महंगाई और बेरोजगारी 2022 की सबसे बड़ी चिंताएँ थीं जो वो विरासत में 2023 को सौंप गया है। और साथ में सौंप गया है एक ख़तरनाक, लंबी और तकलीफदेह मंदी की आशंका। दुनिया के ज्यादातर अर्थशास्त्री यही कह रहे हैं कि इस साल, खासकर आर्थिक मोर्चे पर, भारी उतार चढ़ाव देखने पड़ेंगे। 2008 की आर्थिक मंदी की भविष्यवाणी करनेवाले अर्थशास्त्री नूरिएल रुबिनी तो कह चुके हैं कि दुनिया 1970 के दौर जैसी विकट आर्थिक स्थिति की ओर जा रही है।
डॉ. डूम यानी अनिष्ट के प्रतीक कहलानेवाले रुबिनी का कहना है कि विकास दर में गिरावट और महंगाई में तेज़ी से पैदा हुआ संकट बहुत गहरा है और इस बार जो मंदी आएगी वो बहुत लंबी और तकलीफदेह होगी। इसकी एक बड़ी वजह उनकी नज़र में यह है कि पश्चिमी दुनिया यानी अमीर देशों के केंद्रीय बैंक नोट छाप छापकर महंगाई को काबू करने में अपना पूरा शस्त्रागार झोंक चुके हैं और उनकी सरकारों पर कर्ज का बोझ भी इतना बढ़ चुका है कि अगर महंगाई अभी तक काबू में नहीं आई है तो आगे इसे रोकने के लिए उनके पास हथियार नहीं बचे हैं।
इससे भी बड़ा ख़तरा यह है कि कम महंगाई के दौर में इन देशों के कामगारों के वेतन या भत्ते न जाने कब से नहीं बढ़े हैं या फिर बहुत कम बढ़े हैं। और अब महंगाई बढ़ने के साथ ही इन सबको अपना हाल आमदनी अठन्नी ख़र्चा रुपैया वाला दिख रहा है। नतीजा, तनख्वाह बढ़ाने के लिए हड़तालें चल रही हैं। और अगर तनख्वाह बढ़ाई गई तो दोहरा नुक़सान सामने है। सरकारों और कंपनियों का ख़र्च भी बढ़ेगा और दूसरी तरफ बाज़ार में पैसा आने से महंगाई की आग में पेट्रोल भी पड़ जाएगा।
दरअसल 2020 के कोरोना संकट से बाहर निकलने की शुरुआत 2021 में हो गई थी और उम्मीद थी कि 2022 में दुनिया इस बीमारी की कालिख को मिटाकर एक नई इबारत लिखने की शुरुआत कर देगी। लेकिन 2022 में लगभग पूरे साल कोरोना का हौवा भी लौट लौटकर डराता रहा और दूसरी तरफ यूक्रेन पर रूस के हमले ने तो अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के प्रयासों पर पूरी तरह पानी ही फेर दिया।
हालात इतने ख़राब हैं कि अब इसे संकट नहीं बल्कि पॉलिक्राइसिस कहा जा रहा है। पॉलिक्राइसिस को कुछ यूं समझा जा सकता है कि एक साथ दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग तरह के ऐसे ख़तरे या समस्याएँ पनपने लगें जो एक साथ मिलकर दुनिया को घेरे में ले रही हों। जाहिर है यह मुसीबत कहीं कम तो कहीं ज्यादा होगी और जहां से पैदा हो रही हों शायद वहां ज्यादा असर भी डाल रही हों।
आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार तरक्की की रफ्तार धीमी तो सब तरफ ही होगी। लेकिन अर्थतंत्र का चक्का पूरी तरह थमने या फिर मंदी में जाने का डर सबसे पहले ब्रिटेन में दिख रहा है और उसके बाद इसके यूरोप और अमेरिका तक पहुंचने का डर भी है।
विश्व बैंक और मुद्रा कोष जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन हों, दुनिया भर में मोटा पैसा लगानेवाले निवेश बैंकर और ब्रोकर हों या फिर दुनिया के अलग अलग हिस्सों के अर्थशास्त्री। इन सभी को अब दुनिया की तरक्की की रफ्तार पर ब्रेक लगता दिख रहा है। खासकर अमीर देशों का हाल काफी नाज़ुक है। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन OECD ने इस साल दुनिया की ग्रोथ का अनुमान पिछले साल के लिए दिए गए 3.1% के अनुमान से भी काफी घटाकर 2.1% कर दिया है।
