“कहते हैं चित्र और मूर्ति का प्रभाव कला में विश्व-व्याप्त होता है। विश्व के किसी भी कोने में उनकी पहुँच होती है। कला का वह रूप अपनी प्रेरणा से रस खींचता है, निर्माण में बचपन की-सी सरलता बोता है और अपनी लगन में इतना रंग जाता है कि लोग अपनी दिशा का उसे दीवाना कहने लगें। उसका महान गौरव और उसके महान गौरव-कर्त्ता यह नहीं जान पाते कि वह कठोर मज़दूरी करता है, तब अपनी सूझ के मुक्ता कणों को पात्रों का रूप देकर वह समझ, आकर्षण और चाह के देव-मन्दिरों में पहुँचा पाता है।”
माखनलाल चतुर्वेदी ठीक ही प्रेमचंद की ‘कठोर मज़दूरी को चिह्नित करते हैं। उनकी भाषा जो इतनी सहज जान पड़ती है, पानी की तरह बहती हुई, उसके पीछे शब्दों और भाषा की दीर्घ साधना तो है ही, ख़ुद का उनके साथ घोर परिश्रम है। कई बरस पहले की एक बात याद आती है। तब मैं मोटरसाइकल चलाता था। किसी गड्ढे या रुकावट में वह उछली और चाभी भी इग्निशन प्वाइंट से निकलकर कहाँ गिर गई, मालूम ही नहीं हुआ। तब एक ताला डॉक्टर के पास रुककर डुप्लीकेट चाभी बनाने की गुज़ारिश की। बुज़ुर्गवार ने एक सपाट चाभी ली, एक मोमबत्ती पर पहले उसे रखा। फिर उस चाभी को इग्निशन प्वाइंट में डालकर निकाला और उसमें बस एक निशान-सा उकेर दिया। इसकी फ़ीस 30 रुपये थी। मैंने पैसे देते हुए ज़रा मोलतोल के भाव से कहा, “लगा तो सिर्फ़ एक मिनट।” बुज़ुर्गवार ने पैसे रखते हुए बस इतना जवाब दिया, ‘तीस साल लगे हैं इसमें।’
कला के प्रति सजगता
यह जवाब आज तीस साल बाद भी हमेशा बज उठता है जब प्रेमचंद या भीष्म साहनी या रेणु या नामवर सिंह को पढ़ता हूँ। इनकी सादगी धोखा देनेवाली है और प्रायः धारणा बन जाती है कि कला उनकी चिंता का विषय नहीं थी। भाषा और कला के प्रति सजगता को हिंदी के अकादमिक जगत में अज्ञेय, निर्मल वर्मा, आदि के खाते में डालकर इसे समाज के प्रति सजगता के ख़िलाफ़ खड़ा कर दिया जाता रहा है। मुझे कुछ वर्ष पहले एक छात्र से अज्ञेय के संबंध में हुई चर्चा की याद है। अज्ञेय की भाषा पर ज़ोर देने पर उसे ऐतराज़ था कि मैं उनके समाज के प्रति विराग को उससे ढँकने की कोशिश कर रहा हूँ। कला या रूप और कथ्य का संघर्ष हिंदी आलोचना में अब शिथिल पड़ गया है लेकिन उसने पढ़ने और लेखकों के प्रति नज़रिया बनाने का एक ख़ास तरह का अभ्यास तो डाल ही दिया है जिससे उबरना अभी भी आसान नहीं है।
फ्रेंच लेखक मलार्मे की एक नए लेखक से बातचीत की याद दिला देना अप्रासंगिक न होगा। जब वरिष्ठ कवि ने नए रचनाकार से पूछा कि उसे क्यों लगता है कि वह कविता लिख सकता है तो उसने जवाब दिया कि उसके पास विचार हैं। मलार्मे ने कहा कि कविता विचारों से नहीं, शब्दों से लिखी जाती है।
सूसन सोंटैग भी ठीक यही बात 3 मई, 1970 को अपनी डायरी में दर्ज करती हैं,
“मुझे लगता है यह सीखने को तैयार हूँ कि लिखा कैसे जाता है। शब्दों से/में सोचो, विचारों से/में नहीं।”
एक दूसरी जगह वह कहती हैं कि हम लेखक शब्दों को लेकर यातना में पड़े रहते हैं। उसे अपना ‘रूप’ बनाए रखना है तो एक एथलीट की तरह रोज़ाना ही मश्क करना है।
भाषा और लेखक का संबंध कैसा हो? माखनलाल चतुर्वेदी प्रेमचंद के विषय में लिखते हैं,
“वे शब्दों में डूबते-उतराते, अर्थों से उलझ और सुलझकर चलते, रस को बात करते ही प्रारम्भ कर देते, छन्दों की-सी वक्र गति से कहन को बचाते ....”
