कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है। वक़्त बदल जाता है। पात्र बदल जाते हैं। घटनाएं वहीं रहती हैं। भारतीय राजनीति का चक्र भी घूमते-घूमते 2004 के लोकसभा चुनाव जैसा परिदृश्य फिर से दिखा रहा है। तब बीजेपी के दिग्गज नेता अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। उन्हें सत्ता से बाहर करने के लिए तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति की शुरुआत की थी। तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि सिर्फ़ पाँच साल के राजनीतिक अनुभव वाली सोनिया पचास साल के राजनीतिक अनुभव वाले वाजपेयी को सत्ता से उखाड़ फेकेंगी। लेकिन ऐसा हुआ और दुनिया ने देखा कि सोनिया गाँधी ने ऐसे-ऐसे नेताओं को साथ लेकर गठबंधन बनाया जो कभी विदेशी मूल के मुद्दे पर उनके ख़िलाफ़ थे।
सोनिया की तरह ही है चुनौती
आज कांग्रेस की कमान राहुल गाँधी के हाथों में है। उनकी अगुआई में कांग्रेस पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ने जा रही है। 2014 में सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस की अगुआई वाला यूपीए भी तितर-बितर हो चुका है। राहुल गाँधी के सामने नरेंद्र मोदी जैसे शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी को सत्ता से उखाड़ने की चुनौती है, जो 13 साल तक लगातार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और उसके बाद प्रधानमंत्री के तौर पर पाँच साल का अपना पहला कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं। यानी राहुल के मुक़ाबले मोदी के पास लम्बा अनुभव है, उनकी लोकप्रियता पहले से कुछ छीजी तो है, लेकिन अब भी वह ख़ासे लोकप्रिय माने जाते हैं, 'भक्तों' की एक बड़ी सेना उनके पास है, ऐसे में राहुल के सामने चुनौती काफ़ी कठिन है। लेकिन अगर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी अपनी माँ सोनिया के नक़्शे क़दम पर चलते हैं तो न शायद सिर्फ़ चुनाव से पहले एक मज़बूत गठबंधन बना सकते हैं बल्कि मोदी के सामने कड़ी चुनौती भी पेश कर सकते हैं। यहां नज़र डालेंगे कि 2004 में कैसे सोनिया गाँधी ने कांग्रेस को 8 साल बाद दुबारा सत्ता में लाकर खड़ा कर दिया था। क्या राहुल वह कहानी दोहरा पायेंगे?
'एकला चलो रे' की नीति छोड़ गठबंधन की राह पकड़ी
2004 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस केंद्र में 'एकला चलो रे' की नीति पर चल रही थी. 1997 में पचमढ़ी में हुए कांग्रेस के चिंतन शिविर में पार्टी ने अपने दम पर देश भर में ख़ुद को फिर से ज़िंदा करने का संकल्प लिया था। सिर्फ चार राज्यों तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और बिहार के विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों के साथ सम्मानजनक समझौते की बात कही गई थी।
1998 और 1999 के लगातार दो लोकसभा चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन की जीत ने कांग्रेस को भी गठबंधन की राजनीति करने पर मजबूर किया।
कांग्रेस को इस बात का एहसास हो गया था कि मौजूदा राजनीतिक हालात में वह अपने बूते सत्ता में नहीं आ सकती, लिहाज़ा उसे भी गठबंधन की राजनीति करनी चाहिए। इसके लिए जुलाई 2003 में शिमला में चिंतन शिविर बुलाया गया। उसी में कांग्रेस ने खुद को गठबंधन की राजनीति के लिए तैयार किया।
पासवान ने दी थी गठबंधन की सलाह
कुछ लोगों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि सबसे पहले रामविलास पासवान ने सोनिया गांधी को गठबंधन बनाने की सलाह दी थी। पासवान ने 2002 में गुजरात में हुई हिंसा के विरोध में वाजपेयी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। उसके बाद पासवान ने जेडीयू और एनडीए छोड़ कर लोक जनशक्ति पार्टी बनाई थी। उन दिनों पासवान संसद के सेंट्रल हॉल में सोनिया गाँधी के साथ कई बार बैठक करके यह समझाने में कामयाब रहे कि अगर बीजेपी को सत्ता से बाहर करना है तो कांग्रेस को सेकुलर डेमोक्रेटिक एलायंस बनाना चाहिए।
पासवान की सलाह काम कर गई। कांग्रेस ने 'एकला चलो रे' की नीति छोड़ी और गठबंधन की राह पकड़ी। वह 31 दिसंबर 2003 की तारीख़ थी, जब सोनिया अपने घर 10 जनपथ से निकल कर पैदल ही अपने पड़ोसी रामविलास पासवान के घर 12 जनपथ पहुंच गई थीं। इस तरह पासवान कांग्रेस के गठबंधन का हिस्सा बने। लालू पहले ही कांग्रेस के साथ थे। तब आरजेडी, एलजेपी और कांग्रेस की तिकड़ी ने बिहार की लगभग सारी सीटे कब्जा ली थीं।