भारत से शायद यह बात समझनी मुश्किल हो, लेकिन पश्चिमी दुनिया पिछले चालीस साल से चल रही एक रिवायत को तोड़कर अलग रास्ते पर बढ़ चली है। वहाँ चार दशक से नर्मी का अर्थशास्त्र चल रहा था, यानी ब्याज दरें बढ़ाई नहीं जाती थीं कम होती थीं, महंगाई भी लगभग नहीं थी या थी तो वो भी उतार पर ही थी और इसके साथ बाज़ार में नकदी धीरे धीरे बढ़ाई जाती रही। शायद 2008 का आर्थिक संकट इस व्यवस्था के खिलाफ पहली ख़तरे की घंटी थी, लेकिन तब भी इसे ख़त्म होते होते बहुत वक़्त लगा। और समस्या यह भी है कि जाते जाते यह अनेक मुश्किलें खड़ी कर गई है। सरकारों के लिए भी और केंद्रीय बैंकों के लिए भी। साथ में आम नागरिकों के लिए क्या मुसीबत खड़ी हुई है वो तो जगजाहिर है। लेकिन ऐसे में भी उम्मीद की कोई किरण कहीं दिख रही है तो वो अब उन देशों में ही है जिन्हें पहले विकासशील देश कहा जाता था और अब इमर्जिंग मार्केट्स यानी उभरते हुए बाज़ार कहा जाता है।
इन देशों का बाज़ार में बदलना ही दरअसल इस उम्मीद की सबसे बड़ी वजह है। भारत भी ऐसे देशों में न सिर्फ शामिल है बल्कि इस वक़्त यह कहना गलत नहीं होगा कि वो दुनिया में ऐसे देशों का अगुवा ही है। हर इंसान की कमाई का हिसाब अलग रख दें तो भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में पांचवें नंबर पर पहुंच चुकी है यानी ब्रिटेन से आगे निकल चुकी है। उम्मीद है कि जल्दी ही हम फ्रांस और जर्मनी को भी पछाड़ कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने में कामयाब हो जाएंगे। चार ट्रिलियन डॉलर यानी चार लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था। इसके बाद के पायदान मुश्किल हैं क्योंकि उसके बाद चीन और अमेरिका आज भी भारत से काफी बड़े अंतर से आगे रहेंगे।
लेकिन 2023 की सबसे बड़ी चुनौती इस अंतर को पाटना नहीं बल्कि उस अंतर को पाटना होगा जो भारत ही नहीं दुनिया के सभी विकसित और विकासशील देशों के भीतर लगातार बढ़ रहा है। यह है गरीब और अमीर के बीच की खाई।
देश के सबसे अमीर लोगों की कमाई और संपत्ति जिस रफ्तार से बढ़ रही है और दूसरी तरफ गरीबी के विरुद्ध लड़ाई कमजोर होती दिख रही है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थशास्त्री उसे एक बड़ी चिंता की तरह देख रहे हैं जो आगे चलकर न सिर्फ असंतोष बल्कि राजनीतिक उथलपुथल का भी कारण बन सकती है।
भारत में सरकार और रिजर्व बैंक ही नहीं, बल्कि बहुत से विशेषज्ञ भी आश्वस्त नज़र आते हैं कि दुनिया में तो परेशानी बढ़ रही है लेकिन भारत तक शायद इसकी आंच नहीं पहुंच पाएगी, और अगर पहुंची भी तो बहुत कम होगी। भारत के वित्त, वाणिज्य और गृह मंत्री रह चुके पी चिदंबरम आर्थिक विषयों के जानकार राजनेताओं में गिने जाते हैं। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस के अपने स्तंभ में लिखा है कि 2022 में पूरी दुनिया में जो अजब सा सिलसिला चला, वो 2023 के सफर पर असर डालेगा ही। इसका असर दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थाओं को झेलना होगा, भारत भी अपवाद नहीं है। उन्होंने भारत सरकार पर तंज करते हुए लिखा है कि “सिर्फ सरकार मानती है कि 2023 में विकास तेज़ होगा, महंगाई कम होगी, बेरोजगारी की दर गिर जाएगी, अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ने के बावजूद भारत में पैसे का प्रवाह जारी रहेगा, और रूस यूक्रेन युद्ध के बावजूद अंतरराष्ट्रीय व्यापार भी बढ़ेगा।”
