मृत्यु जीवन को खाती है लेकिन ‘असमानता’ पीढ़ियों को खाने का काम करती है। जो सरकार असमानता रोक पाने में असफल रहती है वो धीरे-धीरे एक राष्ट्र को खत्म करती जाती है। वहाँ अगर कुछ बचता है तो कुछ अमीरों की ऊँची ‘चौकियाँ’ जहां से बैठकर वो सिर्फ़ सैकड़ों मील तक फैला सन्नाटा देख पाते हैं, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। यदि विक्टोरिया वुडहुल के शब्दों में समझें तो “यह संघर्षरत जनता ही है जो देश की नींव है; और यदि नींव सड़ी हुई या असुरक्षित है, तो बाकी संरचना अंततः ढह जाएगी।” विक्टोरिया 1872 में संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने वाली पहली महिला थीं।
हाल में जारी कुछ आँकड़े भारत की कमजोर नींव की ओर संकेत कर रहे हैं। 26 मार्च को ‘हुरुन रिसर्च इंस्टिट्यूट’ ने वैश्विक धनपतियों की सूची-2024 (ग्लोबल रिच लिस्ट) जारी की। यह सूची बताती है कि इस समय भारत में 271 अरबपति हैं। इनमें से 94 नाम 2023 में ही जुड़े हैं। मतलब यह हुआ कि भारत में जितने भी अरबपति हैं उनमें से लगभग एक तिहाई सिर्फ़ एक साल में ही बढ़ गये हैं। यह भी जानकर आश्चर्य होना चाहिए कि भारत ने 2023 में अमेरिका को छोड़कर दुनिया में सबसे ज़्यादा अरबपति पैदा किए हैं।
यह आँकड़ा पढ़कर ऐसा लगेगा मानो भारत फिर से स्वर्णकाल से गुजर रहा हो, मानो भारत विकास की जीती जागती मिसाल बनकर उभरा हो। लेकिन दुर्भाग्य से यह सच नहीं है। मोदी सरकार की नीतियों से हर साल बढ़ रही अरबपतियों की संख्या अपने साथ एक क़ीमत वसूल रही है। यह क़ीमत भारत के आम नागरिकों को चुकानी पड़ रही है। भारत के आम लोग क्या क़ीमत चुका रहे हैं इसके लिए पेरिस स्थित प्रतिष्ठित ‘वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब रिपोर्ट’ के लेखकों द्वारा भारत की असमानता की स्थिति को कुछ इन शब्दों में समेटा गया है- “भारत का वर्तमान अरबपति-राज जोकि पूँजीपतियों के नेतृत्व में चल रहा है, उपनिवेशवादी ताक़तों के नेतृत्व वाले ब्रिटिश राज की तुलना में अधिक असमान है।"
थॉमस पिकेटी जैसे सम्मानित और विद्वान फ़्रांसीसी अर्थशास्त्री के नेतृत्व वाली इस असमानता रिपोर्ट में वर्तमान भारत में असमानता के स्तर को ब्रिटिशकाल के समय रही असमानता से भी बदतर बताया गया है। अंग्रेज, जो भारत की जनता के प्रति ज़िम्मेदार नहीं थे, अंग्रेज जिन्हें भारतीयों ने चुनकर संसद में नहीं भेजा था, अंग्रेज जिन्होंने अपना ध्यान सिर्फ़ ब्रिटिश ख़ज़ानों को भरने में लगाया, अंग्रेज जिन्होंने भारत को अप्रत्याशित तरीक़े से लूट का अड्डा बनाकर रख दिया था। ऐसे ब्रिटिशकाल से आज की चुनी हुई सरकार की तुलना भारतीय लोकतंत्र में प्रतिनिधियों को चुने जाने के तौर तरीकों और उनकी ज़िम्मेदारी पर प्रश्नचिन्ह लगती है।
