तिहाड़ जेल में बंद 27 वर्षीय कश्मीरी महिला सफूरा ज़रगर का मामला देश में लोकतंत्र और राज्य संस्थानों के पूर्णतः पतन का प्रतीक है। यह फ्रांस में उन्नीसवीं सदी के कुख्यात ‘ड्रेफस’ मामले की याद दिलाता है, जिसके लिए प्रसिद्ध लेखक एमिल ज़ोला ने एक विशिष्ट शब्द का उपयोग किया था जो उनके इस लेख का शीर्षक भी है। सफूरा को ऐसे समय में जेल भेजा गया है, जब वह गर्भवती हैं। सफूरा जामिया को-ऑर्डिनेशन कमेटी की मीडिया को-ऑर्डिनेटर हैं।
इस महिला का ‘अपराध’ (यदि ऐसा मान भी लिया जाये) केवल यह है कि वह नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध कर रही थी और इसी कारण पुलिस ने उसके ख़िलाफ़ झूठे साक्ष्य बनाकर, उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे भड़काने का झूठा आरोप लगाया और ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे भयावह क़ानून के तहत हिरासत में ले लिया।
पुलिस द्वारा पहले भी निर्दोष लोगों को गिरफ्तार करने और उनके ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर करने के लिए अक्सर झूठे साक्ष्य गढ़े जाते थे, लेकिन अब यह बहुत बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।
दिल्ली पुलिस, कई दूसरे राज्यों की पुलिस की तरह, ‘बंदी-तोता’ (caged-parrot) जैसा कि पूर्व चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया (सीजेआई) आर.एम.लोढ़ा ने सीबीआई के बारे में कहा था, जैसी बन गयी है। लेकिन न्यायपालिका, जिसे संविधान और नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए बनाया गया था, क्या वह अपना दायित्व निभा रही है