संयुक्त किसान मोर्चा ने योगेंद्र यादव को एक महीने के लिए अपने बीच से बाहर कर दिया है। इस एक क़दम ने मोर्चे की नैतिक आभा धूमिल कर दी है। योगेंद्र यादव को निलंबित करने के लिए मोर्चे ने जो कारण दिया है, वह हिंसा के प्रश्न पर मोर्चे की स्थिति को कमजोर करता है। कारण है लखीमपुर खीरी में मारे गए बीजेपी कार्यकर्ताओं में से एक के घर पर जाकर उसके परिजनों से मिलना।
लखीमपुर में बीजेपी कार्यकर्ताओं द्वारा किसानों पर गाड़ी चढ़ा देने के कारण कई किसान मारे गए। एक पत्रकार को भी मार डाला गया।
घटना स्थल पर किसानों ने गुस्से में बीजेपी कार्यकर्ताओं पर हमला कर दिया और उनमें से तीन पीट-पीटकर मार डाले गए। किसानों पर गाड़ी चढ़ाकर उन्हें कुचल देने में सत्ता का फूहड़ और सामंती अहंकार था, जो बीजेपी की विशेषता है।
भीड़ का न्याय
लेकिन घटना स्थल पर ही किसानों ने जिस तरह बीजेपी कार्यकर्ताओं को मार डाला जिन्हें वे अपने साथियों की हत्या में शामिल मानते थे, उससे यह मालूम हुआ कि तुरंत भीड़ द्वारा न्याय करने और सजा देने में उनका भी यकीन है। उस समय वे किसान आंदोलनकारी नहीं रह गए, भीड़ में तब्दील हो गए।
बीजेपी और सरकार जो साबित करना चाहते थे, और तकरीबन एक साल से वह यह नहीं कर पा रहे थे, वह इस एक हिंसा ने कर दिया। पूरी दुनिया में किसानों की हत्या की तीखी निंदा हुई। लेकिन जो लोग भीड़ द्वारा मार डाले गए थे, उनकी हत्या पर जिस तरह बात होनी चाहिए थी, नहीं हुई।
किसान मोर्चा की गलती
किसान नेताओं ने इन हत्याओं को उतना महत्व नहीं दिया। यह कहा गया कि ये प्रतिक्रिया में हुई हिंसा के कारण हुई मौतें हैं। मोर्चे ने इन हत्याओं की निंदा नहीं की। इनकी जांच की माँग भी नहीं की। इस मोर्चे ने यह पहली गलती की।
दूसरी गलती मोर्चे ने और प्रायः सभी राजनीतिक नेताओं ने भी की जब वे मारे गए किसानों के परिवार वालों से तो मिले लेकिन उन्होंने मारे गए 'बीजेपी समर्थकों' के परिजनों से मिलकर संवेदना प्रकट करना ज़रूरी नहीं समझा।
इससे उनकी नैतिक कमजोरी प्रकट हुई। यह कहने के बावजूद कि ये हत्याएँ किसानों की हत्या की तरह नहीं, वे इनसे खुद को और आंदोलन को अलग कर सकते थे। यह बतला सकते थे कि उनकी मानवीयता का दायरा बड़ा है। यह न करके उन्होंने छोटेपन का परिचय दिया। असंवेदनशीलता का भी।
योगेंद्र यादव ने इनमें से एक के घर जाकर संवेदना प्रकट की। यही उचित था। लेकिन अब यह स्वाभाविक नहीं रह गया था। इसमें दोनों पक्षों में संतुलन का मसला न था। हत्या से असहमति जताना भी था। जाहिर तौर पर यह मोर्चे का निर्णय नहीं था। मोर्चे में इस पर चर्चा हुई भी कि नहीं, यह खबर नहीं। लेकिन योगेंद्र यादव का कदम मानवीय था। उसकी सराहना की गई।
मृतक के परिवार से मिलने के लिए योगेंद्र यादव ने मोर्चे से अनुमति नहीं ली थी। उसे सूचित भी नहीं किया। लेकिन मिलने गए, इस बात को छिपाया नहीं। उसके बारे में लिखा भी।
मोर्चा चाहता तो इसे नज़रअंदाज कर सकता था। उसके बीच का एक व्यक्ति वह कर आया जो सामूहिक रूप से नैतिक दुर्बलता के कारण वे नहीं कर पाए, यह उनकी कमजोरी की थोड़ी भरपाई कर सकता था। लेकिन मोर्चे ने यह बतलाना ज़रूरी समझा कि योगेंद्र यादव के इस नितांत मानवीय कदम को वे मारे गए किसानों का अपमान मानते हैं।
मोर्चे का यह आरोप नितांत अतार्किक है। अगर बीजेपी समर्थक इन मृतकों ने किसानों की हत्या की भी हो या उसमें हिस्सा लिया हो तो भी उनकी हत्या को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता।
अहिंसा की ताक़त
किसान आंदोलन ने पिछले एक साल में उकसावों के बावजूद अहिंसा का दामन नहीं छोड़ा है। अहिंसा सिर्फ हिंसा न करने का नाम नहीं है। वह खुद को अपने से ताकतवर की हिंसा से बचाने की रणनीति भी नहीं है। वह न्याय के विचार के साथ ही मिलकर अहिंसा बनती है। न्याय का यह विचार कठिन है। अपने उद्देश्य को श्रेष्ठ मानकर उसके पक्ष में जो भी हो रहा हो, उसका समर्थन अहिंसा के विचार के विपरीत है।
बीजेपी के लोगों के द्वारा किसानों पर गाड़ी चढ़ाकर उन्हें मार डालने और उससे क्रुद्ध किसानों द्वारा की गई हत्याएँ भिन्न कोटि की हैं या नहीं, यह अदालत में तय होगा। लेकिन उसके पहले इन हत्याओं से मुँह मोड़ लेना न्याय की अवमानना है।
किसानों का यह आंदोलन ही न्याय के विचार की स्थापना के लिए है। वे कानूनों को अपने साथ अन्याय बतला रहे हैं। वे न्याय की किस धारणा के आधार पर इसे अन्याय कहेंगे? इसके लिए उनके न्याय का विचार निश्चय ही संख्याबल और बाहुबल के आधार पर किए जाने वाले न्याय की धारणा से अलग होगा या होना चाहिए।
जो एक जगह ताकतवर है और जिसके पास संख्या और बाहु का बल है, वह जो निर्णय करे, वह न्याय: इसी विचार से तो संघर्ष है। योगेंद्र यादव ने तो यह सारी बहस अभी शुरू नहीं की है। मृतक के परिवार के शोक में शामिल होना मानवीयता गढ़ने का प्राथमिक कदम है। मोर्चे ने इससे खुद को अलग करके अपना दावा कमजोर किया है।