अब ना होगा कोई और नामवर

02:11 pm Feb 20, 2019 | इक़बाल रिज़वी - सत्य हिन्दी

19 फ़रवरी, 2019। यह तारीख़ हिंदी साहित्य की अपूरणीय क्षति के रूप में याद की जाती रहेगी। क्योंकि इसी तारीख़ को हिंदी के विद्वान नामवर सिंह ने दिल्ली के एम्स में 93 साल की उम्र में अंतिम साँस ली। वह पिछले कुछ समय से गंभीर रूप से बीमार चल रहे थे।

नामवर सिंह का जन्म बनारस के जीयनपुर गाँव में हुआ था। हिंदी में आलोचना विधा को नयी पहचान देने वाले नामवर सिंह ने अपने लेखन की शुरुआत कविता से की और 1941 में उनकी पहली कविता ‘क्षत्रियमित्र’ पत्रिका में छपी। हिंदी साहित्य में एमए व पीएचडी करने के बाद उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाना शुरू किया।

साहित्य जगत : हिन्दी के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह नहीं रहे

मार्क्सवाद से साहित्य तक का सफ़र

नामवर सिंह किशोर जीवन से ही मार्क्सवाद से जुड़ गए थे। पार्टी के निर्देश पर 1959 में वह चंदौली से कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर लोकसभा लड़े लेकिन हार गए। इसके बाद उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़ दी और कुछ दिनों तक सागर विश्वविद्यालय में पढ़ाया। 1960 में वह वाराणसी लौट आए। कुछ समय बाद उन्हें जनयुग साप्ताहिक और फिर आलोचना पत्रिका के संपादन का ज़िम्मा मिला। इस बीच हिंदी साहित्य की आलोचना और शोध को लेकर लिखे गए लेख ख़ासे चर्चित होने लगे। 1971 में उन्हें कविता के नए प्रतिमान पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।

  • 1974 में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए जहाँ उन्होंने भारतीय भाषा केंद्र की स्थापना की। लगातार गहन अध्ययन करने वाले नामवर सिंह एक प्रखर प्रवक्ता भी थे। उनके लेखन को लेकर जितनी बहसें शुरू हुईं उतनी ही उनके भाषणों को लेकर भी होती रहीं। उनके वक्तव्य अक्सर वाद-विवाद और चर्चा को जन्म देते रहते थे।
उदाहरण के लिये राजेंद्र यादव के संपादन में छपने वाली पत्रिका हंस में उन्होंने उर्दू–हिंदी को लेकर एक लेख लिखा था- बासी भात में ख़ुदा का साझा। क़रीब-क़रीब साल भर तक उनके इस लेख पर विवाद और चर्चा होती रही। 

नामवर सिंह ने आलोचना पत्रिका में देवी प्रसाद मिश्रा की कविता “हाँ, वे मुसलमान थे” को अपनी टिप्पणी के साथ छापा और साहित्य जगत में हंगामा खड़ा हो गया।

आलोचना को नया मुकाम दिया

नामवर सिंह हिंदी साहित्य जगत में आलोचना को नया मुकाम देने के लिये याद किये जाते रहेंगे। बकलम ख़ुद, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, छायावाद, पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, नई कहानी, कविता के नए प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। अपनी कृतियों के बारे में उन्होंने कहा था कि उनकी ज़्यादातर पुस्तकें अपने समय की बहसों में भागीदार होकर लिखी गयी हैं।

अपूर्वानंद ने लिखा था : नामवर सिंह 90 के हो गए हैं और थोड़े से कुछ ज़्यादा अकेले भी

जब उनके व्याख्यान लेखनी से आगे निकल गये

1985 के बाद उन्होंने साहित्य के अलावा फासीवाद, भूमंडलीकरण, साम्प्रदायिकता, बहुलतावाद, भारतीयता अस्मिता, बीसवीं सदी का मूल्यांकन, दुनिया की बहुध्रुवीयता, उत्तर आधुनिकता और मार्क्सवाद जैसे मुद्दों को अपना विषय बनाना शुरू किया। तब उनके प्रवक्ता होने की काबिलियत उनकी लेखनी पर भारी पड़ने लगी। हिन्दी साहित्य को जनप्रिय बनाने में उनके व्याख्यानों का बड़ा योगदान रहा है। हाँ, इससे यह ज़रूर हुआ कि उनका लेखन कम हो गया।

पीढ़ियों के लिये प्रेरणा बने 

नामवर सिंह की एक बड़ी विशेषता रही उनका लगातार अध्ययन करना। वह अपने समय, समाज और साहित्य से अपडेट रहने के लिये लगातार पढ़ते रहे। जो किसी के लिये भी ईर्ष्या का कारण हो सकता है। यही वजह रही कि वह लंबी उम्र पाने के बावजूद बीते दौर के व्यक्ति नहीं बने। वह कई पीढ़ियों के लिये प्रेरणा बने रहे।