भारत की अर्थव्यवस्था वर्तमान में 3 ट्रिलियन डॉलर से कुछ ही ज़्यादा है। जबकि देश के सिर्फ 271 लोगों की ही कुल संपत्ति एक ट्रिलियन डॉलर से अधिक हो चुकी है(रिपोर्ट)। यह तथ्य इस बात की ओर ध्यान आकर्षित कर रहा है कि भारत की संपत्ति का ज़बरदस्त केंद्रीकरण किया जा रहा है। चंद उद्योगपतियों के हाथ में भारत की संपत्ति लुटाई जा रही है। यह तब और भी डरावना हो जाता है जब बारक्ले रिसर्च दावा करता है कि वर्ष 2027 तक भारत, जापान और जर्मनी की अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ देगा। मतलब साफ़ है कि भारत में पैसा आ रहा है अर्थात भारत की कुल आय में वृद्धि हो रही है, लेकिन भारत के 140 करोड़ लोगों को अपना परिवार बताने वाले नरेंद्र मोदी भारत की समृद्धि में उन्हें भागीदार नहीं बनाना चाहते हैं। मोदी तो 80 करोड़ भारतीयों को बार-बार यह बताना नहीं भूलते कि उनकी सरकार मुफ़्त में राशन दे रही है। असमानता कैसे नहीं होगी, जब 80 करोड़ लोगों को 5 किलो अनाज दिया जाना ही ‘बहुत’ समझा जा रहा है और दूसरी तरफ एक आदमी को अरबों-खरबों आमदनी वाले देश के सभी महत्वपूर्ण बंदरगाह (14) दिये जा रहे हैं, महत्वपूर्ण एयरपोर्ट दिये जा रहे हैं और हर उस क्षेत्र में प्राथमिकता दी जा रही है जहां भी केंद्र सरकार का दखल है।
भारत चंद उद्योगपतियों के लिए तो स्वर्ग बनता जा रहा है लेकिन बाक़ी की जनता के लिए क़ब्रगाह! सरकार को सिर्फ़ गिनेचुने लोगों की फ़िक्र है और सत्ता में बने रहने का नशा सर चढ़कर बोल रहा है। यह बात रिपोर्ट में भी इंगित की गई है।
रिपोर्ट में यह पाया गया कि 2014 में सत्ता में आयी नरेंद्र मोदी सरकार के बाद से असमानता में भीषण वृद्धि हुई है। 1922 से 2023 के बीच के 100 वर्षों के मैराथन आँकड़ों को जाँचने वाली यह रिपोर्ट निडर होकर इस बात का खुलासा करती है कि भारत में पिछला दशक केंद्रीकरण का दशक रहा है जिसमें "निर्णय लेने की शक्ति के केंद्रीकरण के साथ एक सत्तावादी सरकार" का जन्म हुआ है। इसके साथ ही मोदी सरकार के दौरान बड़े व्यवसाय और सरकार के बीच सांठगांठ बहुत बढ़ गई है जिसने समाज और सरकार पर असंगत और ग़ैर-अनुपातिक और नकारात्मक प्रभाव को बढ़ावा दिया है। नरेंद्र मोदी सरकार और उद्योगपतियों के बीच साँठ-गाँठ के आँकड़े भी अब सामने आने लगे हैं। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय के बाद मोदी सरकार द्वारा 2017 में लायी गई इलेक्टोरल बॉण्ड स्कीम को अब असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है, क्योंकि यह स्कीम भारत के संवैधानिक ढाँचे में फिट नहीं बैठती, कारण यह है कि यह नागरिकों से उनके ‘सूचना के अधिकार’ को छीनना चाहती थी। जबसे इलेक्टोरल बॉण्ड को लेकर खुलासे हुए हैं तब यह भी पता चल गया कि मोदी सरकार आख़िर क्यों नागरिकों को बॉण्ड की जानकारी नहीं देना चाहती थी। इलेक्टोरल बॉन्ड में दवा कंपनियों द्वारा दिया गया दान और इन कंपनियों की दवाओं का ट्रायल में फेल होना आपस में जुड़ा हुआ महसूस होता है। भारत के नागरिकों के स्वास्थ्य को दांव पर लगाकर दवा कंपनियों से पैसा लिए जाने का शक गहराता जा रहा है। यदि सरकार पाक-साफ़ है तो उसे उन दवाओं और उनके आँकड़ों को पब्लिक डोमेन में जारी करना चाहिए जो ट्रायल में असफल हो गयी थीं। साथ ही इस बात का भी प्रमाणपत्र चस्पा करना चाहिए कि ट्रायल में फेल हुई दवाएँ बाज़ार में लॉंच नहीं की गई हैं। मुझे नहीं लगता सरकार ऐसा कुछ करने वाली है, क्योंकि उसे भारत के नागरिकों की कोई फ़िक्र नहीं है। सरकार को भारत की बहुसंख्य आबादी के न स्वास्थ्य की फ़िक्र है और न ही शिक्षा व रोज़गार की! सरकार को तो बस 1% धनपतियों की ही फ़िक्र है।
