हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव देश के उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और मध्य क्षेत्र के पाँच राज्यों में संपन्न हुए। देश का राजनीतिक मूड नापने का एक काफी बड़ा सैंपल रहा यह चुनाव। चुनाव नतीजों ने कुछ चीज़ें स्पष्ट कीं। बीजेपी का परंपरागत वोट बैंक सुरक्षित है, पर 2014 के कई बीजेपी वोटरों ने बीजेपी के ख़िलाफ़ सबसे मज़बूत उपलब्ध विकल्प को चुना, चाहे वह कांग्रेस हो या क्षेत्रीय दल।
एक स्थापित सत्य है कि ध्रुवीकरण किए बग़ैर किसी भी राजनीतिक दल का मूल वोट बैंक नहीं बनता। दूसरा सत्य यह भी है कि केवल ध्रुवीकरण की राजनीति सर्वमान्य लोकप्रिय भी नहीं हो पाती, क्योंकि ध्रुवीकरण की नीति के चलते किसी दल का मूल वोट बैंक तो निर्मित हो जाता है, पर अपने वोट बैंक को साथ रखने की तुष्टीकरण की आवश्यकता के चलते समाज के कई अन्य तबकों में वह दल अलोकप्रिय भी हो जाता है।
ऐसे दलों का मूल तर्क अक्सर यह होता है कि वह एक वर्ग-विशेष को उसके अपने प्रतिनिधि के माध्यम से सत्ता में भागीदारी दिला सकता है। इसीलिए अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियाँ एक ख़ास तबक़े में अत्यंत प्रभावशाली भी हैं, पर क्षेत्र-विशेष तक सीमित भी।
राष्ट्रीय पार्टियाँ परंपरागत वोट बैंक के घनीभूत होने के बाद अपने जनाधार को चौड़ा करने के लिए संकीर्ण तुष्टीकरण के ऊपर उठ कर कुछ व्यापक विषयों को भी प्रचारित करती हैं, ताकि बड़े भूभाग के अधिक लोग उसकी तरफ़ आकर्षित हों। अर्थात मूल वोट बैंक के साथ नया वोट बैंक जुड़े।
कांग्रेस ने 80 के दशक के उत्तरार्ध में शाहबानो और अयोध्या तालाखोल प्रकरण द्वारा अपने परंपरागत मुसलिम-दलित वोट बैंक में हिंदू वोट जोड़ने का प्रयत्न किया। बीजेपी ने 2014 में अपने परंपरागत शहरी हिंदू वोट बैंक में विकास के नारे के माध्यम से ग्रामीण, श्रमजीवी, युवाओं का वोट मिलाने का सफल प्रयास किया।
बीजेपी की दिक़्क़त कहाँ है?
परंतु 2014 से 2018 तक बीजेपी अपने इस नवीन वोटर को उसके विकास के लिए दिए गए वोट के अनुरूप डिलिवरी नहीं दे पाई। घोषणानुसार अच्छे दिनों में न तो किसान की कमाई बढ़ी, न श्रमिक की आय, न युवा को रोज़गार मिला। तो यही 2014 का नवीन वोटर वर्ग मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना, उत्तर-पूर्व में बीजेपी से रूठ कर उसके समक्ष सबसे मज़बूत प्रतिद्वंद्वी को वोट दे बैठा। ऊपर से नोटबंदी, जीएसटी आदि की मार भी भारी पड़ी।
बीजेपी एक और समस्या से भी जूझ रही है। राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता, पाकिस्तान आदि विषयों में मोदी सरकार द्वारा कोई ठोस बढ़त नहीं प्राप्त कर पाना। ये विषय उसके परंपरागत वोट बैंक की परंपरागत माँगें रही हैं।
हालाँकि गाय, सांस्कृतिक श्रेष्ठता, आतंकवाद आदि विषयों के ज़रिए बीजेपी ने अपने वोट बैंक को कुछ देने का प्रयास तो किया, पर मंदिर, 370 आदि उसके मार्मिक विषयों में कुछ ठोस न कर पाने के चलते हालिया चुनावों में कट्टर हिंदू वोट बैंक भी थोड़ा-बहुत खिसकता दिख रहा है।
कहाँ चूक रही है बीजेपी?
