प्रेमचंद 140 के हुए। नहीं, यह कहना पूरी तरह सही न होगा। प्रेमचंद तो कुल जमा 110 के हुआ चाहते हैं। इनकी पैदाइश 1910 की है। उसके पहले का अवतार था नवाब राय। उनके नाम से छपा 5 कहानियों का संकलन 'सोजेवतन' गले की फाँस बन गया था। उसकी कहानियों में 'सेडिशन' की बू पाई गई थी। सरकारी मुलाजिम धनपत राय श्रीवास्तव ने अड़ने और बेजा बहादुरी दिखलाने से बेहतर समझा दब जाना। किताब की कुछ प्रतियाँ कलक्टर के सामने अग्नि देवता को समर्पित कीं।
इसे उन्होंने दिल पर बोझ न बनने दिया। अमृत राय की किताब 'कलम का सिपाही' में इसका पुरलुत्फ़ ज़िक्र कुछ यों आता है:
“
कानपुर में प्यारेलाल ‘शाकिर' से बाज़ार में मुलाकात हो गई और उन्होंने 'सोज़े वतन' का वाक़या जानना चाहा, मैंने सोज़े वतन के बारे में कैफ़ियत दरयाफ़्त की तो कहा, 'क्या कहूँ, बड़ी मुशकिल में फँस गया था। वह तो ख़ैरियत गुजरी कि किताबें देकर पीछा छूट गया वरना जान पर आ बनी थी।' इसके बाद 'जान बची तो लाखों पाए' कहकर बड़े ज़ोर का कहकहा लगाया।
प्रेमचंद, हिन्दी साहित्यकार
इसके बाद 'जान बची तो लाखों पाए' कहकर बड़े ज़ोर का कहकहा लगाया। कहने को कहा जा सकता है कि यह बुज़दिली हुई। मगर मुंशीजी की निगाह में ऐसा कुछ न था। कलक्टर ने धमकी देते वक्त कहा था कि उन्हें ख़ैर मनाना चाहिए कि क़ानूनपसंद अंग्रेजों की हुक़ूमत थी, मुग़लों की होती तो उनके हाथ काट लिए जाते। जान लेकिन एक शर्त के साथ बख़्शी गई थी। अब से जो भी लिखेंगे सब कलक्टर को दिखा कर पास कराना होगा।
किताबों को आग लगाई
यह अच्छी मुसीबत ठहरी। नवाब राय को क़तई मंज़ूर न थी। लेकिन सीधे लड़कर ख़ुदकुशी कर लें, ऐसे भी अहमक न थे। कुछ प्रतियाँ तो कलक्टर के हवाले कीं जो आग की नज़र हुईं। जो बच गईं, चोरी चोरी बिकती रहीं। यह भी लेखक की निगाह में बेईमानी न थी।नवाब राय से प्रेमचंद!
सो अपने दोस्त और ‘ज़माना’ के सम्पादक दयानारायण निगम को उन्होंने ख़त में लिखा कि यह जो पख लग गई है, उससे पीछा छुड़ाने के लिए नवाब राय को इस जहान से जाना होगा। उन्होंने लिखा था, कुछ रोज़ के लिए। लेकिन नवाब राय जो गए तो फिर लौट न सके। उनकी जगह लेखक के नाम की तलाश में निगम साहब ने प्रेमचंद नाम का प्रस्ताव दिया। लेखक को पसंद आया। अफ़सोस था कि नवाब राय को खड़ा करके प्रतिष्ठित करने में जो 5 साल की मेहनत लगी थी, वह ज़ाया हुई, लेकिन कोई बात नहीं। नवाब राय के उत्तराधिकारी प्रेमचंद को कितने दिन लगेंगे पाठकों के दिलों पर क़ब्ज़ा करने में!
