सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को शिवसेना के बाग़ी विधायकों को अंतरिम राहत देते हुए एक ऐसा फ़ैसला दिया जिसे असामान्य बताया जा रहा है और जिस पर सवाल उठाए जा रहे हैं। संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत अध्यक्ष को मिले अधिकार पर सवाल उठ रहे हैं। दसवीं अनुसूची के तहत अध्यक्ष के अधिकार को पहले सुप्रीम कोर्ट ने ही बरकरार रखा है। अब तक किसी मामले पर अध्यक्ष द्वारा निर्णय लिए जाने के बाद ही अदालत ने न्यायिक समीक्षा की अनुमति दी है, और अध्यक्ष के फ़ैसले से पहले की प्रक्रिया में हस्तक्षेप से इनकार किया है।
लेकिन महाराष्ट्र के मामले में कुछ असामान्य हुआ। महाराष्ट्र में उपाध्यक्ष (अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष के पास अधिकार) द्वारा बागियों को अयोग्यता वाला नोटिस दिए जाने पर कोर्ट ने हस्तक्षेप किया यानी उपाध्यक्ष द्वारा फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में ही अदालत ने हस्तक्षेप किया। ऐसे में सवाल है कि आख़िर अध्यक्ष के वास्तव में अधिकार क्या हैं और सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में इससे पहले किस तरह के फ़ैसले दिए हैं।
1985 में लागू किए गए दल-बदल क़ानून या संविधान की दसवीं अनुसूची में सदन के अध्यक्ष को यह अधिकार दिया गया है कि वह दल बदल करने वाले को अयोग्य क़रार दें।
ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी फ़ैसला दिया था। 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने ‘किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू और अन्य' मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि अध्यक्ष या सभापति द्वारा दल बदल विरोधी कानून के तहत अंतिम निर्णय लेने से पहले कार्यवाही के बीच में न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है। कार्यवाही के बीच में न्यायपालिका द्वारा कोई हस्तक्षेप करना उचित नहीं होगा।'
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद से अदालतें विधानसभा अध्यक्ष द्वारा की जा रही कार्यवाही के बीच में दखल देने से बचती रही हैं। लेकिन किहोतो होलोहन फ़ैसले के क़रीब 24 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक और अहम फ़ैसला दिया और तब विधानसभा अध्यक्ष के अधिकार में अहम बदलाव आया।
2016 में नबाम रेबिया और बामांग फेलिक्स बनाम उपाध्यक्ष का मामला सामने आया। यह अरुणाचल प्रदेश विधानसभा का मामला था। हालाँकि यह मामला मुख्य तौर पर राज्यपाल से जुड़ा था, लेकिन इसमें दल बदल का मामला भी सामने आया था।
इसमें सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने कहा कि यदि अध्यक्ष के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लंबित है तो अध्यक्ष को संवैधानिक रूप से इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है कि वह अयोग्यता वाली कार्यवाही पर आगे बढ़ें। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बहुमत प्राप्त होने पर ही अध्यक्ष ऐसी कार्रवाई के लिए आगे बढ़ें तो कोई परेशानी नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से बागियों को बड़ी राहत मिली और उन्होंने इस नियम का फायदा उठाया। बागी संभावित अयोग्यता को देखते हुए अध्यक्ष को हटाने की मांग यह कहते हुए करने लगे कि उन्होंने बहुमत खो दिया है।
तो क्या विधानसभा अध्यक्ष को हटाना इतना आसान है?
भारत के संविधान के अनुच्छेद 179 में इसका ज़िक्र साफ़ तौर पर किया गया है कि विधानसभा अध्यक्ष को विधानसभा में तब के सभी सदस्यों के बुहमत से प्रस्ताव पास कर हटाया जा सकता है। अध्यक्ष को हटाने की प्रक्रिया शुरू होने में कम से कम 14 दिन का समय लगता है क्योंकि यह प्रक्रिया शुरू करने के लिए 14 दिन का नोटिस देना होता है। 2016 के नबाम रेबिया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया था कि विधानसभा के सभी सदस्यों से मतलब नोटिस दिए जाने के समय विधानसभा की स्थिति से है और नोटिस के बाद उसको बदला नहीं जा सकता है। इसका एक मतलब यह भी है कि अध्यक्ष 10वीं अनुसूची के तहत मिले अधिकार के अनुसार तब तक फ़ैसले नहीं ले सकता है जब तक कि उनके हटाने का मामला नहीं सुलट जाता है।
तो सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फ़ैसलों के संदर्भ में क्या अब महाराष्ट्र विधानसभा के उपाध्यक्ष कोई बड़ा फ़ैसला ले सकते हैं? फ़िलहाल तो ऐसा नहीं लगता है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ तौर पर कह दिया है कि बाग़ी 12 जुलाई तक अयोग्यता नोटिस पर जवाब देने के लिए स्वतंत्र हैं। यानी इससे पहले तो उपाध्यक्ष इस मामले में कार्रवाई अब नहीं कर सकते हैं।