बीजेपी ने एक औसत उत्तर भारतीय नागरिक की मानसिकता का अनूठा आकलन किया है। भक्तिकाल के बाद से भारतीय संस्कृति प्रतीक प्रधान हो गई। उससे पूर्व में वह दर्शन प्रधान थी। प्रतीक प्रधान समाज में भौतिक प्रतीकों से लोगों का लगाव ठीक उसी तरह बढ़ जाता है, जैसे बच्चों का खिलौने से। दक्षिणपंथी संगठनों ने जनमानस की इसी भावना का लाभ उठाया और प्राचीन प्रतीकों को ढेर सारे लोगों के मन में स्थापित कर दिया।
हालाँकि सभी यह जानते हैं कि मंदिर के बनने या न बनने का भ्रष्टाचार, अपराध, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य या मच्छरों तक के बढ़ने-घटने से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। मंदिर एक विशुद्ध भावनात्मक प्रतीक है, यह सब जानते हैं, उसके बनने, न बनने से दैनिक जीवन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, यह भी सब मानते हैं।
कारण केवल इतना-सा है कि वर्तमान भारत की आबादी ही इतनी अधिक है कि राम के प्रतीक मानने के सरल-से सिद्धांत को मानने वालों की संख्या भी काफी बड़ी है और चुनावी राजनीति हमेशा ही आँकड़ों के जमावड़े का खेल रहा है जिसमें बाज़ी वह मार ले जाता है जो आँकड़ों के समीकरण को अपने पक्ष में करने की क्षमता रखता है।
- यहाँ पर यह ऐतिहासिक तथ्य भी जानना ज़रूरी है कि भारतीय सभ्यता में जाति प्रथा के आने के बाद से सवर्ण-अवर्ण भेदभाव शुरू हुआ जो आज तक अवर्णों के व्यापक सार्वजनिक अपमान के रूप में प्रकट होता आ रहा है। इस ज़िल्लत के चलते भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा लंबे समय तक संसाधनों और अवसरों से वंचित रहा।
इस परिस्थिति में हिंदू धर्म के अंदर ही एक प्रतीकात्मक मंदिर मात्र के निर्माण के प्रति अनुमोदन का स्तर भी भिन्न-भिन्न है। हालाँकि भगवान राम के जीवन के प्रति आदर व्यापक है, पर जीवंत राम को जड़ प्रतीक के रूप में स्थापित करने की राजनीति को न तो अधिकांश सर्वहारा अवर्णों का समर्थन प्राप्त है, न ही हिंदू धर्म के दार्शनिक पहलू को मानने वाली जनता का।
कहाँ गए अच्छे दिन के वादे?
