इब्राहीम अल्काज़ी (1925- 2020) भारतीय रंगमंच के अत्यंत चर्चित और ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (आगे से रानावि) के निदेशक के रूप में उनकी ख्याति, प्रतिष्ठा और योगदान से देश का कोई रंगप्रेमी शायद ही अपरिचित होगा। वे एक एक लीजेंड हैं। आधुनिक भारतीय रंगमंच के निर्माताओं में वे अग्रगण्य हैं। रंगमंच- प्रशिक्षण के क्षेत्र में उनका स्थान एक ऐसे पितामह की तरह है जिनका ज़िक्र उन नाट्य- संस्थानों, नाट्य - कार्यशालाओं और रंग मंडलियों के रिहर्सलों में भी होता है जिनके संचालकों ने कभी उनको देखा भी नहीं। उनके क़िस्से आज भी रानावि के गलियारों ने सुनाई देते हैं। नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, राज बब्बर, ओम पुरी, पंकज कपूर, मनोहर सिंह, सुरेखा सीकरी, उत्तरा बावकर, ओम शिवपुरी, बवकारंत, मोहन महर्षि, राम गोपाल बजाज, भानु भारती, प्रसन्ना, रंजीत कपूर, एम के रैना, बंसी कौल, देवेंद्र राज अंकुर जैसे कई अभिनेता और निर्देशक उनके शिष्यों में रहे। `मैं अल्काज़ी का शिष्य रहा हूं’- जैसे वाक्य प्रमाण- पत्र की तरह आज भी कई वरिष्ठ रंगकर्मी बोलते हैं। अल्काज़ी भारतीय रंगमंच में एक ऐसे वटवृक्ष की तरह रहे और हैं जिसकी शाखाएं भी बड़े वृक्ष के रूप में तब्दील हो गई हैं।
इन्हीं अल्काज़ी की एक जीवनी – `इब्राहीम अल्काज़ी : होल्डिंग टाइम कैप्टिव’ आई है जिसे लिखा है उनकी पुत्री और शिष्या अमाल अल्लाना ने जो देश की एक वरिष्ठ व सम्मानित रंग- निर्देशक हैं। पेंग्विन- विंटाज से प्रकाशित साढ़े छह सौ पृष्ठों की ये जीवनी सिर्फ एक व्यक्ति की कथा नहीं है बल्कि एक इतिहास भी है और एक लंबा नाटकीय आख्यान भी। एक ऐसा इतिहास जिसके माध्यम से आप आधुनिक भारतीय रंगमंच के कई भूले- बिसरे मुद्दों के बारे में भी जानते हैं और साथ ही आधुनिक यूरोपीय रंगमंच की कुछ बहसों से भी परिचित होते हैं। और ये एक ऐसा नाटकीय आख्यान भी है जिसमें आप फ्रांसिस न्यूटन सूजा, मकबूल फिदा हुसेन जैसे आधुनिक भारतीय कला के दिग्गजों से भी मिलते हैं व मुल्कराज आनंद और निसिम एजेकिल जैसे साहित्यकारों से भी। आप उन मसलों से भी टकराते हैं जो नाटक की दुनिया में उठती रही हैं या उसे आंदोलित करती रही हैं।
जैसा कि पहले कहा गया, जीवनी बहुत लंबी है और हर लेख की सीमा भी होती है, इसलिए यहां सिर्फ दो प्रसंगों का उल्लेख किया जा रहा है, जो इस पुस्तक का आकलन करने में अपर्याप्त तो हैं फिर भी बहुत कुछ बताते हैं।
अल्काज़ी एक ऐसे अरब मुस्लिम परिवार में जन्मे थे जो व्यापार के सिलसिले में भारत आया और फिर पूना में बस गया। अपनी कॉलेज की पढ़ाई के लिए जब वे तब के बंबई पहुंचे तो वहां उनका परिचय सुल्तान (ब़ॉबी) पदमसी से और उनके परिवार से हुआ। बॉबी पदमसी ही अल्काज़ी को रंगमंच की दुनिया में लाए। ब़ॉबी इंग्लैंड से पढ़कर आए एक ऐसे युवक थे जिनके रग रग में रंगमंच थिरकता रहता था। उन्होंने अपनी मां की स्वीकृति से अपने घर पर ही एक रंगस्थल शुरू किया था जहां नाटकों के रिहर्सल होते थे। दुर्भाग्य से 24 साल की उम्र में बॉबी ने आत्महत्या कर ली पर इस कम उम्र में ही उन्होंने बंबंई में उस आधुनिक रंगमंच की आधारभूमि रच दी जो पश्चिमी रंगमंच से प्रभावित तो थी पर एक बिंदु पर भारतीय रंगमंच और पश्चिमी रंगमंच को जोड़नेवाली भी थी। उन्होंने अपने निर्देशन से शेक्सपीयर व आस्कर वाइल्ड जैसे नाटककारों की संवेदनाओं से भारतीय रंगकर्मियों और नाट्य- दर्शकों को बावस्ता कराया। उनके निधन के बाद अल्काज़ी ने उनकी बहन रोशन पदमसी (अल्काज़ी) से विवाह किया जो आगे चलकर एक बेहतरीन कॉस्ट्यूम डिजाइनर बनीं। ब़ॉबी के छोटे भाई अलिक पदमसी थे जो एक चर्चित अभिनेता और विज्ञापन फिल्मकार के रूप में सराहे गए।