तो मई, 1910 प्रेमचंद के आविर्भाव का वक्त है। अमृत राय लिखते हैं कि इस घटना की छाया उनके मन पर न रही। न कोई शहीदाना अंदाज़ उन्होंने अपनाया। लिखना किसी भी तरह बंद न हो और अपनी मर्ज़ी की लिख सकें, इसके लिए जो करना हो, वह पाप नहीं।
कायरता नहीं
यह सब एक खेल का हिस्सा है। खेल जारी रहेगा।
यह वाक़या आज के उन लेखकों को याद रखना चाहिए जिनके लिखे में राज्य को राजद्रोह की गंध मिलती है और धर्मध्वजाधारियों को धर्मद्रोह या दूषण की। जैसे प्रेमचंद के पास खुद को बचाए रखने का, बतौर लेखक और कोई रास्ता न था, अगर इन्हें भी माफ़ी माँगनी पड़ती है या ज़मानत लेनी पड़ती है तो इसे भी इनकी कायरता नहीं मानना चाहिए। अगर समाज साथ नहीं लड़ सकता तो अकेले लेखक को शहादत की आग में कूदने की मूर्खता नहीं करनी चाहिए।
प्रेमचंद का आविर्भाव
प्रेमचंद नाम सरकार से साझा न किया गया। वह एजुकेशनल गज़ट में दर्ज न हुआ। लेखक ने कहा कि इन्हें किस्सागो ही रहने दीजिए, 'बैठे बैठे प्रेम और वीर रस के किस्से लिखा करें।' यह एकदम अलग बात है कि प्रेमचंद ने प्रेम और वीरता की जिन संवेदनाओं को रचा या गढ़ा, वे पाठकों को नितांत नवीन जान पड़ीं और एक बार जो प्रेमचंद की प्रेमगली में दाखिल हुआ, उसका फिर वहाँ से निकलने को जी न चाहा।प्रेमचंद की पहली कहानी
तो जनाब प्रेमचंद के नाम से जो पहली कहानी छपी, उसका नाम है 'बड़े घर की बेटी।' प्रेमचंद के कुछ मुरीद इस कहानी को भूल जाने लायक़ मानते हैं। उनके ख़याल में यह कहानी प्रेमचंद का क़द छोटा करती है और उन्हें लेकर ग़लतफ़हमी पैदा करती है। और किसी ने कहा होता तो शायद नज़रअंदाज़ कर दिया जा सकता था, लेकिन अगर राय नामवर सिंह की हो!
प्रेमचंद को जिन कहानियों के चलते याद किया जाए या जिनके आधार पर उनकी तसवीर गढ़ी जाए उनमें 'बड़े घर की बेटी' को रखे जाने पर नामवर सिंह को ऐतराज था।
क्या कहा था आलोचक नामवर सिंह ने
1994 की जुलाई में दिए गए एक व्याख्यान में उन्होंने कहा, 'प्रेमचंद का जो कैनन तैयार किया गया है— सेलेक्शन किया गया है उसमें 'बड़े घर की बेटी' और कौन-कौन सी कहानियाँ रख करके, एक ऐसा माटी का माधो पाठकों के सामने प्रचार में रखा जाता है।'
माटी का माधो! तो 'बड़े घर की बेटी' को कहीं छिपा देना चाहिए। या उस कहानी को प्रेमचंद की आरंभिक अवस्था की मश्क़ के एक नमूने के तौर पर ही क़बूल करना चाहिए। उस दौर की रचना, कच्ची जब प्रेमचंद को प्रेमचंद होने में वक़्त था।
फ़िराक गोरखपुरी ने क्या कहा था प्रेमचंद के बारे में
अमृत राय की किताब में ही ज़िक्र आता है मशहूर शायर फ़िराक़ गोरखपुरी से प्रेमचंद की पहली मुलाक़ात का। तो सुनिए, फ़िराक़ महावीर प्रसाद पोद्दार के घर हुई अपने प्रिय लेखक से अचानक भेंट के बारे में क्या कहते हैं,'आज से पचास-पचपन साल पहले जो लोग उर्दू साहित्य में रुचि रखते थे, उनके पास एक ही मासिक पत्रिका पढ़ने के लिए थी- कानपुर का रिसाला 'ज़माना'। पहले पहल शायद '10 में एक कहानी मैंने इस रिसाले में पढ़ी जिसका नाम था, 'बड़े घर की बेटी।' मेरे घर में बल्कि मुहल्ले में इस कहानी की चर्चा थी। पहली बार कोई चीज़ पढ़कर मेरी आँखों में आँसू आए थे, तो वह चीज़ यह कहानी थी। घरेलू जीवन की ऐसी जीती-जागती झलक इस कहानी में थी, जिसकी मिसाल उस समय के उर्दू और हिंदी साहित्य में कहीं नहीं मिलती थी। सबसे बड़ी बात उस कहानी में यह थी कि वह लड़कियों और लड़कों तक को सोचने पर मजबूर करती थी। उसी समय से मुझे कुछ ऐसा मालूम होने लगा था कि प्रेमचंद आदमी के रूप में कोई देवता है। अब तो मैं यह सोचता हूँ कि जिस ठेठ मानवता की झलक मुझे इस कहानी में मिली थी उससे देवता और फ़रिश्ते महरूम हैं।'
