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महंगाई ने गृहिणियों की नींद उड़ाई! बजट किस किस से निपटेगा?

महंगाई ने गृहिणियों की नींद उड़ाई! बजट किस किस से निपटेगा?

ख़पत काफ़ी ज़़्यादा कम हो गई है। मध्यवर्ग की आय कम हुई है। बेरोजगारी बढ़ी है। महंगाई बढ़ी है। तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण बजट में किस-किस से निपटेंगी?

मोदी सरकार के लगातार ग्यारहवें आम बजट से महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त निचले तबक़े ने जहां अपनी आमदनी बढ़ाने और ज़रूरी वस्तुओं के दाम घटाने संबंधी उपायों की आस लगा रखी है वहीं मध्यमवर्ग भी वित्तीय राहत की बाट जोह रहा है। ताज्जुब ये है कि मोदी सरकार ने आमदनी में जमीन-आसमान के अंतर के बावजूद इन दोनों ही तबक़ों को करों के नागपाश में जकड़ दिया है। निम्न मध्यमवर्ग और गरीब तबक़ा तो जीएसटी की ऊँची दरों पर मोदी सरकार द्वारा वसूली से परेशान है। उधर मध्यवर्ग पिछले साढ़े दस साल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अंधनिष्ठा के बावजूद जीएसटी के साथ ही मोटी दरों पर आयकर का भुगतान करते-करते पस्त हो गया है। इसलिए अर्थव्यवस्था में मांग और खपत दोनों ही घट रहे हैं। इस लिहाज से देखें तो वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के लिए केंद्रीय बजट में देश के सभी तबकों को राहत देकर संतुष्ट करना सबसे बड़ी चुनौती है।

खासकर साल 2024 के आम चुनाव में बीजेपी के लोकसभा में बहुमत से वंचित होकर महज 240 सीट पर और आर्थिक वृद्धि के दूसरी तिमाही में 5.4 फीसदी पर सिमटने के संदर्भ में वित्तमंत्री को सिर्फ वित्तीय ही नहीं, राजनीतिक सूझबूझ भी दिखानी होगी। हालाँकि घरेलू मोर्चे पर बेरोजगारी और महँगाई तथा अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर मुंह बाये खड़ी मंदी से फैली आर्थिक अनिश्चितता ने मोदी सरकार के हाथ पहले ही बांध रखे हैं। इसके बावजूद अर्थव्यवस्था में घटती वृद्धि और वित्तीय राहत के लिए तड़पती जनता को साधने के लिए सरकार को बजट में कर ढाँचे को जनोन्मुख बनाने के लिए कुछ साहसिक उपाय तो करने ही होंगे। इसकी शुरुआत सरकार महंगाई घटाने के लिए पाम, सूरजमुखी और सोयाबीन जैसे खाने के तेलों पर वसूले जा रहे 27.5 फीसदी आयात शुल्क की दरों में कटौती करके उसे फिर से 5.5 फीसदी तक घटाने जैसे ठोस उपाय से कर सकती है।

महंगाई के मोर्चे पर अब तक यूपीए सरकार की दहाई में रही मुद्रास्फीति दर की आड़ में मुंह छुपाते रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आख़िरकार अक्टूबर 2024 में खुदरा महंगाई दर ने 10.87 फीसदी तक छलांग लगाकर आईना दिखा ही दिया। उसके बाद नवंबर में भी खुदरा महंगाई दर 9.40 फीसदी और दिसंबर 2024 में ये 8.39 फीसदी जैसी ऊँचाई पर ही रही है। सर्दियों के मौसम में जब ताज़ा हरी सब्जियों और दूध की बाजार में बहुतायत होती है उस दौरान भी खुदरा मुद्रास्फीति दर आठ फीसदी से ऊपर रहने से साफ़ है कि मोदी सरकार की महंगाई रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं है। 

अलबत्ता दिल्ली में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर केंद्र सरकार ने दूध वितरक कंपनियों से पैकेज्ड दूध के दाम में एक रुपया प्रति लीटर कटौती करवा दी है। ये उपाय ठीक वैसा ही लगता है जैसे प्रधानमंत्री मोदी की सरकार कई प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान वोट बटोरने की नीयत से पेट्रोल-डीजल के दाम में फौरी कतर-ब्योंत करती आई है। जाहिर है कि ऐसे फौरी उपायों से महंगाई पर पक्की चोट असंभव है। अनाज, खाने के तेल और सब्जियों के दाम में चालू माली साल में अभूतपूर्व महंगाई दर्ज हुई है। इसकी वजह है सरकारी दावों के विपरीत गेहूं, तिलहनों, गन्ने और आलू आदि की बुआई का रकबा घट जाना। 