कुल मिला कर वर्तमान स्थिति यही दर्शाती है कि भले बीजेपी 2014 का चुनाव अच्छे दिन, काला धन वापसी, भ्रष्टाचार-मुक्त भारत, मिनिमम गवर्नेंस आदि के नारों पर जीती हो, मगर 2019 आते-आते वह उपरोक्त पदार्थ-प्रधान, नाप-योग्य, प्रमेय मानदंडों पर गुणात्मक सुधार लाने में असफल रही। इसीलिए बीजेपी अब पुनः अप्रमेय, भावनात्मक विषय पर पुनः विमर्श को ला कर अपना मूल वोट बैंक बचाने-बढ़ाने की कोशिश कर रही है।
- भाजपा के इस प्रयास की चुनावी सफलता विफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि विपन्न अवर्ण एवं दार्शनिक हिंदू आपस में किस हद तक तालमेल बिठाकर लामबंद होते हैं, क्योंकि श्रेष्ठवाद तथा प्रतीकवाद से इन दोनों ही समूहों का छत्तीस का आँकड़ा बैठता है। आज तक गाँधी के अलावा हार्दिक स्तर पर कभी कोई दलित-दार्शनिक गठजोड़ को सफलतापूर्वक लामबंद नहीं कर पाया है।
बीजेपी यह अच्छी तरह जानती है कि उसकी प्रतीकात्मक विचारधारा को वर्तमान में कोई बौद्धिक चुनौती नहीं दे पा रहा रहा है। कोई यह नहीं पूछ रहा है कि राम मंदिर का आग्रह करने वाली बीजेपी यह क्यों नहीं बताती कि भगवान राम स्वयं क्यों ज्ञान की आराधना करते थे; कि जब राम व्यथित हुए तो गुरु वशिष्ठ से ज्ञान चर्चा कर समाधान खोजा, जो आज भी योगवशिष्ठ ग्रंथ के रूप में हिंदू धर्म के सर्वाधिक प्रमाणित ग्रंथों में गिना जाता है।
कोई बीजेपी को चुनौती क्यों नहीं देता कि साक्षात रामचंद्र जी द्वारा स्थापित रामेश्वरम शिवलिंग को बीजेपी राष्ट्रीय सांस्कृतिक धरोहर क्यों नहीं घोषित करती? यह भी कि संसदीय बहुमत होते हुए भी उसने आज तक अयोध्या में संसद अनुमोदित संवैधानिक मंदिर क्यों नहीं बनाया?
बीजेपी को कौन दे सकता है चुनौती?
बीजेपी के इस भावनात्मक बाइनरी को केवल एक गठजोड़ चुनौती दे सकता है और वह है हिंदू धर्म के दार्शनिक और हिंदू धर्म के मारजिनलाइज्ड की जोड़ी। क्योंकि इस जोड़ी के पास हिंदू धर्म के प्रामाणिक गतवैभव की विश्वस्त धरोहर भी है और चुनावी आँकड़ों में भारी पड़नेवाला संख्याबल भी।
राजनीतिक दृष्टि से देखें तो भारत में आज तीन प्रमुख धाराएँ बह रही हैं। पहली, भाजपानीत प्रतीकात्मक हिंदुत्व की, दूसरी उस श्रेष्ठवादी हिंदुत्व से हाशिए पर धकिया दिए दलितों की, और तीसरी दार्शनिक हिंदुत्व मानने वालों की। पहली प्रसिद्धि में अव्वल है, दूसरी संख्या में सर्वाधिक है, तो तीसरी सबसे प्रामाणिक है। संख्या की कमी तीसरे की समस्या है, संसाधन-नेतृत्व-स्पष्टता की कमी दूसरे को सालती है, इसीलिए पहली लोकप्रिय होती जा रही है।
- लब्बोलुआब यह है कि 2019 के चुनावों का विमर्श किसान-नौजवान के वोट को हासिल करने की दृष्टि से होगा क्योंकि यही वर्ग वर्तमान में किसी ख़ेमे का स्थापित वोट बैंक नहीं है। समीकरण में अधिकांश कट्टर हिंदू बीजेपी के पक्ष में खड़े दिखेंगे, तो अधिकांश उदार हिंदू, अल्पसंख्यक, दलित आदि अपने क्षेत्र में बीजेपी के सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी के पक्ष में। बीजेपी लामबंदी करेगी धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर एवं विपक्ष करेगा जातीय आधार पर।
चुनावी दंगल की गूंज से भरे आनेवाले छह महीने स्पष्ट कर देंगे कि भारत के अगले आम चुनावों का संख्यात्मक समीकरण क्या होगा। यदि दलित-दार्शनिक एक हो गए तो वह बीजेपी की प्रतीकात्मक राजनीति पर भारी पड़ेंगे, और यदि यह गठजोड़ नहीं बन सका तो बीजेपी की वर्तमान प्रसिद्धि उसे संख्या बढ़त दे जाएगी। जो भी हो, 2019 के बाद का भारत एक अलग ही दिशा में जाएगा, वह प्राचीनकाल की ओर होगा या प्रगतिशीलता की ओर, यह लोकसभा चुनाव के नतीजे तय करेंगे।