सूसन सोंटैग के मुताबिक़ लेखक वह है जो दुनिया पर ग़ौर करता है। लेखक की दिलचस्पी सिर्फ़ विचारों में नहीं, दुनिया में होनी चाहिए। दुनिया का मतलब है लोग, जो हर क़िस्म के हैं। और दुनिया की हर चीज़, उसकी हर शै। लेखक का परहेज किसी से नहीं है।
सोंटैग के मुताबिक़ लेखक दो तरह के होते हैं। एक जिनके लिए पूरी दुनिया ही लेखन का विषय है, जैसे तोल्स्तोय और दूसरे जो वह जो सिर्फ़ ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण को अपना विषय बनाते हैं, जैसे दोस्तोव्स्की। प्रेमचंद को अगर किसी श्रेणी में रखना हो तो पहली को चुनना होगा क्योंकि वह इस दुनिया के तमाशे को बहुत मज़े से देखते हैं और दुर्भाग्य का रोना नहीं रोते रहते। वह पाठक पर अनावश्यक बोझ भी नहीं डालते।
लेखक का नैतिक पैमाना
प्रत्येक लेखक के पास लेकिन एक नैतिक पैमाना होना ही चाहिए। यह पैमाना वह कहाँ से हासिल करता है? प्रायः यह वह अपने पूर्ववर्तियों को पढ़कर ही निर्मित करता है। प्रेमचंद ने अपनी आरंभिक पढ़ाई के बारे में ‘मेरी पहली रचना’ शीर्षक अपने लेख में बताया है,
“उस वक़्त मेरी उम्र कोई 13 साल की रही होगी। हिन्दी बिल्कुल न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढ़ने-लिखने का उन्माद था। मौलाना शरर, पं० रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मुहम्मद अली हरदोई निवासी, उस वक़्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे। इनकी रचनाएँ जहाँ मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था। उस ज़माने में रेनाल्ड के उपन्यासों की धूम थी। उर्दू में उनके अनुवाद धड़ाधड़ निकल रहे थे और हाथो हाथ बिकते थे। मैं भी उनका आशिक था। स्व० हज़रत रियाज़ ने जो उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे और जिनका हाल में देहान्त हुआ है, रेनाल्ड की एक रचना का अनुवाद ‘हरम सरा’ के नाम से किया था। उस ज़माने में लखनऊ के साप्ताहिक ‘अवध-पंच’ के सम्पादक स्व० मौलाना सज्जाद हुसैन ने, जो हास्यरस के अमर कलाकार हैं, रेनाल्ड के दूसरे उपन्यास का अनुवाद ‘धोखा’ या ‘तिलस्मी फ़ानूस’ के नाम से किया था। ये सारी पुस्तकें मैंने उसी ज़माने में पढ़ीं और पं० रतननाथ सरशार से तो मुझे तृप्ति न होती थी। उनकी सारी रचनाएँ मैंने पढ़ डालीं।”
इनको पढ़ते हुए और ख़ासकर सरशार को, प्रेमचंद को लेखक होने का मतलब भी समझ में आया। सबसे महत्त्वपूर्ण है कल्पना शक्ति। इसी लेख में वह आगे बताते हैं,
“दो-तीन वर्षों में मैंने सैकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे। जब उपन्यासों का स्टॉक समाप्त हो गया, तो मैंने नवलकिशोर प्रेस से निकले हुए पुराणों के उर्दू अनुवाद भी पढ़े, और ‘तिलस्मी होशरुबा’ के कई भाग भी पढ़े। इस वृहद् तिलस्मी ग्रन्थ के 17 भाग उस वक़्त निकल चुके थे और एक-एक भाग बड़े सुपररायल के आकार के दो-दो हज़ार पृष्ठों से कम न होगा। और इन 17 भागों के उपरान्त उसी पुस्तक के अलग-अलग प्रसंगों पर पचीसों भाग छप चुके थे। इनमें से भी मैंने पढ़े। जिसने इतने बड़े ग्रन्थ की रचना की, उसकी कल्पना-शक्ति कितनी प्रबल होगी, इसका केवल अनुमान किया जा सकता है।”
