केरल के सबरीमला स्थित भगवान अयप्पा मंदिर जाने के लिए 36 महिलाओं ने ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराया है। हालांकि ये रजिस्ट्रेशन सबरीमला में 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं के प्रवेश पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के पहले ही कराए गए थे।
बता दें, सुप्रीम कोर्ट के 5 सदस्यों के खंडपीठ ने गुरुवार को एक अहम फ़ैसले में यह मामला 7 सदस्यों के खंडपीठ को सौंप दिया है।
इसके साथ ही खंडपीठ ने सुप्रीम कोर्ट के 28 सितंबर, 2018 के फ़ैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है। यानी, जब तक इस प्रस्तावित खंडपीठ का फ़ैसला नहीं आ जाता, महिलाओं को सबरीमला मंदिर में प्रवेश करने से नहीं रोका जा सकता है।
भगवान अयप्पा के दर्शन के पिछले मौसम में 740 महिलाओंने सबरीमला जाने के लिए रजिस्ट्रेशन कराया था। इसके बाद पुलिस वाले उन महिलाओं के घर जाकर उनसे मिले और उन्हें मनाया कि वे न जाएं, क्योंकि इससे तनाव बढ़ सकता है।
केरल के मंदिरों की देखरेख के विभाग के मंत्री कडकमपल्ली सुरेंद्रन ने कहा है कि राज्य सरकार हमेशा से यह कहती रही है कि वह अदालत के आदेशों का पालन करेगी। उन्होंने कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों से कहा कि वे इस फ़ायदा का राजनीतिक फ़ायदा उठाने की कोशिश न करें।
साल 1965 के एक अधिनियम के मुताबिक़, 10 से 50 साल की महिलाओं का अयप्पा मंदिर में प्रवेश क़ानूनी रूप से वर्जित हो गया। सबरीमला मंदिर का रख रखाव त्रावणकोर देवसम बोर्ड करता है। यह सरकार के नियंत्रण में है।
यंग लॉयर्स एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर लैंगिक भेदभावका आरोप लगाते हुए इस रोक को हटाने की गुहार की। बाद में कई महिला संगठन भी इससे जुड़ गए।
त्रावणकोर देवसम बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा कि यह लैंगिक भेदभाव नहीं, आस्था का प्रश्न है। चूंकि माहवारी के दौरान शरीर अपवित्र रहता है, लिहाज़ा ऐसी महिलाओं के मंदिर में जाने से मंदिर की पवित्रता नष्ट होगी। महिलाओं के मंदिर प्रवेश का विरोध कर रहे लोगों ने बाद में अयप्पा के कुंवारे होने का तर्क भी दिया। अदालत ने साफ़ कहा कि यह मामला संविधान के उल्लंघन का मामला है। महिलाओं को सिर्फ़ महिला होनेे के कारण मंदिर में प्रवेश से रोकना लैंगिक भेदभाव का ही मामला है और इसलिए संविधान का उल्लंघन है। अदालत ने 1965 में बने क़ानून को रद्द कर महिलाओं के प्रवेश को रोकने को ही ग़ैरक़ानूनी क़रार दिया।