भरी है दिल में जो हसरत कहूं तो किस से कहूं।
सुने है कौन मुसीबत कहूं तो किस से कहूं।।
आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर का यह शेर मानो इस बार बजट के पहले का हाल ही बयान कर रहा है। पहली लाइन में वो हसरतें जिनके पूरे होने की उम्मीद लोग वित्तमंत्री से कर रहे हैं और दूसरी लाइन जैसे वित्तमंत्री के मन की व्यथा। पिछला बजट तो कोरोना की छाया में आया था, मगर उम्मीद थी कि 2023 के बजट पर यह छाया नहीं होगी। तब किसे ख़बर थी कि रूस यूक्रेन पर हमला करेगा और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक नए कुचक्र में फंसी मिलेगी। कनेक्टेड वर्ल्ड के फायदे गिनाते वक़्त जानकार भूल जाते हैं कि जैसे-जैसे दुनिया एक बड़े ग्लोबल विलेज में बदलती है, कोई एक छोटी चिनगारी भी दूर-दूर तक आग भड़का सकती है। रूस यूक्रेन युद्ध उसका ताज़ा उदाहरण है।
इसने इस बार भी वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का काम मुश्किल बनाए रखा है। ब्रिटेन, जापान, यूरोप और अमेरिका में मंदी की आशंका दिनोंदिन हकीकत में बदल रही है और अब सबसे बड़ा सवाल है कि मंदी के अंधड़ के बीच भारत कैसे अपने पैर जमाए रह पाएगा। शायद यही वित्तमंत्री के सामने की सबसे बड़ी चुनौती होती अगर एक साल बाद लोकसभा चुनाव न होनेवाले होते। 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले एक बजट और आना है, लेकिन परंपरा के अनुसार वो लेखानुदान या अंतरिम बजट होगा। इसीलिए यह चुनाव के पहले इस सरकार का आखिरी पूर्ण बजट होगा। अब अर्थव्यवस्था और चुनावी राजनीति दोनों को साधने का काम वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को इस बजट में ही करना है।
हालाँकि वित्तमंत्री ने कुछ समय पहले साफ़ कह दिया है कि पिछले कुछ बजटों के सिलसिले की अगली कड़ी ही होगा यह बजट, यानी अर्थनीति में निरंतरता दिखेगी। लेकिन दुनिया के स्तर पर नई चुनौतियाँ खड़ी हो रही हैं और उनका असर है कि भारत की पुरानी चुनौतियाँ ही बड़ी होती दिखाई दे रही हैं। पिछले बजट में वित्तमंत्री ने रेखांकित किया था कि निजी क्षेत्र का निवेश बढ़ाने के लिए ज़रूरी है कि पहले सरकारी निवेश बढ़ाया जाए। जिस तरह हैंड पाइप या पानी चढ़ानेवाली मोटर में पानी का बहाव शुरू करने के लिए पहले थोड़ा पानी बाहर से डालना पड़ता है, उसी तरह सरकार जब पैसा लगाती है तब निजी क्षेत्र से भी निवेश की धारा बहनी शुरू होती है।
इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही बजट में पूंजीगत ख़र्च में पैंतीस परसेंट से ज़्यादा की बढ़ोत्तरी की गई और इसे 5.54 लाख करोड़ रुपए से बढ़ाकर 7.5 लाख करोड़ रुपए किया गया। जानकारों को उम्मीद है कि इस बार भी सरकार इसमें कम से कम तीस परसेंट का इजाफा करेगी तभी जीडीपी की गाड़ी पटरी पर रखी जा सकेगी। जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद सुनने में दूर की चीज़ लगती है। लेकिन इसका हमारी आपकी ज़िंदगी से बहुत नजदीक का रिश्ता है।
हम सभी की कमाई और खर्च भी जीडीपी का हिस्सा हैं। और जीडीपी बढ़ने की रफ्तार के साथ ही देश में लोगों को रोज़गार मिलने और कमाई बढ़ने की रफ्तार का हिसाब भी जोड़ा जा सकता है।
और इसके साथ ही यह हिसाब जोड़ना भी ज़रूरी है कि अगर दुनिया के बड़े हिस्से में मंदी का ख़तरा मंडरा रहा हो तो फिर भारत की अर्थव्यवस्था को उससे बचाए रखने के लिए सरकार क्या क्या कर सकती है।
इसका जवाब बहुत सीधा है। एकदम वैसे ही जैसे आप अपने घर का बजट बना रहे हों। कमाई बढ़ेगी तो ख़र्च बढ़ेगा। ज़्यादा लोगों को काम मिलेगा तो घर की तरक्की होगी। काम मिलने के लिए ज़रूरी है कि सारे सदस्य अच्छी तरह पढ़ें-लिखें और सेहतमंद रहें। यह तो हो गई आपकी तैयारी, लेकिन घर से निकलने के बाद आपको काम तभी मिलेगा जब उद्योग-धंधे या दूसरे कारोबार चल रहे हों और उन्हें लोगों की ज़रूरत हो। इससे साफ़ होता है कि जीडीपी बढ़ने का आपसे रिश्ता कैसे जुड़ता है।
