खलक ख़ुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का...
हर ख़ासो-आम को आगाह किया जाता है
कि ख़बरदार रहें और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से कुंडी चढ़ाकर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज़ में सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!
शहर का हर बशर वाक़िफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाय!
‘मुनादी’ शीर्षक से लिखी गयी धर्मवीर भारती की यह कविता आज की नहीं है। यह देश में घोषित आपातकाल के दौर में लिखी गयी थी। और आज की परिस्थितियों के हिसाब देखा जाय तो बहुत कुछ वैसा ही है। 70 के दशक में सत्ताई तानाशाही के ख़िलाफ़ संघर्ष का बिगुल फूंकने सड़क पर उतरे जय प्रकाश नारायण और उनके समर्थकों पर हुए लाठी चार्ज से आहत होकर यह कविता निकली।
सत्ताई तानाशाही और सार्वजनिक जीवन के कदाचरण के विरुद्ध जेपी ने समग्र क्रांति का बिगुल फूंका था। उन्होंने नवनिर्माण आंदोलन की बात कही और देश की जनता ने इंदिरा गाँधी की सत्ता को उखाड़ फेंका। देश ने एक वैकल्पिक सरकार भी देखी लेकिन फिर वही पुराना ढर्रा। और आज फिर वही परिस्थितियां नज़र आ रही हैं। क्या देश आज फिर से सत्ताई तानाशाही के दौर से गुजर रहा है
जिस तरह से आज अलग विचार रखने वालों को सीधा देशद्रोही क़रार दिया जा रहा है। सोशल मीडिया और गोदी मीडिया के माध्यम से उनपर हमले किये जा रहे हैं, ट्रोल किया जा रहा है, उसे देखकर कहीं ना कहीं ऐसा विचार आना संभव ही है। खानपान और वेश भूषा के नाम पर बंटवारे की जो नयी रेखाएं खींची जा रही हैं, सरकारों द्वारा उसे मिटाने का काम नहीं करना क्या संकेत देता है
विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों द्वारा अपनी मांगों के लिए आवाज उठाने पर उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह जैसे संगीन आरोप लगाया जाना किस बात की तरफ़ इशारा करता है
दशहरे पर अपने भाषण में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत कहते हैं कि मॉब लिंचिंग (भीड़ द्वारा किसी व्यक्ति को घेर कर मारने) की परंपरा हिन्दू धर्म की नहीं है भारत के इतिहास में इस तरह की घटनाओं का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है।
भागवत का यह बयान पूर्णतः सही है! लेकिन भारत के इतिहास में इस प्रकार की मॉब लिन्चिंग क्यों नहीं होती थी, इस बात के कारण भी तलाशे जाने चाहिए। यदि बात भारतीय संस्कृति और इसके इतिहास की हो रही है तो इस बात का उल्लेख भी होना चाहिए कि हमारे देश में वैदिक और अवैदिक दोनों परम्पराएं या संस्कृति साथ-साथ चली हैं। इन दोनों के मानने वाले हिन्दू ही थे। भारत में तब भी हिन्दू थे और आज भी हिन्दू हैं।
हिन्दू धर्म की यह विशेषता रही है कि वह किसी एक पुस्तक द्वारा निर्धारित या संचालित नहीं रहा। यहां वेद, पुराण, उपनिषद के बाद रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवद गीता जैसी अनेकों पुस्तकों का आधार है।
शास्त्रार्थ हिन्दू धर्म और संस्कृति का हिस्सा रहा है और चार्वाक जैसे अलग विचार रखने वाले को दार्शनिक तथा कबीर जैसे पाखण्ड और रूढ़िवाद का विरोध करने वाले को संत कहा गया। लेकिन क्या यह आज के दौर में सहनीय है
सत्ता को विरोध पसंद नहीं है! सत्तर के दशक में भी वही हुआ था और आज भी स्थितियां कमोबेश वैसी ही नजर आती हैं। सरकार भ्रष्टाचार को रोकने से ज्यादा उसकी जानकारी हासिल करने वाले क़ानून के पर कतरने के काम करती नज़र आती है। विरोध की बात करने वाले चाहे राजनीतिक दलों के नेता हों या सामाजिक कार्यकर्ता या बुद्धिजीवी वर्ग से हों, इनके विचार आज सत्ता को पसंद नहीं है। सोशल मीडिया नामक नयी तकनीक से इनके विचारों पर अंकुश लगाने का काम भी बखूबी चल रहा है।
विकास के अपने पैमाने निर्धारित करने या उसके लाभ देश की जनता को पहुंचाने के बजाय उन लोगों को कठघरे में खड़ा कर सवाल करने की कोशिश की जा रही है जिन्होंने इस देश में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव रखी।
आज गाँधी-नेहरू के सफल प्रयोगों पर चर्चाएं नहीं की जा रही हैं अपितु उनके पुतले को सार्वजनिक मंच पर ले जाकर गोली मारी जा रही है। और गोली मारने वाले किसी ना किसी रूप में सत्ताधारी दल के नज़दीक दिखते हैं और एक अंतराल तक वे क़ानून के शिकंजे से बाहर रहते हैं।
मॉब लिन्चिंग के आरोपियों का यदि सरकार और सत्ता से जुड़ा कोई मंत्री या पदाधिकारी सम्मान करता है तो उससे क्या संकेत जाते हैं