इसीलिए बाद में भी नए लेखकों से बात करते हुए प्रेमचन्द दो बातों पर बारंबार ज़ोर देते हैं। एक विनोद भाव और दूसरे, कल्पना शक्ति। इन दोनों के बिना उपन्यास या आधुनिक कथा संभव नहीं। प्रेमचंद ने सारे क़िस्से, तिलस्मी ग्रंथ घोंट डाले हैं, लेकिन उन्हें इसे लेकर कोई दुविधा नहीं है कि वह इसी परंपरा के लेखक नहीं हैं। उन्हें उपन्यास के नए होने का पूरा अहसास है और यह भी इसकी जड़ भारत के क़िस्सों में नहीं है। इसे लेकर कोई हीनता बोध प्रेमचंद में नहीं है।
‘शरर और सरशार’
प्रेमचंद का नज़रिया सबसे अच्छे ढंग से मालूम होता है उनके निबंध ‘शरर और सरशार’ से। यह निबंध 1906 के ‘उर्दुए मुअल्ला’ में छपा। यह उसके पहले इसी पत्रिका में हकीम बरहम साहब गोरखपुरी के उस लेख का जवाब है जो उन्होंने शरर और सरशार की तुलना करते हुए लिखा था और शरर को सरशार से ऊपर रखा था। मान लिया कि शरर अरबी, फ़ारसी के आलिम और बड़े फाजिल और बहुभाषाविद हैं जबकि सरशार-
“फ़ारसी में कच्चा और अरबी में नादान बच्चा है। इतिहास-भूगोल से उसको ज़रा भी लगाव नहीं, योरप की भाषाओं का क्या ज़िक्रे उर्दू में भी काफ़ी योग्यता नहीं रखता।”
प्रेमचंद के हिसाब से“उपन्यास लिखना और बात है, आलिम-फाजिल होना और बात।” इसलिए वह-
“सिर्फ़ यह देखना चाहते हैं कि कहानी लिखने के मैदान में किसका कलम उड़ानें भरता है और इस कला में कौन अधिक कुशल है।”
प्रेमचंद लिखते हैं कि फ़साना और नाविल में ‘आशय की दृष्टि’ से काफ़ी फर्क है। नाविल में ज़माने की साफ़-साफ तसवीर… ‘उसके रीति रिवाज़, अदब-क़ायदे, रहन सहन’ के ढंग पर रौशनी डाली जानी चाहिए और उसमें ‘अलौकिक घटनाओं को स्थान न हो या हो तो इस ख़ूबी से कि यथार्थ लगे।’
नाविल नए ढंग का क़िस्सा है। वह दर्शन, इतिहास, समाजशास्त्र सबसे अलग है। मिलान कुंदेरा ने तो यह बात बहुत बाद में कही। प्रेमचंद ने अपने अंदाज़ में वैसी रचनाओं के प्रति अरुचि दिखलाई जो ‘गोया उपन्यास न हुए कोई दर्शन की किताब हुई जिसमें किसी न किसी थ्योरी को स्थापित करना ज़रूरी है।’
एक और ख़ूबी जो किसी और ने इस तरह चिह्नित न की थी उपन्यास या आधुनिक कथा की, वह प्रेमचंद ने सरशार की विशेषता बताते हुए की,
“सरशार ने जितनी किताबें लिखीं उनमें से एक भी ऐसी नहीं जिसको मुसलमान या ईसाई एक-सी दिलचस्पी से न पढ़ें। वे सब धार्मिक विद्वेष से मुक्त हैं।”
उपन्यास एक सेक्युलर विधा
उपन्यास एक सेक्युलर विधा है, यह बात बार-बार कही गई है। इसका मतलब इसके दुनियावी मसलों से सरोकार रखना तो है ही, इस बात से भी है कि जो तजुर्बा वह कर रहा है या ख़ुद है, उसकी और उसमें हर कोई साझेदारी कर सके। अनुभव की सार्वभौमिकता उपन्यास का गुण है। इसलिए कोई भी उपन्यास या कथा किसी भी वर्ग या समुदाय से मुँह नहीं मोड़ सकती। यह क़तई दीगर बात है, भले ही जुड़ी हुई कि यह शायद कमी उसमें भी हो सकती है जो इस अनुभव को साझा नहीं कर पा रहा है।
माखनलाल चतुर्वेदी ने प्रेमचंद की भाषा पर पकड़ की तारीफ़ के बाद लिखा कि वे
“प्रत्येक क्षण इस बात का ख्याल रखते थे कि उनकी कृति मानव के लिए कभी अमंगलकर न हो, सदैव मंगलकर बनी रहे...