कई अन्य कला विधाओं की तरह रंगमंच के क्षेत्र में देशी बनाम विदेशी का विवाद चलता रहा है। सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों में भी। इस पुस्तक को पढ़ने के दौरान ये अंतर्दृष्टि मिलती है कि इंग्लैंड का अपना रंगमंच भी बीसवीं सदी के आरंभिक दौर में निस्तेज हो रहा था। लेकिन जब अल्काज़ी वहां पढ़ने के लिए गए तो बदलाव शुरू हो गए थे। शुरू में दो संस्थानों में कुछ दिनों तक अध्ययन करने के बाद अल्काज़ी ने `राडा’ (ऱॉयल एकेडमी ऑफ द ड्रामेटिक आर्ट्स) में दाखिला लिया। तब ब्रितानी रंगमंच हल्की फुल्की कॉमेडी और मेलोड्रामा के दायरे से निकलकर जीवन को समझने और व्याख्यायित करने का माध्यम बन रहा था। ब्रितानी रंगमंच को ठहराव से उबारने में बड़ी भूमिका फ्रांसीसी और रूसी अवांगार्द निर्देशकों- प्रशिक्षकों की थी जो उस दौरान लंदन में रह रहे थे। एक तरह से अवांगार्द यूरोपीय रंगदृष्टि का तब के इंग्लैंड में आयात हुआ। इन रंगकर्मियों में एक थे फ्रांसीसी मूल के माइकल सेंट–डेनिस, जो लंदन में विक थिएटर स्कूल से भी जुड़े थे। सेंट- डेनिस की निर्देशन शैली से लॉरेंस ओलिवर जैसे कुछ दिग्गज ब्रिटिश अभिनेता प्रभावित हुए और उनकी और उनकी सलाह पर ही इस फ्रांसीसी रंगकर्मी को लंदन में रंगकर्म के लिए बुलाया गया था। जिस दूसरे व्यक्ति ने तब के ब्रितानी (और आगे चलकर अमेरिकी) रंगमंच को काफी हद तक बदला वे थे रूसी निर्देशक थियोडोर कोमिसारजेवस्की।
कोमिसारजेवस्की रूसी थे और प्रख्यात निर्देशकों - कोंतास्तिन स्तानिस्लावस्की तथा मेयरहोल्ड जैसे दिग्गज रूसी निर्देशकों के साथ काम कर चुके थे। पर सोवियत क्रांति के बाद वे अपने देश को छोड़ने के लिए बाध्य हुए। वे पहले इंग्लैंड गए और फिर वहां से अमेरिका। जब उन्होंने लंदन में एंटन चेखव के नाटक निर्देशित किए तो वहां के अभिनेताओं की अभिनय शैली और दर्शकों की अभिरुचि का तो विस्तार हुआ ही, साथ ही चेखव के नाटकों के प्रति रंगकर्मियों व रंगप्रेमियों की दृष्टि बदली। ब्रितानी रंगमंच पर रूडोल्फ लाबान (चेक- हंगारियन) की तकनीक का भी असर पड़ा जिन्होंने रंगमंच में गति संचालन- (मूवमेंट) की धारणाओं में नई अभिव्यक्तियां लाई थीं।
वैसे लाबान तकनीक का कई कलाविधाओं पर प्रभाव पड़ा किंतु उसने कई देशों के रंगमंच के व्याकरण को इतना बदला कि आज भी वो रंग-प्रशिक्षण का संदर्भ-स्रोत है।
ऐसे और भी विवरण इस पुस्तक में हैं। लेकिन इनका महत्त्व सिर्फ विवरण के रूप में नहीं हैं। बड़ा मुद्दा ये है कि अल्काज़ी ने ब्रिटेन में अध्ययन के दौरान कैसी दृष्टि पाई और उसका आज के भारतीय रंगमंच के लिए भी क्या महत्त्व है? कई निष्कर्ष हैं पर फिलहाल एक तो निकलता ही है कि किसी देश का रंगमंच सिर्फ उसकी ही परंपराओं से विकसित नहीं होता। उस पर कई देशों और बाहरी संस्कृतियों का प्रभाव होता है। जब भी कला में देशीवाद की बात होती है तो उसके अपने लाभ के साथ कुछ ख़तरे भी होते हैं। या यों कहें कि कला का कोई एक देश नहीं होता है। वो सार्वदेशिक प्रभावों से आकार पाती है। ये बात रंगमंच के अतिरिक्त पेंटिंग जैसी कलाओं के बारे में भी सही है। इस पुस्तक को पढ़ते हुए भी इसका एहसास होता है क्योंकि अल्काज़ी एक पेंटर भी थे और आधुनिक भारतीय तथा विश्व कला से बखूबी परिचित भी।
अमाल अल्लाना की इस पुस्तक की एक और बड़ी खूबी है कि ये अत्यंत रोचक है और इसमें आधुनिक भारत के राजनैतिक इतिहास के परिप्रेक्ष्य में भी आधुनिक भारतीय रंगमंच को समझा और समझाया गया है। रंगकर्मियों के लिए नहीं, भारतीय आधुनिकता को जानने के लिए भी एक जरूरी किताब है।