इसका जवाब देने की जगह उन्होंने सरकार और सरकारी अफसरों को सलाह दी है कि खुद अपनी, रिजर्व बैंक की और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की कुछ रिपोर्टें पढ़ लें। उन्होंने ऐसी ही रिपोर्टों के कुछ हिस्से सामने रख दिए हैं। उनका कहना है कि सरकार को समझना चाहिए कि जो चीज़ें उसके हाथ में हैं उससे कहीं ज्यादा असर करनेवाली चीज़ें या घटनाएं उसके नियंत्रण से बाहर हैं। रूस यूक्रेन युद्ध, दुनिया भर में सप्लाई चेन की रुकावटें, कमोडिटी के दाम, खासकर, कच्चे तेल के दाम और कोरोना वायरस के नए वैरिएंट आने का डर यह सब मिलकर इतना तो तय कर रहे हैं कि 2023 के साथ भारत एक अनिश्चितता के दौर में प्रवेश कर रहा है।
लेकिन दुनिया के अनेक जानकार और भारत के भी अनेक विशेषज्ञ अब भी खम ठोककर कह रहे हैं कि मुसीबत, परेशानी और तकलीफों के बावजूद भारत के लिए यह साल काफी अच्छी ख़बरें लेकर आ सकता है। कम से कम एक अच्छी शुरुआत तो देखने को मिल ही सकती है। हालांकि 2022 के अंत में सीएमआइई की रिपोर्ट डरानेवाली ख़बर लेकर आई है कि बेरोजगारी की दर सोलह महीने में सबसे ऊपर पहुँच गई है, लेकिन साथ ही सीएमआइई के मुखिया महेश व्यास का कहना है कि यह आंकड़ा जितना खराब दिख रहा है उतना है नहीं, क्योंकि इस वक्त बाज़ार में काम की तलाश में निकले लोगों की गिनती भी साल भर में सबसे ज्यादा थी। उधर चीन से व्यापार घाटा भी चिंता बढ़ा रहा है और सरकारी घाटा भी। चिंता इस बात की भी है कि क्या सरकार इकोनॉमी को रफ्तार देने के लिए अपना खर्च बढ़ा पाएगी और साथ में क्या कारोबारियों में यह भरोसा पैदा होगा कि अब उन्हें नए कारखानों और नई मशीनों में पैसा लगाना चाहिए। हालांकि जीएसटी और टैक्स वसूली बढ़ती जा रही है लेकिन कितनी और कब तक? अब बहुत से सवालों के जवाब बजट में मिलने हैं इसलिए वित्तमंत्री के सामने मांगों और सलाहों का सिलसिला भी तेज़ हो चुका है।
लेकिन निवेश और आर्थिक मामलों के एक और दिग्गज मॉर्गन स्टैनली इंडिया के प्रमुख रिधम देसाई को इस बात में कोई शक नहीं है कि आर्थिक क्षेत्र में भारत की तकदीर बदलनेवाली है। उनका मानना है कि जैसे चीन ने फैक्ट्री ऑफ द वर्ल्ड बनकर अपनी अर्थव्यवस्था को पंख लगाए, अब भारत उसी तरह की तरक्की के लिए तैयार है। उनका कहना है कि टेक्नोलॉजी, बीपीओ और केपीओ जैसे कामों से भारत अभी ऑफिस टु द वर्ल्ड तो कहलाता ही है लेकिन अब वो फैक्टरी ऑफ द वर्ल्ड बनने की राह पर है। नए साल के पहले दिन छपे एक लेख में उन्होंने कहा कि इसकी बुनियाद पूरी तरह तैयार है। रिधम को लगता है कि कोरोना के बाद दुनिया भर की बड़ी कंपनियों के सीईओ अपने स्टाफ को वर्क फ्रॉम होम या वर्क फ्रॉम इंडिया की इजाजत देने के लिए ज्यादा तैयार हैं। इसी का नतीजा है कि ऐसे कामों में लगे लोगों की गिनती बढ़ रही है। उनका कहना है कि जो लोग भारत से बाहर के काम भारत में रहकर कर रहे हैं उनकी गिनती अगले दस साल में कम से कम दोगुनी हो जाएगी। यही नहीं, उनका अनुमान है कि दुनिया भर में आउटसोर्सिंग का कारोबार अभी के सालाना 180 अरब डॉलर से बढ़कर 2030 तक हर साल 500 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है। इसके अलावा भी अनेक कारण हैं उनके पास यह मानने के कि भारत अब तेज़ तरक्की की राह पर है।
तस्वीर के दोनों पहलू हैं। डर के आगे जीत है, और रास्ते में रुकावटें भी बहुत हैं। लेकिन इतना तय है कि यह साल कोई मामूली साल नहीं है। जिसकी शुरुआत में ही आशावादी और निराशावादी दोनों ही तरह के विशेषज्ञ यह बताना न भूलें कि क्या क्या गड़बड़ हो सकता है, वो साल भारी उथलपुथल वाला रहेगा यह तो तय है, लेकिन अंत में वो यहां से बेहतर, बहुत बेहतर जगह जाकर ख़त्म होगा या औऱ बड़े सवाल छोड़कर जाएगा, इसका जवाब काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि इस राह पर चलते समय हम कितने सजग और सावधान हैं।
(बीबीसी से साभार)