मुलायम के विरोध की धार कुंद करना
लेकिन सोनिया गाँधी का मास्टर स्ट्रोक था मुलायम सिंह यादव और शरद पवार को साधना, जिन्होंने 1999 में विदेशी मूल के मुद्दे पर उनका भारी विरोध किया था और एक वोट से वाजपेयी सरकार के गिर जाने के बाद सरकार बनाने की कांग्रेस की कोशिशों पर पानी फेर दिया था। लेकिन जब उत्तर प्रदेश में 2003 में बीएसपी-बीजेपी झगड़े में मायावती सरकार गिर जाने के बाद कांग्रेस ने समर्थन देकर मुलायम सिंह की सरकार बनवा दी थी।
सोनिया गाँधी के इस क़दम से मुलायम सिंह ने उनके विदेशी मूल का मुद्दा छोड़ दिया था और उत्तर प्रदेश विधानसभा के अंदर सोनिया की खुले दिल से तारीफ़ की थी। यह अलग बात है कि 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ उनका चुनावी गठबंधन नहीं हो पाया था, हालाँकि उनकी सरकार तब कांग्रेस के समर्थन से ही चल रही थी।
शरद पवार को साधना
सोनिया का अगला लक्ष्य था शरद पवार को साधना। शरद पवार ने सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर 1999 में कांग्रेस पार्टी छोड़कर तारिक़ अनवर और पी ए संगमा के साथ मिलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई थी। हालांकि उसी साल वह महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके सरकार बना चुके थे, लेकिन केंद्र में सोनिया गाँधी की मुख़ालफ़त का सिलसिला जारी था। जनवरी 2014 में अचानक एक दिन सोनिया गांधी ने शरद पवार को फ़ोन किया और उनसे गठबंधन के लिए बातचीत करने का समय मांगा। एक फ़ोन कॉल से शरद पवार पिघल गए और कांग्रेस के साथ गठबंधन में शामिल हो गए।
यह सोनिया गांधी की बड़ी राजनीतिक सफलता थी कि विदेशी मूल पर उनका विरोध करने वाले शरद पवार 2004 में सोनिया गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के सबसे बड़े समर्थक थे! आज कांग्रेस के कई सहयोगी दल राहुल गांधी को अपना नेता मानने को तैयार नहीं हैं। राहुल गांधी चाहें तो सोनिया की तरकीब आज़मा सकते हैं।
मायावती के घर दस्तक
2004 में सोनिया गांधी पर अटल बिहारी वाजपेयी को सत्ता से बेदख़ल करने का जुनून इस हद तक सवार था कि वह राजनीतिक रूप से अपने धुर विरोधियों के घर जाने से कभी नहीं हिचकिचाईं। इस कड़ी में अगला नाम मायावती का है।हालाँकि 1999 में सोनिया गांधी की पहल पर ही मायावती बीजेपी सरकार को गिराने के लिए कांग्रेस के साथ आई थीं, लेकिन उसके बाद दोनों के बीच कोई संवाद नहीं बन पाया था।
संवादहीनता को तोड़ने के लिए सोनिया गाँधी ने 15 जनवरी को मायावती के घर अचानक जाकर जन्मदिन की बधाई दी और इसके कुछ ही दिन बाद वह गठबंधन के बारे में बात करने के लिए अचानक मायावती के घर पहुंच गईं। कई घंटे बात चलने के बावजूद मायावती कांग्रेस के साथ गठबंधन पर राजी नहीं हुईं, लेकिन सोनिया गाँधी ने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की थी।
अगर देखा जाए तो आज राहुल गाँधी के सामने गठबंधन बनाने की इतनी बड़ी चुनौती नहीं है, जितनी बड़ी सोनिया गांधी के साथ थी। ज़्यादातर विपक्षी दलों की शिकायत यह है कि राहुल गांधी अपनी तरफ से उनसे संपर्क करने की कोशिश नहीं करते।
2014 में रामविलास पासवान और चिराग पासवान दोनों ने कई बार सोनिया गाँधी से मुलाक़ात करके दोबारा से यूपीए में आने इच्छा जताई थी, लेकिन सोनिया ने राहुल गांधी पर फैसला छोड़ दिया था और राहुल ने 6 महीने तक इन दोनों को मिलने का समय नहीं दिया था। इसी से नाराज़ हो कर वह बीजेपी की तरफ चले गए थे।
लेकिन राहुल गाँधी अब शायद राजनीति को बेहतर समझने लगे हैं। इसीलिए हाल में उन्होंने चेन्नई जाकर डीएमके नेता एम. करुणानिधि की मूर्ति के अनावरण के कार्यक्रम में हिस्सा लिया। नतीजा यह हुआ कि उसी मंच से करुणानिधि के बेटे स्टालिन ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष का साझा उम्मीदवार बनाने का प्रस्ताव भी कर दिया। कर्णाटक में भी राहुल गाँधी कुमारस्वामी की सरकार बनवा कर राजनीतिक चतुराई दिखा चुके हैं। लगता है कि उन्होंने अपनी माँ से कुछ राजनीतिक सबक़ सीखा है। लेकिन क्या वह इस राह पर और आगे बढ़ेंगे?