उत्तर प्रदेश में वही हो गया है जिसका भारतीय जनता पार्टी को एक अरसे से डर था। उसके पैरोकार दावा कर रहे थे कि वे अखिलेश और मायावती को मिलने ही नहीं देंगे। उनका लक्ष्य बिहार में गठबंधन तोड़ देना और उत्तर प्रदेश में होने नहीं देना था। वे एक लक्ष्य वेध चुके थे, और दूसरा सीबीआई की मदद से वेधना चाहते थे। ज़ाहिर है, मायावती और अखिलेश की साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद वे इस दूसरे म़कसद में नाकाम हो चुके हैं। अब उनकी पार्टी को ग़ैर-भाजपा वोटों की 44 से 50 फ़ीसदी वोटों के बीच की विराट गोलबंदी का मु़काबला करना होगा। क्या भाजपा इस चुनौती का सामना कर पाएगी? इस प्रश्न का उत्तर पाने से पहले हमें यह देखना होगा कि 2017 के विधानसभा चुनाव में 44 प्रतिशत वोट और तीन सौ से ज़्यादा सीटें पाने के लिए भाजपा ने कौन सी रणनीति अख़्तियार की थी। यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि 2017 का चुनाव-परिणाम कमोबेश 2014 के चुनाव-परिणाम जैसा ही था।
‘सब जात बनाम तीन जात’
2017 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में ‘सब जात बनाम तीन जात’ जैसे नारे के आधार पर गोलबंदी की थी। यह 1991 में भाजपा के कल्याण सिंह शैली की सोशल इंजीनियरिंग का 2017 का नया और अधिक व्यापक संस्करण था। इसका नतीजा यह निकला कि अति-पिछड़ी जातियों, ग़ैर-यादव ओबीसी जातियों और गैर-जाटव दलितों को भाजपा ने क्रमश: बसपा, सपा और कांग्रेस की तऱफ झुके तीन समुदायों (जाटवों, यादवों और मुसलमानों) के ख़िलाफ़ खड़ा कर दिया।
अपनी ब्राह्मण-बनिया-ठाकुर छवि से परे जाते हुए भाजपा ने ग़रीबों और पिछड़ों का व्यापक सामाजिक गठजोड़ बनाने में सफलता प्राप्त की। उसने 119 सीटें राजभरों, कुशवाहाओं और मौर्यों जैसी गैर-यादव जातियों को दीं।
उसने राजभरों की छोटी सी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ गठजोड़ करके उसे 8 सीटें दीं। भाजपा ने 69 टिकट ग़ैर-जाटव दलितों, जैसे धोबी और खटीक, को दिए।
ब्राह्मण-राजपूत-बनिया जकड़ से बाहर
इसी के साथ भाजपा ने सोची-समझी योजना के तहत उत्तर प्रदेश की ऊँची जातियों को एक सामरिक चुप्पी थमा दी ताकि बिहार के चुनाव वाली ग़लती न दोहराई जा सके। ब्राह्मणों के बीच संघ के स्वयंसेवकों का प्रचार यह था कि ‘मन ही मन वोट दीजिए, संयम रखिए अपनी वाणी पर’। ऊँची जातियों की मुखर दावेदारियों ने कमज़ोर जातियों को भाजपा के विरोध में कर दिया था। प्रदेश के तीन हिस्सों- निचले दोआब, अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में भाजपा ने यादवों को गुण्डों और उत्पीड़कों के रूप में दिखाया ताकि उनके ख़िला़फ़ ऊँची जातियों और अति-पिछड़ों और आरक्षण के लाभों से वंचित दलितों के वोट पाए जा सकें। लेकिन, ये वोट भाजपा को यूँ ही नहीं मिले। उसने इनके लिए दो साल पहले से सांगठनिक पेशबंदी की थी। 2015 में भाजपा के आला कमान ने सोच-समझ कर फ़ैसला लिया था कि उत्तर प्रदेश के पार्टी संगठन को ब्राह्मण-राजपूत-बनिया जकड़ से बाहर निकलना होगा। इसके लिए एक निर्णायक कदम यह उठाया गया कि पार्टी के ज़िला अध्यक्षों की नियुक्ति के लिए मतदान की प्रक्रिया ख़त्म कर दी गई, और ज़ोर आम सहमति पर दिया गया, ताकि ज़िला अध्यक्ष के पद पर कब्ज़ा करने वाली ऊँची जातियों की नेटवर्किंग बेअसर की जा सके।