ऐसे माहौल में क्या फिर से कोई जे.पी. (लोकनायक) आएगा यह बड़ा सवाल है और इसके उत्तर भी अलग-अलग हो सकते हैं। पहला सवाल तो यही है कि क्या हमारे देश में सत्ता तानाशाह बन गयी है
सड़क पर क्यों नहीं उतरती जनता
पिछले कुछ वर्षों में मीडिया और चर्चाओं में या विपक्ष के नेताओं की जुबान से बार-बार यह बात सुनने को मिली है कि देश में अघोषित आपातकाल लागू है! यदि, हाँ, तो देश की जनता वैसा विरोध करने सड़क पर क्यों नहीं उतरती जैसे वह 1975 -77 के दौरान उतरी थी या फिर यह अघोषित आपातकाल राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व का मुखौटा पहने हुए घूम रहा है जिसे लोग पहचान नहीं पा रहे हैं
जय प्रकाश नारायण ने उस दौर के आपातकाल को पहचान लिया था, क्योंकि वह घोषित था। हमारे देश की कम शिक्षित जनता ने ब्रितानी दासता को भी बहुत ही स्पष्ट रूप से पहचान लिया था क्योंकि वह साफ़ दिखाई देती थी। लेकिन आज शिक्षित, उच्च शिक्षित तथा तमाम अत्याधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी के साधनों से सम्पन्न लोग इस बात को समझने में विफल हो रहे हैं कि कैसे देश क्रोनी कैपटलिज्म की दासता के शिकंजे में फंसता जा रहा है।
जेपी ने उस सत्ताई तानाशाही से लड़ने के लिए उस कांग्रेस के ख़िलाफ़ आवाज उठाई थी जिसे गाँधी-नेहरू और पटेल छोड़कर गए थे। जेपी ने इन नेताओं के साथ काम भी किया था और अपनी बेटी जैसी प्रिय इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ इसलिए आवाज बुलंद की थी क्योंकि उसके साथ उनके मतभेद असल में व्यवस्थागत थे।
शासन में भ्रष्ट आचरण को लेकर जेपी यह मानते थे कि देश की जनता के साथ छलावा किया जा रहा है, जिस उद्देश्य से गाँधी और अन्य नेताओं ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी उसे इंदिरा और कांग्रेस ने महज सत्ता तक सीमित करके रख दिया है। गाँधी जिस कांग्रेस को सेवा संघ में बदलने की बात कर रहे थे उसे इंदिरा ने परिवार की विचारशून्य पैदल सेना बना दिया।
लोकनायक के नाम से प्रसिद्ध जेपी के नवनिर्माण आंदोलन ने इंदिरा गाँधी की सत्ता को उखाड़ा और देश ने एक वैकल्पिक सरकार भी देखी लेकिन यह एक असफल विकल्प साबित हुआ। जेपी का आंदोलन सिर्फ़ सत्ता परिवर्तन का हथियार ही साबित होकर रह गया। जिस सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक क्रांति का जेपी ने आह्वान किया था वह आज भारत में कहीं नज़र नहीं आता।
गाँधी के विचारों का जो हश्र कांग्रेस की मौजूदा पीढ़ियों ने किया है, वही मजाक जेपी और समाजवादी आंदोलन के लोहिया, नरेंद्र देव, बिनोवा, अच्युत पटवर्द्धन, अशोक मेहता, मीनू मसानी, जनेश्वर मिश्र जैसे नेताओं के साथ उनके काफिले में चलने वाले समाजवादी नेताओं ने किया।
आज लालू यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, हुकुमदेव यादव, सुशील मोदी, रविशंकर प्रसाद, मुलायम सिंह, विजय गोयल, आज़म ख़ान, रामविलास पासवान, रेवती रमण सिंह, केसी त्यागी, स्व. अरुण जेटली, स्व. सुषमा स्वराज, स्व. बीजू पटनायक, स्व. चरण सिंह से लेकर उतर भारत और पश्चिमी भारत के सभी राज्यों में जेपी आंदोलन के नेताओं की 60 प्लस पीढ़ी सक्रिय है। इनमें से अधिकतर केंद्र और राज्यों की सरकारों में महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं।
लालू यादव, नीतीश कुमार, रामविलास, मुलायम सिंह के रूप में जेपी के चेले सिर्फ़ इस बात की गवाही देते हैं कि राजनीतिक क्रांति तो हुई लेकिन सिर्फ़ मुख्यमंत्री और दूसरे मंत्री पदों तक।
जेपी और लोहिया का नारा लगाकर यूपी, बिहार, ओडिशा, गुजरात, कर्नाटक आदि राज्यों के मुख्यमंत्री बने नेताओं ने भारत के भीतर उस व्यवस्था परिवर्तन के लिये क्या किया है जिसके लिए सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा और अपरिहार्यता को जेपी ने अपने त्याग और पुरुषार्थ से प्रतिपादित किया था। इनमें से अधिकाँश तो उसी व्यवस्था के साथ कदम ताल करते नज़र आते हैं जिसे जेपी ने सत्ताई तानाशाही कहा था और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी जिसके बारे में लिखा था -
‘‘क्षमा करो बापू तुम हमको
वचनभंग के हम अपराधी
राजघाट को किया अपावन,
भूले मंजिल यात्रा आधी।
जयप्रकाश जी रखो भरोसा
टूटे सपनों को जोड़ेंगे
चिता भस्म की चिंगारी से
अंधकार के गढ़ तोड़ेंगे।’’
टूटते विश्वास के इस तिमिर में आशा कीजिए कि अटल जी की बात सच साबित हो। भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिए जेपी की समग्र क्रांति और गाँधी दोनों की आज भी सामयिक आवश्यकता है।