झारखंड: जल-जंगल-ज़मीन या कश्मीर के मुद्दे पर होगा चुनाव?

02:25 pm Jan 23, 2020 | प्रमोद मल्लिक - सत्य हिन्दी

कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने सिमडेगा में चुनाव सभा में कहा कि छोटानागपुर टीनेंसी एक्ट और संथाल परगना टीनेंसी एक्ट में किसी तरह का बदलाव नहीं होने दिया जाएगा। इसके साथ ही यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या झारखंड विधानसभा चुनाव में जल-ज़मीन-जंगल से जुड़े स्थानीय मुद्दे, जो आदिवासियों को जोड़ते हैं और अंदर से आंदोलित व आक्रोशित भी करते हैं, वोटिंग पैटर्न को प्रभावित करेंगे।

क्या पत्थलगढ़ी आन्दोलन की यादें ताज़ा हो जाएंगी ये सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि बीजेपी ने यहाँ भी कश्मीर और एनआरसी जैसे मुद्दे उछाले हैं। क्या झारखंड की जनता कश्मीर पर वोट करेगी या जंगल-ज़मीन पर ध्यान देगी, यह तय होना है। 

क्या था पत्थलगड़ी आन्दोलन

साल 2018 में झारखंड के कुछ इलाक़ों में शुरू हुए आन्दोलन का स्वरूप यह था कि हर गाँव की सीमा पर लोगों ने पत्थर के बड़े टुकड़े गाड़ दिए (इसलिए नाम पड़ा पत्थलगड़ी) और उन पर पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरियाज़ एक्ट (पीईएसए), 1996 के तहत आदिवासी इलाक़ों की पंचायतों को दिए गए अधिकारों की कुछ बातें लिख दीं। गाँव के लोगों का यह कहना था कि बाहर के लोगों, ख़ास कर केंद्र सरकार के कर्मचारियों को गाँव में नहीं घुसने दिया जाएगा। 

साल 1996 में संसद से पारित इस नियम में यह प्रावधान किया गया है कि अनुसूचित जनजातियों के इलाक़ों के गाँवों में स्वशासन (सेल्फ़ रूल) की व्यवस्था हो और इसके तहत उन पंचायतों को विशेष अधिकार मिलें। इसे गाँव गणराज्य कहा गया।

संविधान के अंदर संविधान!

यह ‘संविधान के अंदर संविधान’ की व्यवस्था है। इस दो स्तरीय स्वसाशन की विशेषता यह थी कि आदिवासियों की अपनी सांस्कृतिक परंपराओं और नियमों का पालन भी हो और सरकारी शासन भी हो। इसकी खूबी यह है कि संविधान के अनुकूल है क्योंकि इसे संसद से पारित किया गया है। 

इसके तहत सबसे पहला आन्दोलन राजस्थान में 1998 में हुआ था, जब डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापपुर और सिरोही ज़िलों के गाँवों में लोगों ने 350 जगहों पर पत्थर लगा कर सरकारी कर्मचारियों को गाँव में घुसने से मना कर दिया।  

झारखंड में पत्थलगड़ी आन्दोलन

राजधानी राँची से 100 किलोमीटर दूर खूंटी ज़िले के 30 गाँवों के हज़ारों लोग 4 मार्च 2018 को सड़कों पर उतर आए। उन्होंने अपने-अपने गाँवों में पत्थर गाड़ दिए, एलान कर दिया कि वे सरकार को कर नहीं चुकाएंगे, सरकारी स्कूलों में बच्चों को नहीं भेजेंगे, चुनाव में भाग नहीं लेंगे और सरकारी कर्मचारियों को गाँव में नहीं घुसने देंगे। जो ग़ैर-आदिवासी इन गाँवों में घुसेंगे, उन्हें कर चुकाना होगा। यह आन्दोलन 60 गाँवों तक फैल गया और इन गाँवों के लोगों ने पूरे इलाक़े को 'स्वायत्त' घोषित कर दिया।

आरएसएस की भूमिका

सरकार ने तो इस आन्दोलन को कुचला था ही, सबसे दिलचस्प बात यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े आदिवासी संगठन इसके ख़िलाफ सक्रिय हो गए। उन्होंने इसे नक्सली आन्दोलन, पाकिस्तान और ईसाई मिशनरियों के कथित धर्म परिवर्तन से जोड़ दिया।