'बड़े घर की बेटी'
'बड़े घर की बेटी' की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह पाठक को सोचने पर मजबूर करती थी। सोचने को बाध्य करना या प्रेरित करना कहानी के पाठक के साथ होने वाली एक नई बात थी। यह वह गुण था जो किस्से से कहानी को अलग कर देता था।
पाठक का काम अब सिर्फ़ आह! आह! और वाह! वाह! या लेखक की बुनी लंतरानी में झूम झूम जाना न था, बल्कि कुछ और करना था। वह था सोचना। सोचना यानी निर्णय लेना। सिर्फ़ कहानी के पात्रों के बारे में नहीं बल्कि उनसे अपने रिश्ते के बारे में और अपने बारे में भी। उससे आगे शायद लेखक के बारे में भी।
ठेठ मानवता की झलक
दूसरी बड़ी बात- ठेठ मानवता की झलक। ठेठ मानवता जैसी कोई चीज़ भी है, इसे लेकर बहस रही है और आगे भी होती रहेगी। लेकिन हाल में जब युवा अध्येता शशिभूषण का एक वाक्य पढ़ा तो लगा कि फ़िराक़ को जो झलक मिली, प्रेमचंद में वह कोई पिछड़े या गुजरे ज़माने भर की बात न थी। शशिभूषण ने लिखा कि प्रेमचंद के पास हम अपना ईमान ताज़ा करने जाते हैं। यह अपेक्षा हर लेखक से नहीं होती, वह कितना ही कलाकुशल क्यों न हो। ठेठ मानवता और ईमान का कोई रिश्ता है या नहीं'बड़े घर की बेटी’ कोई लंबी कहानी नहीं है। एक ख़स्ताहाल घर में एक संपन्न घर से बहू आती है और उसकी देवर से खटपट हो जाती है। देवर उसका अपमान करता है, बल्कि उसपर खड़ाऊँ चला देता है। बहू पति से शिकायत करती है और आम तौर पर मुँह न खोलनेवाला पति अपने भाई की इस बेअदबी से रंजीदा होकर घर से अलग होने का फ़ैसला करता है। छोटा भाई पछताता है और भाभी का ग़ुस्सा भी पिघल जाता है। उसके कहने पर बड़ा भाई छोटे को माफ़ कर देता है। घर टूटने से बच जाता है। एक घड़ी पहले तक तमाशा देखने को इकट्ठा लोगों में बहू की धूम मच जाती है: बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं!
'बड़े घर की बेटी' की आलोचना
यूं तो ऊपर से कहानी नीतिपरक जान पड़ती है। घर सम्भालकर, जोड़कर रखना भली स्त्रियों का कर्तव्य है, यह उपदेश देनेवाली। कुछ लोगों को यह कहानी स्त्री के स्वाभिमान की क़ीमत पर संयुक्त परिवार बनाए रखने की परिपाटी की वकालत भी जान पड़े तो ताज्जुब नहीं।चाहें तो आप इस कहानी को बस इतना ही पढ़ें और पन्ना पलट दें। लेकिन अगर वाक़ई पाठक हैं तो इसमें आपको प्रेमचंद के पूरे दर्शन हो जाते हैं। यह लेखक अपने फ़न का माहिर है। कहानी की शुरुआत देखिए:
बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गॉँव के जमींदार और नम्बरदार थे। उनके पितामह किसी समय बड़े धन-धान्य संपन्न थे। गाँव का पक्का तालाब और मंदिर जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हीं के कीर्ति-स्तंभ थे। कहते हैं इस दरवाज़े पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी, जिसके शरीर में अस्थि-पंजर के सिवा और कुछ शेष न रहा था; पर दूध शायद बहुत देती थी; क्योंकि एक न एक आदमी हाँड़ी लिए उसके सिर पर सवार ही रहता था। बेनीमाधव सिंह अपनी आधी से अधिक संपत्ति वकीलों को भेंट कर चुके थे। उनकी वर्तमान आय एक हजार रुपये वार्षिक से अधिक न थी। ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था। उसने बहुत दिनों के परिश्रम और उद्योग के बाद बी.ए. की डिग्री प्राप्त की थी। अब एक दफ्तर में नौकर था। छोटा लड़का लाल-बिहारीसिंह दोहरे बदन का, सजीला जवान था। भरा हुआ मुखड़ा, चौड़ी छाती। भैंस का दो सेर ताजा दूध वह उठ कर सबेरे पी जाता था। श्रीकंठ सिंह की दशा बिलकुल विपरीत थी। इन नेत्रप्रिय गुणों को उन्होंने बी.ए.–इन्हीं दो अक्षरों पर न्योछावर कर दिया था। इन दो अक्षरों ने उनके शरीर को निर्बल और चेहरे को कांतिहीन बना दिया था। इसी से वैद्यक ग्रंथों पर उनका विशेष प्रेम था। आयुर्वेदिक औषधियों पर उनका अधिक विश्वास था। शाम-सबेरे उनके कमरे से प्राय: खरल की सुरीली कर्णमधुर ध्वनि सुनायी दिया करती थी। लाहौर और कलकत्ते के वैद्यों से बड़ी लिखा पढ़ी रहती थी।
ज़मींदारी पर व्यंग्य
एक व्यंग्यपूर्ण निगाह है जो एक पस्त ज़मींदार बेनी माधव सिंह और उनके दो बेटों, श्रीकंठ सिंह और लाल बिहारी सिंह को देख रही है। व्यंग्य है, लेकिन तिरस्कार नहीं है। यह व्यंग्य 'कीर्ति-स्तंभ', 'नेत्रप्रिय गुणों', 'खरल की सुरीली कर्णमधुर ध्वनि' में छिपा है।
'बी.ए.-इन्हीं दोनों अक्षरों' से आधुनिक शिक्षा के प्रति लेखक के नज़रिए का अंदाज़ भी मिल जाता है। मुक़दमों में खुद को खर्च कर इज्जत बचाए रखने की क़वायद में लगी पिछली पीढ़ी तो पिछड़ी हुई है, लेकिन आगे की पीढ़ी भी कितनी आगे की है!
प्रेमचंद की शैली
प्रेमचंद की वह शैली जो शैली लगती ही नहीं, इस मुख़्तसर से वर्णन में है। वर्णन भी है और राय भी। श्रीकंठ सिंह का सम्मान गाँव में इसलिए था कि वे 'अंग्रेज़ी डिग्री का अधिपति' होने के बावजूद संयुक्त परिवार के पैरोकार थे और 'प्राचीन हिंदू सभ्यता का गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अंग था।'गाँव की स्त्रियाँ लेकिन उन्हें ठीक इसी वजह से पसंद नहीं करतीं थी और खुद उनकी पत्नी उनसे सहमत न थी,
यह इसलिए नहीं कि उसे अपने सास-ससुर, देवर या जेठ आदि घृणा थी; बल्कि उसका विचार था कि यदि बहुत कुछ सहने और तरह देने पर भी परिवार के साथ निर्वाह न हो सके, तो आये-दिन की कलह से जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी खिचड़ी अलग पकायी जाय।
एक दिन दोपहर के समय लाल बिहारी सिंह दो चिड़िया लिये हुए आया और भावज से बोला–जल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है। आनंदी भोजन बनाकर उसकी राह देख रही थी। अब वह नया व्यंजन बनाने बैठी। हाँड़ी में देखा, तो घी पाव-भर से अधिक न था। बड़े घर की बेटी, किफायत क्या जाने। उसने सब घी मांस में डाल दिया। लाल बिहारी खाने बैठा, तो दाल में घी न था, बोला-दाल में घी क्यों नहीं छोड़ा
आनंदी ने कहा–घी सब मांस में पड़ गया। लाल बिहारी जोर से बोला–अभी परसों घी आया है। इतना जल्द उठ गया
आनंदी ने कहा–घी सब मांस में पड़ गया। लाल बिहारी जोर से बोला–अभी परसों घी आया है। इतना जल्द उठ गया
आनंदी ने उत्तर दिया–आज तो कुल पाव–भर रहा होगा। वह सब मैंने माँस में डाल दिया।
जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य जरा-जरा सी बात पर तिनक जाता है। लाल बिहारी को भावज की यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई, तिनक कर बोला–मैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो!
