कश्मीर के सवाल पर इधर कुछ अच्छी घटनाएँ हो रही हैं। शेख अब्दुल्ला के बेटे और कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री डाॅ. फ़ारूक़ अब्दुल्ला की नज़रबंदी से रिहाई और जम्मू-कश्मीर की अपनी पार्टी के नेताओं की नरेंद्र मोदी और अमित शाह से हुई भेंटों से एक नए अध्याय का सूत्रपात हो रहा है। फ़ारूक़ अब्दुल्ला के अलावा भी कई कश्मीरी नेताओं को अब तक रिहा किया गया है लेकिन उनकी रिहाई का ख़ास महत्व है। तीन गिरफ़्तार पूर्व मुख्यमंत्रियों में वह सबसे वरिष्ठ हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल में भारत के प्रति गहरी निष्ठा का प्रमाण दिया था। वह आतंकवादियों के प्रति भी काफ़ी सख़्त रहे थे। इसके अलावा अपने राज्य के विकास में उनका योगदान उल्लेखनीय रहा है।
उनकी रिहाई को लेकर एक निराधार अफ़वाह यह भी चल रही है कि उनके दामाद और राजस्थान कांग्रेस के नेता सचिन पायलट को बीजेपी तोड़ने पर आमादा है। राजस्थान की सरकार को वह मध्य प्रदेश की सरकार की तरह डाँवाडोल करना चाहती है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि फ़ारूक़ की रिहाई से अब सरकार का कश्मीरियों से सीधा संवाद हो सकेगा। फ़ारूक़ ने रिहा होने के बाद कोई भी उत्तेजक बयान नहीं दिया है, बल्कि उन्होंने सभी कश्मीरी नेताओं को रिहा करने की माँग की है ताकि कश्मीर के पूर्ण विलय पर सबके बीच सार्थक संवाद हो सके।
यह संवाद जम्मू-कश्मीर की अपनी पार्टी ने शुरू भी कर दिया है। उसके प्रतिनिधि मंडल ने पहले प्रधानमंत्री और अब गृह मंत्री के साथ लंबी बातचीत की है। दोनों नेताओं ने उन्हें आश्वस्त किया है कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा शीघ्र ही बहाल किया जाएगा और अगले चार साल में जम्मू-कश्मीर को पिछले 70 साल में मिले 1300 करोड़ रुपये से तीन गुने ज़्यादा रुपए मिलेंगे।
दोनों नेताओं ने यह कथन भी दोहराया कि जम्मू-कश्मीर में नौकरियों और ज़मीन पर बाहरी लोगों का क़ब्ज़ा नहीं होने दिया जाएगा। पिछले सात माह से चले आ रहे प्रतिबंधों में अब काफ़ी छूट शुरू हो गई है। मेरा ख़ुद यह ख्याल है कि यदि ये प्रतिबंध नहीं लगाए जाते तो पता नहीं कश्मीर में कितनी हिंसा और प्रतिहिंसा होती। बेहतर हो कि डाॅ. फ़ारूक़ अब्दुल्ला की तरह अन्य नेताओं को भी शीघ्र रिहा किया जाए और उनके साथ सार्थक संवाद शुरू किया जाए।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)