
ईदगाह से निकलते मुसलमान के दिल की धड़कन से अपनी धड़कन न मिलाना चाहेंगे!
ईद मुबारक!
ईद आज मनाई जा रही है। आज सभी मुसलमान नए कपड़े पहनेंगे। ईदगाह जाएँगे। एक दूसरे के गले मिलेंगे। बाज़ार में पिछले एक महीने की शाम की रौनक़ से इसका अंदाज़ मिलता था कि आज के दिन का बेसब्री से इंतज़ार किया जा रहा था।
यह संयम और पवित्रता की याद दिलानेवाला त्योहार है। मेल जोल का, मिल्लत का भी। और उससे ख़ुशी का भी। आज मीठी ईद है। लेकिन गोश्त पर पाबंदी नहीं है। आप सेवइयों की कितनी क़िस्मों से वाक़िफ़ हैं? यह इससे तय होगा कि ईद में कितने मुसलमानों के घर आप जाते हैं। ईद की ख़ुशी हर रोज़ मिलनेवाली ख़ुशी से क़तई अलग है। आख़िर कभी वक़्त था कि मुसलमान ही नहीं हिंदू भी किसी से अरसे बाद मिलने पर कहा करते थे कि आज हमारी ईद हो गई। यह दुर्लभता की भी प्रतीक है। आप तो ईद के चाँद हो गए हैं, यह शिकायत सिर्फ़ मुसलमान उससे नहीं किया करते थे जिससे मिलना चाहते तो थे लेकिन वह मुलाक़ात ईद थी। ईद और दीद में तुक मिलती है लेकिन यह वह दीद ख़ास है जो ईद के चाँद की हुआ करती है।
ईद रमज़ान के महीने की समाप्ति का दिन है। रमज़ान में महीने भर के रोज़े रखे जाते हैं। यह कड़ा उपवास है जो धार्मिक मुसलमान पाबंदी से रखते हैं और इसका ध्यान रखते हैं कि वह पानी की इच्छा भी उसे भंग न कर सके।
इस कठोर संयम के महीने के बाद आज ईद हो रही है। यह क़ुरआन के अवतरण का महीना है। मुसलमान अल्लाह या खुदा के उन पवित्र शब्दों को याद करते हैं और अपने जीवन को उनके मुताबिक़ ढालने का संकल्प लेते हैं। पूरी दुनिया में आज मुसलमान इस संकल्प को साथ दुहराते हैं।
कभी वक़्त था कि मुसलमानों की इस सामूहिकता को इज़्जत और कुछ आदर मिश्रित ईर्ष्या से भी देखा जाता था। किस हिंदीवाले को और उर्दूवाले को भी एक हिंदू लेखक प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ का यह वर्णन याद न होगा:
“सहसा ईदगाह नज़र आया। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फ़र्श है, जिस पर जाज़िम बिछा हुआ है। और रोज़ेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गई हैं, पक्के जगत के नीचे तक, जहाँ जाज़िम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की क़तार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वज़ू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गए।”
या वर्णन कोई तकल्लुफ़ नहीं है। इसमें इस्लाम और मुसलमान क़ौम के लिए एक वास्तविक आदर है। बल्कि श्रद्धा कह लीजिए। एक ईदगाह में एक साथ सैकड़ों मुसलमानों के नमाज़ पढ़ने की कल्पना प्रेमचंद को इतना रोमांचित कर देती है कि वे सैकड़ों को लाखों में बदल डालते हैं:
“कितना सुंदर संचालन है, कितनी सुंदर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ, और यही क्रम चलता रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए है।”
हिंदी में फिर हमें यह भाव और यह भाषा नहीं मिली: “कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए है।”
मुसलमानों की सामूहिकता प्रेमचंद को आशंकित नहीं करती। बल्कि उससे उन्हें विस्तार, व्यापकता और अनंतता की प्रेरणा मिलती है। वह हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देता है। मुसलमानों का भाईचारा भी उन्हें आकर्षित करता है। किसी प्रतियोगी भाव को जन्म नहीं देता। उस भाईचारे को देखकर वे आनंदित होते हैं। हिंदुओं को नहीं कहते कि इससे सावधान हो जाओ।
हिंदी में फिर ऐसा भावपूर्ण वर्णन ईद का नहीं हुआ, इसका क्या कारण हो सकता है? क्या इसलिए कि धर्मनिरपेक्षता एक विचार के रूप में तो हमारे भीतर रही लेकिन मुसलमानों की ज़िंदगी में हिंदुओं की भागीदारी कम होती गई?
प्रेमचंद के प्रिय जैनेंद्र ने लिखा था कि ठीक है कि इस्लाम का जन्म अरब में हुआ। लेकिन यह हिंदुओं या अन्य धर्मावलंबियों की ख़ुशनसीबी ही है कि मुसलमानों के पड़ोसी होने के कारण उन्हें उनकी पवित्रता का स्पर्श भी मिलता है और उसका आध्यात्मिक लाभ मिलता है।
तो ईद मुसलमानों की है। लेकिन इस ईद में क्या सिर्फ़ उन्हें मसर्रत का अहसास होना चाहिए? इस ईद भारत के हिंदुओं के लिए यह सवाल है कि क्या वे प्रेमचंद की निगाहें हासिल न करना चाहेंगे और ईदगाह से निकलते मुसलमान से गले मिलकर उसके दिल की धड़कन से अपने दिल की धड़कन न मिलाना चाहेंगे?