स्त्री गालियाँ सह लेती हैं, मार भी सह लेती हैं; पर मैके की निंदा उनसे नहीं सही जाती। आनंदी मुँह फेर कर बोली–हाथी मरा भी, तो नौ लाख का। वहॉँ इतना घी नित्य नाई-कहार खा जाते हैं।
लाल बिहारी जल गया, थाली उठाकर पलट दी, और बोला–जी चाहता है, जीभ पकड़ कर खींच लूँ।
आनंदी को भी क्रोध आ गया। मुँह लाल हो गया, बोली– वह होते तो आज इसका मजा चखाते।
अब अपढ़, उजड्ड ठाकुर से न रहा गया। उसकी स्त्री एक साधारण जमींदार की बेटी थी। जब जी चाहता, उस पर हाथ साफ कर लिया करता था। खड़ाऊँ उठाकर आनंदी की ओर जोर से फेंकी, और बोला–जिसके गुमान पर भूली हुई हो, उसे भी देखूँगा और तुम्हें भी।
आनंदी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी, सिर बच गया; पर उँगली में बड़ी चोट आयी। क्रोध के मारे हवा से हिलते पत्ते की भॉँति कॉँपती हुई अपने कमरे में आ कर खड़ी हो गयी। स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषत्व का घमंड होता है। आनंदी खून का घूँट पी कर रह गयी।
प्रेमचंद के दस्तख़त
इस दृश्य को उतने ही ध्यान से देखिए जितने गौर से लेखक ने देखा और दर्ज किया है। इसकी ख़ास प्रेमचंदीय शैली क्या है 'जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य ज़रा-ज़रा से बात पर तिनक उठता है', 'क्रोध के मारे हवा से हिलते पत्ते की भाँति काँपती हुई' जैसे वाक्यांशों पर प्रेमचंद के दस्तख़त हैं।
यह मुहावरेदार ज़ुबान ही ठेठ हिंदी है और उसकी सहजता कैसे हासिल की जाए, यह लेखक के लिए चुनौती है।
औरत की औकात!
इस एक वर्णन में आप एक पारंपरिक भारतीय या हिंदू परिवार में औरत की स्थिति या उसकी औक़ात का अंदाज़ कर सकते हैं। उस ग़ैरबराबर रिश्ते का जो भारतीय परिवार में मर्द और औरत का होता है, भले ही वह मर्द ओहदे में औरत से हेठा क्यों न हो जो कि लाल बिहारी आनंदी के मुक़ाबले है। वह आख़िर उसके बड़े भाई की पत्नी है और उसके आदर की अधिकारी।
आगे स्थिति अगर बदलती भी है तो अपनी पत्नी के अपमान को अपना अपमान समझने के कारण श्रीकंठ सिंह के अंदर पैदा हुए क्रोध से। पत्नी आनंदी ने पति को सारा वृत्तांत कह सुनाया। प्रेमचंद फिर बाहर सावधानी से अपने पिता को घर से अलग होने की नोटिस देते परंपरावादी श्रीकंठ सिंह को सुनते हैं,
प्रात:काल अपने बाप के पास जाकर बोले–दादा, अब इस घर में मेरा निबाह न होगा।
इस तरह की विद्रोहपूर्ण बातें कहने पर श्रीकंठ ने कितनी ही बार अपने कई मित्रों को आड़े हाथों लिया था; परन्तु दुर्भाग्य, आज उन्हें स्वयं वे ही बातें अपने मुँह से कहनी पड़ी ! दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज है!