क्या आज भाजपा अपनी इस रणनीति के ज़रिए एक बार फिर 2015 से भी बड़ी हिंदू एकता बना सकती है? उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझने वाला कोई भी प्रेक्षक इस प्रश्न का उभार नकारात्मक ही देगा। कारण स्पष्ट है। पिछले डेढ़ साल चल रही योगी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार पने सामाजिक वायदे पर खरी उतरने में पूरी तरह से विफल रही है। न केवल छोटी और कमज़ोर जातियाँ उससे नाराज़ हैं (क्योंकि चुनाव जीतने के बाद उन्हें शासन-प्रशासन में कुछ नहीं मिला), बल्कि ब्राह्मण और वैश्य जैसी ऊँची जातियाँ भी योगी शासन में ठगा सा महसूस कर रही हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री के रूप में योगी मूलत: ठाकुर अजय सिंह बिष्ट होने की अपनी राजपूत पहचान से ऊपर नहीं उठ पाए हैं।
हाल ही में ऊँची जातियों को मिले 10 फ़ीसदी आरक्षण के कारण हो सकता है कि भाजपा का पारम्परिक द्विज वोट बैंक एक बार फिर पुरानी नाराजगी भूल कर ताज़ी मानसिक उछाल का परिचय दे दे। इस तरह भाजपा गठजोड़ के मुकाबले ऊँची जातियों का ध्रुवीकरण अवश्य कर सकती है।
लेकिन, उसके साथ हाल ही में जुड़ी निचली और कमज़ोर जातियों के पास उसका साथ देते रहने की ऐसी कोई वज़ह नहीं है। वे तो यह देख रही हैं कि जो पार्टी 'अपर कास्ट' के ठप्पे से छुटकारा पाती दिख रही थी, वह व्यावहारिक ज़मीन पर एक बार फिर अपने पुराने संस्करण में जा चुकी है
छोटी पार्टियों को पटाने की कोशिश
मायावती और अखिलेश की जुगलबंदी में कांग्रेस की जगह न दिखने से क्या भाजपा को कुछ लाभ होगा? यह गठबंधन अभी तक राष्ट्रीय लोक दल को भी पूरी तरह से अपने पक्ष में नहीं कर पाया है। दरअसल, उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के पास सीटों का पूल का़फी बड़ा-बड़ा (38-38 सीटें) है। ये दोनों पार्टियाँ स्थानीय आवश्यकताओं के मुताबिक़ दो-तीन सीटें अपने खाते से निकाल कर समायोजनकारी लेन-देन कर सकती हैं। कांग्रेस के साथ स्थानीय स्तर पर इस तरह का तालमेल होना लाज़िमी है, और सोनिया और राहुल के लिए छोड़ी गई सीटों में इसकी बानगी दिख सकती है।अब तो भाजपा को यह देखना है कि कहीं ओम प्रकाश राजभर ऐन मौके पर उसका साथ न छोड़ दें। उन्हीं के नेतृत्व में उसने गैर-जाटव दलितों को अपने साथ जोड़ा था। राजभर साल भर से बार-बार भाजपा सरकार के सामने चुनौती फेंक रहे हैं। गठजोड़ ने राजभर को भी दो सीटें देने का संदेश दे दिया है। अगर राजभर के पीले गमछे ने भगवा नेतृत्व से पल्ला झाड़ा तो उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतने के लिए भाजपा को एक तीसरा ही अवतार लेना होगा।