जुलाई 2018 में ईसाई मिशनरी से जुड़े ग़ैर-सरकारी संगठन की नुक्कड़ नाटक करने वाली 5 आदिवासी महिलाओं का अपहरण कर लिया गया उनके साथ कथित तौर पर बलात्कार किया गया। इस पर पूरा झारखंड उबल पड़ा।

जल-ज़मीन-जंगल या कश्मीर-एनआरसी

ये बातें इस चुनाव में एक बार फिर उठ रही हैं क्योंकि आदिवासी जल-ज़मीन-जंगल की सुरक्षा के लिए ही ‘पेसा’ लागू करने की माँग कर रहे थे। इन चुनावों में फिर जल-ज़मीन-जंगल की बातें उठ रही हैं।

लेकिन बीजेपी इस चुनाव में भी कश्मीर और एनआरसी के मुद्दे को उठाई हुई है, जिनसे इन इलाक़ों के आदिवासी सीधे तौर पर जुड़े हुए नहीं है। झारखंड में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जमकर चुनावी रैलियाँ कर रहे हैं। बीजेपी ने एक बार फिर जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने को मुद्दा बनाया है। 

अमित शाह अपनी हर चुनावी रैली में यह बात ज़रूर दोहराते हैं कि केंद्र की मोदी सरकार पूरे देश में एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन) लागू करेगी और घुसपैठियों को चुन-चुन कर बाहर करेगी।

इसके अलावा शाह अपनी रैलियों में राम मंदिर मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का जिक्र भी करते हैं और यह बताने की कोशिश करते हैं कि उनकी सरकार ने इस मुद्दे पर जल्द सुनवाई की कोशिश की और तभी कोर्ट का फ़ैसला आ सका।

दूसरे चरण की 6 सीटों पर सवाल

विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण में कम से कम चार ऐसी सीटें हैं, जो सीधे तौर पर पत्थलगड़ी आन्दोलन से जुड़े हुए हैं। ये हैं, खूंटी, तोरपा, कोलेबीरा और सिमडेगा। सिर्फ़ खूंटी-तोरपा में ही लगभग 150 गाँव हैं, जो मुंडा-बहुल हैं। बिरसा मुंडा के आन्दोलन का यह केंद्र था और 1950 में झारखंड पार्टी की स्थापना करने वाले जयपाल सिंह भी यहीं के थे। 

पत्थलगड़ी आन्दोलन का विरोध करने वाले झारखंड बीजेपी के अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ लोकसभा चुनाव हार गए थे, वे इस बार चक्रधरपुर से किस्मत आज़मा रहे हैं।

इस आन्दोलन का विरोध करने वाले कांग्रेस के कालीचरण मुंडा भी पिछला लोकसभा चुनाव हार गए थे। उनके भाई नीलकांत मुंडा खूंटी से विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। कोलेबीरा और सिमडेगा में भी यह मुद्दा ज़ोरों पर है। इसी तरह सरायकेला और खरसाँवा में भी पत्थलगड़ी आन्दोलन की यादें लोगों को ताजा हैं। 

बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस पार्टी भी इस पत्थलगड़ी आन्दोलन से आगे निकल चुकी है और वह इसे भूल जाना चाहती है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि राहुल गाँधी का यह कहना कि छोटानागपुर टीनेंसी एक्ट और संथाल परगना टीनेंसी एक्ट में बदलाव नहीं होने दिया जाएगा, इस आन्दोलन से जुड़े लोगों को शांत करने की कोशिश भर है। 

बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व अभी भी कश्मीर, अनुच्छेद 370, एनआरसी और राम मंदिर के मुद्दे उठाए हुए है। ये मुद्दे नहीं चल पाएंगे, इस आशंका से उसके स्थानीय नेता इन मुद्दों पर ज़ोर देने के बजाय टॉयलेट बनवाने और गैस कनेक्शन देने की बात ज़्यादा जोर से उठा रहे हैं।  यह साफ़ है कि पत्थलगड़ी आन्दोलन की बातें लोगों ने भूली नहीं हैं, पर उसका चुनाव पर क्या और कितना असर पड़ेगा, यह देखना बाकी है।