बेनीमाधव सिंह घबरा उठे और बोले–क्यों
श्रीकंठ–इसलिए कि मुझे भी अपनी मान प्रतिष्ठा का कुछ विचार है। आपके घर में अब अन्याय और हठ का प्रकोप हो रहा है। जिनको बड़ों का आदर सम्मान करना चाहिए, वे उनके सिर चढ़ते हैं। मैं दूसरे का नौकर ठहरा, घर पर रहता नहीं। यहॉँ मेरे पीछे स्त्रियों पर खड़ाऊँ और जूतों की बौछारें होती हैं। कड़ी बात तक चिन्ता नहीं। कोई एक की दो कह ले, वहाँतक मैं सह सकता हूँ, किन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात-घूँसे पड़ें और मैं दम न मारूँ।
बेनीमाधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। श्रीकंठ सदैव उनका आदर करते थे। उनके ऐसे तेवर देखकर बूढ़ा ठाकुर अवाक् रह गया। केवल इतना ही बोला-बेटा, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो स्त्रियाँ इस तरह घर का नाश कर देती हैं। उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं।
श्रीकंठ–इतना मैं जानता हूँ, आपके आशीर्वाद से ऐसा मूर्ख नहीं हूँ। आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने-बुझाने से, इसी गाँव में कई घर सँभल गये, पर जिस स्त्री की मानप्रतिष्ठा का ईश्वर के दरबार में उत्तरदाता हूँ, उसके प्रति ऐसा घोर अन्याय और पशुवत् व्यवहार मुझे असह्य है। आप सच मानिए, मेरे लिए यही कुछ कम नहीं है कि लाल बिहारी को कुछ दंड नहीं देता।
अब बेनीमाधव सिंह भी गरमाये। ऐसी बातें और न सुन सके। बोले–लाल बिहारी तुम्हारा भाई है। उससे जब कभी भूल–चूक हो, उसके कान पकड़ो लेकिन…
श्रीकंठ—लाल बिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता।
बेनीमाधव सिंह–स्त्री के पीछे
श्रीकंठ—जी नहीं, उसकी क्रूरता और अविवेक के कारण।
दोनों कुछ देर चुप रहे। ठाकुर साहब लड़के का क्रोध शांत करना चाहते थे, लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कि लाल बिहारी ने कोई अनुचित काम किया है।
भारतीय परिवार!
लेखक अपलक देख रहा है और एक-एक वाक्य नोट कर रहा है। हरेक की धारणा भी। यह उसका दायित्व है कि वह जो जैसा है उसे वैसा ही रिपोर्ट करे। वह इन सबके ऊपर अपनी धारणा आरोपित नहीं कर सकता। भारतीय परिवार असमान धरातलों का भूगोल है। बेटा यह क़बूल नहीं कर सकता कि अपनी पत्नी के अपमान के कारण वह इतना बड़ा फ़ैसला कर रहा है। स्त्री उपलक्ष्य ही है, लक्ष्य वही है।
इस पूरे नाट्य व्यापार में शामिल पात्र लेकिन मनुष्य हैं। पुरुष पुरुष है, स्त्री स्त्री। पुरुषत्व, पितृसत्ता है लेकिन मनुष्य नामक एक सत्ता भी है। उसमें अपने किए को समझने की सम्भावना है। अपनी 'पुरुष' अवस्थिति का अतिक्रमण करने की क्षमता है। खुद को बदलने की भी। घर टूटता नहीं है।
जो भाई उस पर जान देता था, उसके मुँह से आज ऐसी हृदय-विदारक बात सुनकर लाल बिहारी को बड़ी ग्लानि हुई। वह फूट-फूट कर रोने लगा। इसमें संदेह नहीं कि अपने किये पर पछता रहा था। भाई के आने से एक दिन पहले से उसकी छाती धड़कती थी कि देखूँ भैया क्या कहते हैं। मैं उनके सम्मुख कैसे जाऊँगा, उनसे कैसे बोलूँगा, मेरी ऑंखें उनके सामने कैसे उठेगी। उसने समझा था कि भैया मुझे बुलाकर समझा देंगे। इस आशा के विपरीत आज उसने उन्हें निर्दयता की मूर्ति बने हुए पाया। वह मूर्ख था। परंतु उसका मन कहता था कि भैया मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं। यदि श्रीकंठ उसे अकेले में बुलाकर दो-चार बातें कह देते; इतना ही नहीं दो चार तमाचे भी लगा देते तो कदाचित् उसे इतना दु:ख न होता; पर भाई का यह कहना कि अब मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता, लाल बिहारी से सहा न गया ! वह रोता हुआ घर आया। कोठारी में जा कर कपड़े पहने, ऑंखें पोंछी, जिसमें कोई यह न समझे कि रोता था। तब आनंदी के द्वार पर आकर बोला—