मोदी सरकार को भारत की जनता को यह तथ्य समझाना चाहिए कि कैसे 1% भारतीयों के पास भारत की 40% संपत्ति का क़ब्ज़ा हो गया है। मोदी जी को ही यह बात इसलिए बतानी चाहिए क्योंकि रिपोर्ट कह रही है कि सर्वाधिक असमानता मोदी काल में ही पनपी है। अगर 1% अरबपतियों के पास देश की 40% संपत्ति है तो क्या उन्हें भारत की 40% बेरोज़गारी को समेटने का काम नहीं सौंपना चाहिए? क्या मोदी जी यह काम इन 1% लोगों को सौंपेंगे? मुझे नहीं लगता मोदी जी ऐसा कुछ भी करने वाले हैं। क्योंकि हाल ही में मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार(CEA) वी. अनंत नागेश्वरन ने कहा कि- यह मानना ग़लत है कि सरकार बेरोजगारी जैसी सभी सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान कर सकती है। विडंबना यह है कि CEA "भारत रोजगार रिपोर्ट 2024: युवा रोजगार, शिक्षा और कौशल" के लॉन्च पर बोल रहे थे। शायद CEA को न पता हो कि वह जिस बेरोज़गारी रिपोर्ट को जारी कर रहे थे उसमें लिखा है कि "अनौपचारिक क्षेत्र और अनौपचारिक रोजगार में खराब गुणवत्ता वाले रोजगार का बोलबाला हो गया है" और साथ ही सबसे महत्वपूर्ण यह कि "मजदूरी और कमाई या तो स्थिर है या फिर घट रही है"। सरकार एक तरफ़ स्वयं यह मान रही है कि लगातार करोड़ों भारतीयों की मज़दूरी और कमाई घट रही है और दूसरी तरफ़ आँकड़े बता रहे हैं कि कुछ उद्योगपतियों ने 121% (गौतम अदानी) और 118% (मुकेश अंबानी) जैसी ज़बरदस्त ग्रोथ सिर्फ मोदी काल के दस सालों में ही हासिल कर ली है। मतलब कुछ लोगों की आय दस सालों में अरबों में बढ़ी तो ज़्यादतर लोगों के लिए पिछले दस साल घटती हुई आमदनी और बढ़ती हुई महंगाई से लड़ते हुए गुजरे। ऐसी स्थिति में असमानता व्यापक नहीं होगी तो क्या होगा? सरकार जिस तरह बेरोज़गारी की समस्या से पल्ला झाड़ रही है उसे भारत के लोगों को बताना चाहिए कि फिर सरकार कर क्या सकती है? 2 करोड़ लोगों को हर साल रोज़गार का झूठा वादा करने वाले अब बेरोज़गारी को समस्या के रूप में समाप्त करने की अपनी ज़िम्मेदारी से ही भागने में लग गये हैं। यह तो मतदाताओं के साथ, देश के साथ, देश की ग़रीबी के साथ धोखा है। चंद उद्योगपतियों के पास धन केंद्रित करके सत्ता की चाभी सौंपने की कोशिश भले ही वर्तमान सरकार को ठीक लग रही हो लेकिन जैसा कि जॉर्ज ऑरवेल ने अपने डिस्टोपियन उपन्यास ‘1984’ में लिखा है कि “ऐसा समाज अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकता”। एक अस्थिर समाज एक अखंड राष्ट्र को बचाए रखने में सफल नहीं हो सकेगा।
असमानता बढ़ने के कारणों की पड़ताल करते हुए रिपोर्ट कहती है कि भारत सरकार ‘सार्वजनिक निवेश’-स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण आदि की ओर ध्यान नहीं दे रही है। इसकी वजह से यह डर बढ़ता जा रहा है कि भारत निकट भविष्य में ‘धनपतियों द्वारा चलाया जाने वाला’ तंत्र (प्लूटोक्रेसी) न बन जाए।