मोदी सरकार ने हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार देने का वादा किया था। लेकिन पहले कोविड की मार और उसके बाद दुनिया भर में आर्थिक संकट की छाया लगातार भारत पर भी पड़ती रही। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने बताया कि बेरोजगारी की दर दिसंबर में 8.3% हो गई जो सोलह महीने का सबसे ख़राब आँकड़ा था। हालाँकि पिछले हफ्ते यह आँकड़ा 7.4% पर पहुंचा लेकिन तब भी यह गंभीर चिंता का कारण बना हुआ है। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष में काम कर चुके भारतीय अर्थशास्त्री अशोक मोदी ने अपनी नई किताब में लिखा है कि रोजगार के मोर्चे पर जो नहीं हुआ उसकी भरपाई के लिए भारत को अगले दस साल में बीस करोड़ नए रोजगार पैदा करने होंगे। औसत देखें तो रफ्तार वही है, दो करोड़ सालाना। लेकिन अगर रफ्तार धीमी रही तो मुसीबत बढ़ती जाएगी।
इसके साथ एक और परेशानी है जो बढ़ती दिख रही है। हालाँकि विश्व आर्थिक फोरम समेत तमाम अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां लगातार भारत की पीठ ठोक रही हैं कि विश्वव्यापी मंदी की आशंका के बीच भारत एक उम्मीद की किरण की तरह डटा दिखता है। लेकिन उससे यह बात छिप नहीं सकती कि भारत से एक्सपोर्ट कम हो रहा है और व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है। आयात घटाना और निर्यात बढ़ाना फायदेमंद है, इस नीयत से सरकार 2014 से लगातार इंपोर्ट ड्यूटी लगाकर आयात कम करने की कोशिश कर रही है। आत्मनिर्भर भारत योजना ने उसे बाकायदा एक नीति का रूप दे दिया।
आयात कम भी हुआ लेकिन साथ ही निर्यात भी गिरने से व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है। 2014-15 में यह जीडीपी का 1.48% था जो बीते साल ही 4.5% से ऊपर जा चुका था और चालू वित्तवर्ष में दिसंबर तक ही यह 6% पर पहुंच चुका है।
अभी एप्पल के 14 सप्लायरों को भारत में उत्पादन शुरू करने की इजाज़त मिलने से उम्मीद बढ़ती है कि भारत में ऐसे कारोबार बढ़ेंगे जिनके उत्पाद एक्सपोर्ट बढ़ाने में मदद करेंगे। लेकिन दुनिया भर को भारत में उम्मीद दिख रही है इसकी सबसे बड़ी वजह भारत का घरेलू बाज़ार है। और घरेलू बाज़ार में मांग बढ़े, उद्योगों की रफ्तार तेज़ हो तो साथ में रोजगार पैदा भी होंगे और बढ़ेंगे भी। इसके लिए सरकार क्या कर सकती है। उद्योग संगठन सीआईआई का कहना है कि इसके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ख़र्च बढ़ाने से बेहतर कोई नुस्खा नहीं है। उसका तर्क है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर पर सरकार जो सौ रुपए ख़र्च करती है उसका असर जीडीपी में 295 रुपए की बढ़ोत्तरी के रूप में दिखता है। उनकी मांग है कि सरकार को इस बार पूंजीगत निवेश पैंतीस परसेंट बढ़ाकर दस लाख करोड़ रुपए पर पहुंचा देना चाहिए। और इसमें भी ज़्यादा जोर गांवों में ख़र्च और रोजगार पैदा करने पर होना चाहिए, ताकि गांवों में खपत और खर्च बढ़ने की गुंजाइश पैदा हो।
तर्क में दम दिखता है क्योंकि कोरोना के बाद से गांवों और गांव में रहनेवालों का हाल शहरों के मुकाबले काफी खराब हुआ है। इसके साथ ही सरकार को एमएसएमई को बढ़ावा देना होगा क्योंकि उत्पादन और रोजगार दोनों में इनकी भूमिका बड़े उद्योगों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। 85% चीजें बहुत छोटे, छोटे और मझोले उद्योगों में यानी एमएसएमई सेक्टर में बनती हैं। इसपर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है खासकर कोविड की मार से छोटे उद्यमियों और कारोबारियों को राहत देने के लिए। कुल मिलाकर मैन्युफैक्चरिंग का अभी जीडीपी में सिर्फ 17% हिस्सा है। इसे बढ़ाकर कम से कम 25% तक ले जाना होगा।
अमीर गरीब की खाई कोरोना काल में और तेज़ी से बढ़ी है जिसका खुलासा ऑक्सफैम की ताज़ा रिपोर्ट में किया गया है। वित्तमंत्री मध्यवर्ग को टैक्स के मोर्चे पर कितनी राहत दे पाएंगी कहना मुश्किल है। लेकिन अगर अति धनाढ्य वर्ग पर कुछ टैक्स लगाकर गरीबों को राहत देने का रास्ता निकाल पाएं तो अर्थनीति और राजनीति एक साथ साधी जा सकती हैं।
(हिंदुस्तान से साभार)