भाभी, भैया ने निश्चय किया है कि वह मेरे साथ इस घर में न रहेंगे। अब वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए अब मैं जाता हूँ। उन्हें फिर मुँह न दिखाऊँगा ! मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, उसे क्षमा करना।
यह कहते-कहते लाल बिहारी का गला भर आया।
अपमान के कारण प्रतिशोध की आग में जल रही आनंदी को यह पश्चाताप सच्चा जान पड़ता है। ईमानदार पछतावे की प्रतिक्रिया उदार, बिना शर्त क्षमा ही हो सकती है।
इस बीच में जब उसने लालबिहारी को दरवाजे पर खड़े यह कहते सुना कि अब मैं जाता हूँ, मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, क्षमा करना, तो उसका रहा-सहा क्रोध भी पानी हो गया। वह रोने लगी। मन का मैल धोने के लिए नयन-जल से उपयुक्त और कोई वस्तु नहीं है।
श्रीकंठ को देखकर आनंदी ने कहा—लाला बाहर खड़े बहुत रो रहे हैं।
श्रीकंठ–तो मैं क्या करूँ
आनंदी—भीतर बुला लो। मेरी जीभ में आग लगे ! मैंने कहाँ से यह झगड़ा उठाया।
श्रीकंठ–मैं न बुलाऊँगा।
आनंदी–पछताओगे। उन्हें बहुत ग्लानि हो गयी है, ऐसा न हो, कहीं चल दें।
श्रीकंठ न उठे। इतने में लाल बिहारी ने फिर कहा–भाभी, भैया से मेरा प्रणाम कह दो। वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए मैं भी अपना मुँह उन्हें न दिखाऊँगा।
लाल बिहारी इतना कह कर लौट पड़ा, और शीघ्रता से दरवाजे की ओर बढ़ा। अंत में आनंदी कमरे से निकली और उसका हाथ पकड़ लिया। लाल बिहारी ने पीछे फिर कर देखा और ऑंखों में ऑंसू भरे बोला–मुझे जाने दो।
आनंदी- कहाँ जाते हो
लाल बिहारी–जहाँ कोई मेरा मुँह न देखे।
आनंदी—मैं न जाने दूँगी।
लाल बिहारी—मैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ।
आनंदी—तुम्हें मेरी सौगंध अब एक पग भी आगे न बढ़ाना।
लाल बिहारी—जब तक मुझे यह न मालूम हो जाय कि भैया का मन मेरी तरफ से साफ हो गया, तब तक मैं इस घर में कदापि न रहूँगा।
आनंदी—मैं ईश्वर को साक्षी दे कर कहती हूँ कि तुम्हारी ओर से मेरे मन में तनिक भी मैल नहीं है।
टूटता हुआ घर बच जाता है। पिता यह दृश्य देखकर पुलकित हो उठते हैं, 'बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं।'
गाँव में जिसने यह वृत्तांत सुना, उसी ने इन शब्दों में आनंदी की उदारता को सराहा—'बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं।'
क्या यह पितृसत्ता की चतुर विजय है क्या यह अंत बनावटी है क्या देवर और भाभी का 'हृदय परिवर्तन' नक़ली है क्या स्त्री की क़ीमत पर फिर 'घर' को बचा लिए जाने का यह भावुक षड्यंत्र है क्या यह घर आगे बच ही जाएगा
यह सब कुछ पाठकों को सोचना है। पाठक कहानी के अंत में 'बड़े घर की बेटियाँ की' आवृत्ति के भाव को न समझ पाए तो फिर वह प्रेमचंद का पाठक नहीं। जिस घर पर छींटाकशी की गई थी, जिस पर अभिमान देवर को सहन न हुआ, अब वही उसकी उदारता का कारण बताया जा रहा है, वह रही आखिर बड़े घर की बेटी ही। आनंदी को इससे एतराज न हो, लेकिन पाठक क्या कुछ भी नहीं सोचेगा
घर प्रेमचंद की और उस युग के लिए, बल्कि आज के लिए भी एक समस्या है। उसका कोई आसान समाधान लेखक के पास नहीं। उससे बड़ी एक समस्या है : इंसान और इंसान के बीच के रिश्ते की। उसकी बुनियाद क्या होगी और वह इंसानी तौर पर कैसे बचाया जा सकेगा