कश्मीर घाटी से 1990 के शुरुआती महीनों से ही जो कश्मीरी हिंदुओं यानी कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हुआ वह वर्षों तक जारी रहा। उस घटना के 32 साल बाद एक ही सवाल बार-बार गूंजता है कि इतने वर्षों के सरकारी आश्वासनों और चुनावी मुद्दे होने के बाद क्या वे वापस घाटी में फिर से बस पाए हैं? और यदि ऐसा हुआ है तो विस्थापित कश्मीरी पंडित अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन क्यों करते रहते हैं?
यह सवाल एक बार फिर से इसलिए सुर्खियों में है क्योंकि ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म विवादों में घिर गई है। जहाँ दक्षिणपंथी इस फिल्म को कश्मीरी पंडितों की पीड़ा व्यक्त करने वाला बता रहे हैं वहीं आलोचक कह रहे हैं कि इस फिल्म में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है। आलोचक यह भी सवाल उठा रहे हैं कि आखिर इस फ़िल्म में यह क्यों नहीं बताया गया है कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों की क्या स्थिति है।
कई विस्थापित कश्मीरी पंडित भी यही सवाल उठा रहे हैं कि न तो उनको कश्मीर घाटी में लौटने के लिए कुछ पर्याप्त उपाय हुए और न ही उनके पुनर्वास के लिए खास काम हुआ। वे दुर्दशा के शिकार रहे हैं।
कश्मीर घाटी से पलायन कर कश्मीरी पंडित रिफ्यूजी कैंप में चले गए हैं। उनमें से कुछ जो ज़्यादा कुलीन और पढ़े-लिखे थे वे देश के दूसरे हिस्सों में रोजगार पा चुके हैं और किसी तरह गुजारा कर रहे हैं लेकिन बड़ा हिस्सा अभी भी उन कैंपों में गरीबी में दिन बिता रहा है। ऐसे लोगों की संख्या कितनी है और क्या सरकार ने इनके लिए कुछ किया है?
इसी साल बजट सत्र के दौरान दिग्विजय सिंह ने सरकार से पूछा था कि 1990 से कश्मीर घाटी से कितने कश्मीरी पंडितों ने पलायन किया था? उन्होंने पूछा था कि अनुच्छेद 370 के बाद कितने परिवारों का पुनर्वास किया गया।
गृह मंत्रालय ने जम्मू कश्मीर सरकार के आँकड़े का हवाला देते हुए कहा था कि 44 हज़ार 684 कश्मीरी विस्थापित परिवार ‘राहत और पुनर्वास आयुक्त (विस्थापित) जम्मू’ के कार्यालय में पंजीकृत हैं। कुल मिलाकर इन परिवारों के 1 लाख 54 हज़ार 712 लोग हैं।
वैसे, सरकार ने 2019 में दावा किया था कि अनुच्छेद 370 ख़त्म होने के बाद ऐसा माहौल हो जाएगा कि सभी कश्मीरी पंडित वापस घाटी में लौट जाएँगे। क़रीब 27 वर्षों के बाद 2019 में अनुच्छेद 370 में संशोधन के साथ कुछ उम्मीद बंधी थी। मोदी सरकार द्वारा कई प्रशासनिक निर्णय लिए गए जिसने कश्मीरी हिंदुओं, विशेषकर कश्मीरी पंडितों में घर लौटने की अधिक उम्मीद जगाई। लेकिन क्या वे उम्मीदें पूरी हुईं?
अनुच्छेद 370 को हटे हुए ढाई साल से ज़्यादा हो गए हैं लेकिन कश्मीरी पंडितों की हालत नहीं सुधरी है। उनको कश्मीर में लौटने के लिए ज़रूरी भरोसा भी पैदा नहीं हुआ है। यही वजह है कि इस मामले में हालात निराशाजनक बने हुए हैं।
हालाँकि, सरकार कुछ कश्मीरी पंडितों के वापस घाटी लौटने का दावा करती है। 17 मार्च 2021 को राज्यसभा में गृह मंत्रालय ने बताया था कि पिछले कुछ सालों में सरकारी नौकरियों के लिए 3,800 कश्मीरी प्रवासी घाटी वापस लौटे हैं। वहीं इस साल एक जवाब में सरकार ने कहा था कि जम्मू एवं कश्मीर सरकार ने 5 अगस्त 2019 से 1697 ऐसे व्यक्तियों को नियुक्ति प्रदान की है और इस संबंध में अतिरिक्त 1140 व्यक्तियों का चयन किया गया है।
हालाँकि, इन कश्मीरी पंडितों के लिए कई राहत पैकजों की घोषणा की गई। कांग्रेस की सरकार में भी और बीजेपी की सरकार में भी। मोदी सरकार ने फरवरी 2022 में राज्यसभा में कहा था कि अब तक 1 हज़ार 739 प्रवासियों को नौकरी दी जा चुकी है। 2008 में मनमोहन सरकार ने भी ऐसे ही नौकरियों के लिए पैकेज जारी किया था। आवास के लिए भी सरकारों ने ऐसे पैकजों की घोषणा की थी। इसके अलावा आर्थिक मदद भी दी जाती है। लेकिन लगता है यह बेहद नाकाफी है।
डेढ़ लाख विस्थापितों में से सिर्फ़ कुछ हज़ार लोगों को ही नौकरी देने के दावे किए गए हैं। दूसरी घोषणाएँ भी पंडितों को घाटी में लौटने के लिए आश्वस्त नहीं कर पाई हैं।
यह नाकाफी इसलिए भी है कि अब भी जो घाटी में कुछ गिने-चुने रह रहे हैं उनमें से कुछ घाटी छोड़ने की बात कहते हैं, ऐसी मीडिया रिपोर्टें आती रहती हैं। बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार घाटी के एक बाशिंदे संदीप कौल कहते हैं, 'घाटी में रह रहे कश्मीरी पंडितों के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है। सरकारें यहां के पंडितों के लिए कुछ नहीं करतीं।' 30 साल के संदीप कहते हैं कि वो कुछ और दिन सरकारी नौकरी का इंतज़ार करेंगे नहीं तो रोज़गार की तलाश में वो भी कश्मीर छोड़ सकते हैं। वो कहते हैं, 'उम्र हो रही है हमें भी रोज़गार के लिए कहीं जाना होगा, यहाँ बहुत ज़्यादा नौकरियों के मौके नहीं हैं।
जानकार कहते हैं कि अभी भी पुनर्वास के लिए काफ़ी कुछ किया जाना बाक़ी है। सरकारों ने इसे सही तरह से नहीं किया। इसके लिए राहत पैकजों की घोषणा तो की ही जानी चाहिए, साथ में जब तक सौहार्दपूर्ण वातावरण नहीं बनता है, पंडितों के कश्मीर घाटी लौटना दूर की कौड़ी ही साबित होगा। सौहार्दपूर्ण वातावरण के लिए ज़रूरी है कि सभी कश्मीरियों को विश्वास में लिया जाए, उनको बातचीत की टेबल पर लाया जाए। लेकिन क्या बीजेपी सरकार यह सब कर पाएगी? क्या पिछले ढाई सालों के अनुभव से ऐसा होता हुआ कुछ दिख रहा है?