रिपोर्ट में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय को याद करते हुए कहा गया है कि एक समय था जब भारत उन देशों के लिए दुनिया भर में नजीर था जो औपनिवेशिक ग़ुलामी से बाहर आये थे। भारत की संस्थाओं और उनकी सत्यनिष्ठा पर ज़बरदस्त भरोसा था लेकिन आज तो स्थिति यह है कि भारत में उपलब्ध कराया गया आर्थिक आँकड़ा बेहद निम्न दर्जे का है। इसकी वजह से भारत की आर्थिक असमानता में हो रही दुर्गति को पकड़ना आसान काम नहीं था।
राहुल गांधी की न्याय यात्रा समाप्त हो चुकी है लेकिन संभवतया इसका प्रवाह आने वाले समय में चलता रहे। राहुल की यात्रा को बहुत सीमित अर्थों में समझा गया क्योंकि इसको तथाकथित ‘भ्रष्टाचार विरोधी’ अन्ना आंदोलन जैसी मीडिया सुविधा उपलब्ध नहीं थी जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रास्ते कांग्रेस को पटरी से उतार फेंकने का काम सौंपा गया था। राहुल का संदेश और असमानता रिपोर्ट का आकलन आपस में एक-दूसरे के पूरक हैं। राहुल अपने 5 न्याय सिद्धांतों के बल पर समाज के हर तबके- महिलाओं, युवाओं, श्रमिकों, किसानों- को मुख्यधारा से जोड़ना चाहते हैं और भागीदारी न्याय के माध्यम से देश के संसाधनों में सभी वर्गों की समुचित हिस्सेदारी सुनिश्चित करना चाहते हैं। कहीं न कहीं संसाधनों का केन्द्रीकरण कर आम जनता को उसके लाभों से वंचित रखना ही तो असमानता का कारण बनता है।
जब सरकार महिला, किसान, युवा और श्रमिकों को मुख्यधारा में लाकर उन्हें देश की संपत्ति का हिस्सेदार मानने लगेगी न कि सिर्फ़ मुट्ठीभर उद्योगपतियों को ही, तब असमानता के नाम की यह बीमारी बहुत ज़्यादा दिनों तक भारत में नहीं ठहर पाएगी। और तब भारत की जीडीपी की विकास दर को हर भारतीय महसूस कर सकेगा। इसी बात को पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने अपने शब्दों में यूं कहा है कि “हमारी प्रगति की कसौटी यह नहीं है कि हम उन लोगों की प्रचुरता में और वृद्धि कर पाते हैं जिनके पास पहले से बहुत कुछ है; बात यह है कि क्या हम उन लोगों को पर्याप्त मुहैया करा पाते हैं जिनके पास बहुत कम है।”
सरकार को बस यही करना था कि हर वर्ग के साथ न्याय सुनिचित किया जाता, असमानता अपने आप कम होती जाती। लेकिन जैसा कि साफ़ है कि नरेंद्र मोदी संभवतया इस विचार से सहमत नहीं नज़र आ रहे हैं और उनके इस विचार की आँच को वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब रिपोर्ट बनाने वाली समिति ने भी महसूस कर लिया था। इसीलिए यह "भारत में आय और धन असमानता, 1922-2023: अरबपति राज का उदय" नाम की रिपोर्ट एक गहरी निराशा और एक विशेष चेतावनी के साथ समाप्त होती है कि: "यह स्पष्ट नहीं है कि इस तरह की असमानता का स्तर बड़े सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल के बिना कितने समय तक बना रह सकता है।" मतलब साफ है कि जबतक भारत में बहुत बड़ा सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन नहीं होता, असमानता बनी रहेगी, चलती रहेगी। बहुसंख्य भारतीय आबादी का बेरोकटोक आर्थिक शोषण होता रहेगा। लोकसभा चुनाव सामने है, नागरिकों को तय करना है कि उन्हें गरीबी और आर्थिक शोषण से आजादी चाहिए या नहीं?