओं के साथ निजी संबंधों की कूटनीति के जरिए पाकिस्तान को अलग-थलग करना, इस्लामिक देशों के संगठन के सम्मेलन में भारत की मौजूदगी, पड़ोसी देशों पर भारत के दबदबे जैसी तमाम उपलब्धियों के तूफानी प्रचार से मोदी की महानायक छवि के जरिए बीजेपी चुनाव में एक राष्ट्रवादी लहर पैदा करने की पूरी कोशिश कर रही है।
जिसके मुद्दे भारी उसकी बारी
दूसरी ओर कांग्रेस एक तरफ़ अपने राजनीतिक गठबंधनों के जरिए ऐसा सामाजिक समीकरण अपने पक्ष में बनाना चाहती है जो भाजपा के हिंदुत्व और राष्ट्रवादी नारे की काट कर सके। उसके तमिलनाडु, कर्नाटक, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, आंध्र प्रदेश में गठबंधन तय हैं। जबकि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के साथ गठबंधन अगर नहीं भी हुआ तो भाजपा के ख़िलाफ़ कुछ सीटों पर एक समझदारी ज़रूर बन सकती है।अपने प्रभाव वाले राज्यों में पार्टी ख़ुद के बलबूते पर भाजपा को चुनौती देने की तैयारी कर रही है। नोटबंदी और जीएसटी के नकारात्मक प्रभावों, किसानों की दुर्दशा, बेरोज़गारी, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और सामाजिक सौहार्द पर संकट, रफ़ाल और नीरव मोदी, मेहुल चौकसी जैसे भगोड़ों के मुद्दे पर कांग्रेस और विपक्ष मोदी सरकार को घेरेगा। दोनों खेमों में जिसके मुद्दे भारी पड़ेंगे उसकी लहर बनेगी। कुल मिलाकर 2014 का लोकसभा चुनाव अन्ना आंदोलन से और सत्ता विरोधी रुझान से लड़खड़ाई यूपीए सरकार से और मोदी की करिश्माई छवि से था।
वहीं 2019 का चुनाव अपने तमाम घरेलू और वैदेशिक मोर्चों पर चुनौतियों के बावजूद अपनी कल्याणकारी योजनाओं, हिंदुत्व के राष्ट्रवादी एजेंडे और सुधार कार्यक्रमों के रथ पर सवार एक करिश्माई छवि और बेहतर संवाद कुशल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मजबूत सरकार बनाम दिग्गज नेताओं के नेतृत्व में एकजुट विपक्ष, सधे सामाजिक समीकरणों के जरिए जातीय गोलबंदी, बेरोज़गार युवाओं के रोष और कर्ज व घाटे के बोझ से दबे किसानों के आक्रोश और नोटबंदी जीएसटी की मार से पीड़ित व्यापारियों और छोटे मझोले उद्यमियों के असंतोष की लहरों पर तैरते नेता राहुल गांधी के बीच है।
वह राहुल गांधी जिन्हें 2014 में पूरे देश ने ख़ारिज कर दिया था और जिनकी स्वीकार्यता महज दिसंबर 2018 में तब हुई जब कांग्रेस को भाजपा शासित तीन राज्यों में जीत मिली। अब यह देश को तय करना है कि अगले पाँच साल तक उसकी कमान किसके हाथ में होगी।