हालाँकि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार बढ़ा चढ़ा कर आर्थिक विकास के दावे कर रही है, ग़ैर सरकारी आँकड़े इसकी पुष्टि नहीं करते। बेरोज़गारी के रेकॉर्ड आँकड़ों के बाद अब यह जानकारी सामने आ रही है कि तेल-साबुन और खाने-पीने की चीजों जैसे उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री में गिरावट आई है। उपभोक्ता वस्तुओं में गिरावट लोगोें की क्रयशक्ति में गिरावट दिखाती है और इसे अर्थव्यवस्था के धीमी होने या विकास की रफ़्तार के कम होने का संकेत माना जाता है। ऐसे में सरकार के विकास के दावे खोखले साबित होने लगते हैं।
उपभोक्ता मामलों में शोध करने वाली अंतरराष्ट्रीय कंपनी कैन्टर वर्ल्डपैनल ने अपने ताज़ा शोध में पाया है कि भारत में उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री में साल 2018 में 1 प्रतिशत की कमी आई है।
एक साल पहले इसमें 7.5 फ़ीसद का इजाफ़ा हुआ था। कैन्टर के आँकड़े बाज़ार के ट्रेंड पर शोध करने वाली कंपनी नीलसन के आँकड़ों के उलट हैं। नीलसन ने कहा था कि इसी दौरान उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री में 11 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इसकी वजह यह है कि नीलसन सिर्फ़ ब्रान्डेड वस्तुओं को ध्यान में रख कर विश्लेषण करता है, जबकि कैन्टर के शोध में 96 कैटगरी की तमाम चीजें शामिल होती हैं, जिनमें असंगठित क्षेत्र में बनी बग़ैर ब्रान्ड की चीजें भी होती हैं। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि ब्रान्डेड वस्तुओं की बिक्री भले ही बढ़ी हो, कुल मिला कर उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री गिरी है।
खाने-पीने की चीजों की बिक्री गिरी
कैन्टर ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि आटा और बोतलबंद पेय पदार्थों की बिक्री में कम से कम 2 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। खाने पीने की चीजों की बिक्री में कम हुई है। इसके अलावा घरेलू इस्तेमाल की चीजों, मसलन, तेल-साबुन, चाय, दूध पाउडर, खाने के तेल, मसाले, कोल्ड ड्रिंक्स की बिक्री गिरी है।याद दिला दें कि केंद्र सरकार न दावा किया था कि सकल घरेलू उत्पाद में रेकॉर्ड वृद्धि हुई है और इसे उचित ठहराने के लिए उसने बेस ईयर यानी आधार वर्ष ही बदल दिया। हालाँकि आधार वर्ष बदलना अर्थ व्यवस्था के लिए नई बात नही है, पर वह जब बदला जाता है तो सिर्फ एक इंडिकेटर यानी जीडीपी के लिए नहीं बदला जाता है। दूसरे, उसका एक आधार होता है और लोगों को यह पता चलता है कि क्यों बदला गया है। लेकिन इस बार जब सरकार ने बेस ईयर बदला तो मनमोहन सिंह सरकार के समय का जीडीपी कम दिखने लगा। पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार क नीयत भी यही थी।
उपभोक्ता वस्तु अकेला इंडिकेटर नहीं है जो यह संकेत कर रहा है कि अर्थव्यवस्था खुशहाली की स्थिति में नहीं है। इसके पहले बेरोज़गारी का आँकड़ा 45 साल के उच्चतम स्तर पर था।
बेरोज़गारी तो बढ़ी ही, पहले के रोज़गार के मौक़ों में कमी आई। अब यह ख़बर है कि छह साल में गाँवों की सवा तीन करोड़ औरतोंं ने तो रोज़गार ढूंढना ही बंद कर दिया।
इसके अलावा व्यापार संतुलन पहले से बदतर हुआ यानी आयात बढ़ा जबकि निर्यात कम हुआ। रुपया काफी टूटा और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में कमी आई।
दिलचस्प बात यह है कि सरकार अर्थव्यवस्था की इस बदहाली को रोकने के उपाय करने के बजाय उसे छुपा रही है, आँकड़ों से छेड़छाड़ कर रही है और ग़लत और अव्यवहारिक दावे कर रही है। इसकी वजह यह है कि आम चुनाव हो रहे हैं। सरकार आम चुनाव के वक़्त अर्थव्यवस्था को दुरुस्त रखने के दावे कर रही है। इसके राजनीतिक मायने हैं।