उधर, सरकारी गोदाम में गेहूँ का स्टाॅक भी 2008 के बाद बहुत कम रह गया है। जनवरी 2025 में दिल्ली में गेहूँ का दाम बढ़कर औसतन 3200 रुपए प्रति कुंतल रहा है जो जनवरी 2024 के मुकाबले औसतन 600 रुपए प्रति कुंतल अधिक है। इसी तरह खने के तेलों के दाम भी पिछले एक साल में औसतन 18 से 20 फीसदी बढ़े हैं। इस बार गन्ने और आलू की बुआई का रकबा घटने से रोजमर्रा जरूरत की यह आवश्यक जिन्स और महंगे हो जाने की आशंका है।

यहां सवाल ये है कि क्या रोजमर्रा जरूरत के इन सामानों की महंगाई के अनुपात में देश में दिहाड़ी मजदूरों का पारिश्रमिक बढ़ा है? जाहिर है कि ऐसा नहीं है इसलिए महंगाई का लोगों पर असर नहीं पड़ने का सरकारी दावा भ्रामक है।

गृहिणियों पर महंगाई का बोझ बढ़ने के लिए मोदी सरकार अक्सर किसानों और मंडियों में बैठे बिचौलियों को दोषी ठहराती है जबकि किसानों को उनकी पैदावार के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने से कतराती है।

गौरतलब है कि गेहूं के प्रमुख उत्पादक राज्यों पंजाब एवं हरियाणा के किसान पिछले तीन बरस से आंदोलन कर रहे हैं। उनसे बातचीत करके न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी को कानूनी जामा पहना कर अपना वायदा निभाने के बजाए केंद्र की मोदी सरकार ने हरियाणा में बीजेपी सरकार के ज़रिए किसानों की राह में कीलें गाड़ रखी हैं। किसान नेता जगजीत सिंह दल्लेवाल के आमरण अनशन से सीमाई राज्य पंजाब एवं बीजेपी शासित हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अशांति फैलने की आशंका से घबरा कर मोदी सरकार ने आंदोलनरत किसानों को अंततः बातचीत के लिए बुलावा भेजा है। देखना यही है कि 80 करोड़ लोगों को हर महीने पांच किलोग्राम मुफ्त अनाज देने की चुनौती से घिरी मोदी सरकार गेहूं की फसल बाजार में आने से पहले किसानों को मनाने में सफल हो पाएगी अथवा अपने जिद्दी रवैये से इस गरीब प्रधान देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में डाल देगी।

गौरतलब है कि साल 2008 के बाद इस साल सरकार के पास गेहूं का स्टाॅक पांचवीं बार बेहद कम है। इसकी वजह पिछले तीन साल में गेहूं की सरकारी खरीद घटते जाना है। अबकी बार रबी में गेहूं की बुआई का रकबा बढ़ने के बावजूद जलवायु परिवर्तन से बेमौसमी बारिश अथवा गर्मी पड़ने की आशंका गहराने से देश की खाद्य सुरक्षा के बारे में अनिश्चितता बनी हुई है। जलवायु परिवर्तन के खाद्य सुरक्षा पर गहराते प्रत्यक्ष संकट के बावजूद उससे निपटने की कोई ठोस पहल मोदी सरकार की तरफ़ से सामने नहीं आई है। जलवायु परिवर्तन रोधी बीजों की क़िस्में तैयार करने का कोई भी एकीकृत कार्यक्रम कृषि मंत्रालय, वित मंत्रालय अथवा प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से पेश नहीं किया गया है। 

जलवायु परिवर्तन से पिछले साल महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में अचानक सूखे की स्थिति पैदा होने का दुष्परिणाम इस बार गन्ने की आवक घटने और चीनी का उत्पादन औसत से कम रहने के नकारात्मक रूप में दिख रहा है। इसी वजह से अबकी बार गन्ना पेराई मार्च में ही रूक जाने के आसार हैं जिससे अगले माली साल के त्योहारी सीजन में चीनी के दाम महंगे होने की आशंका जताई जा रही है। कुल मिलाकर कृषि के मोर्चे पर जलवायु परिवर्तन की चुनौती के साथ ही किसानों को फ़सलों का लाभप्रद मूल्य देने के बावजूद 140 करोड़ लोगों की खाद्य सुरक्षा बरकरार रखने की मोदी सरकार के सामने कड़ी चुनौती है। दूसरी ओर दाम बांध कर लोगों को सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती महंगाई से राहत दिलाना भी वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का वैधानिक कर्तव्य है। देखना यही है कि किसानों और गृहिणियों के हितों की रक्षा में वित्तमंत्री आगामी बजट में कितना संतुलन साध पाएंगी।

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