वे आगे लिखते हैं कि
“प्रेमचंद की रचना अपने प्रारंभ में भी मंगलकर है, अपने सर्वोच्च उठान में भी मंगलकर है, अपने असहाय उतार में भी मंगलकर है।”
इससे भी मार्के की बात आगे है,
“उन्होंने अपनी रचनाओं में तर्कों का ऐसे जालीदार पर्दे का निर्माण ही नहीं किया, जिसमें रचना लेखन-कौशल बन जाये और जीवन तड़पता रह जाये; उन्होंने जीवन को धर्म और सम्प्रदायों की तरह किस्तों में कहीं भी बाँटा। वे अनवछिन्न जीवन के व्यापक समर्थक रहे।”
इसके लिए
“कहानीकार को तीन काम एक साथ करने होते थे। एक तो साहित्य के उतार-चढ़ाव का विवेक साधकर लिखना पड़ता, दूसरे जीवन के संघर्षों के प्रति जागरूक रहना पड़ता तथा अपनी कृति के शील को समाज में समा सकने योग्य बनाए रखना पड़ता।”
अज्ञेय ने भी इस साधना पक्ष पर ध्यान दिया है,
“प्रेमचंद साहित्य में प्रतिस्पर्धी भाव से नहीं आये... अपनी अंतिम बीमारी के दौरान भी वे इसी पक्ष पर बल दे रहे थे कि साहित्यकार समाजसेवी ही है और साहित्य-कर्म मूलतः साधना ही है।”
जैसे माखनलाल चतुर्वेदी ने वैसे ही अज्ञेय ने प्रेमचंद की विशेषता पर उँगली रखी,
“उपन्यास मनोरंजन भी करता है, इस बात को वे कभी नहीं भूले और उनके उपन्यास हमेशा रोचक और पठनीय बने रहे; लेकिन साथ ही आरम्भ से एक नैतिक बोध उनके कृतित्व को आलोकित करता रहा। जिस दुनिया में हम जीते हैं, वह नैतिक दृष्टि से कितनी अँधेरी है, इस बात की पहचान उनकी रचनाओं में लगातार तीव्रतर होती गयी, यहाँ तक कि अंतिम काल की कुछ रचनाओं में तो वह मानो एक चरम अतिनैतिक अथवा नीति-निरपेक्ष संसार की देहरी पर आ खड़े हुए थे।”
समाज का मंगल
प्रेमचंद इस यथार्थ की उपेक्षा नहीं कर सकते, लेकिन आख़िरकार उनका लक्ष्य समाज का मंगल है,
“सामाजिक वास्तविकता का चित्र खींचते हुए उनका लक्ष्य एक नीति-निरपेक्ष संसार की उपेक्षा करना नहीं था, बल्कि एक नैतिक संसार की वास्तविकता प्रस्तुत करना था –वह नैतिक संसार चाहे कितना ही मर्माहत और उपेक्षित क्यों न हो। और नैतिक यथार्थ की वह पक्षधरता उनकी रचनाओं में अंत तक लक्षित होती है।”
जानार्दन राय के अनुसार प्रेमचंद मानवीय प्रयत्नवाद के लेखक थे। और अज्ञेय के मुताबिक़ प्रेमचंद नैतिक मानव की खोज में थे।