आर्थिक बदहाली, रिकॉर्ड बेरोज़गारी और किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं के बीच हुए आम चुनाव में सत्तारूढ़ दल की रिकॉर्ड जीत और अकेले पूर्ण बहुमत से कई सवाल खड़े हो रहे हैं। यह कहा जाने लगा है कि अर्थव्यवस्था चुनावी राजनीति को प्रभावित नहीं करती, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है और आर्थिक रूप से फटेहाल लोग भी यह नहीं सोचते कि वे उसे फिर से न चुनें जो इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है। यह कहा जाने लगा है कि भारत की राजनीति अब बहुमतवाद और राष्ट्रवाद से संचालित होगी, अर्थव्यवस्था बेमानी हो चुकी है। क्या वाकई?
नहीं, ऐसा नहीं है। ऐसा सोचना नई सरकार और सत्तारूढ़ दल ही नहीं, पूरी राजनीति के लिए घातक होगा। यदि एक बार यह मान लिया जाए कि नई सरकार बहुमतवाद और राष्ट्रवाद पर ही ध्यान देगी, तो भी उसे कम से कम उस वर्ग का ख़्याल तो रखना ही होगा, जिसने उसे ज़बरदस्त बहुमत दिया है। इस लिहाज़ से नरेंद्र मोदी सरकार के सामने नई चुनौतियाँ हैं, जिनसे वह मुँह नहीं चुरा सकती।
बेरोज़गारों की विशाल फ़ौज
भारत की 135 करोड़ जनसंख्या में से दो-तिहाई की उम्र 35 से कम है। लगभग 15.-1.6 करोड़ लोगों की उम्र 18 से 19 साल है। इसी तरह लगभग 8.40 करोड़ लोगों ने इस बार पहली बार लोकसभा चुनाव में मतदान किया। इस विशाल आबादी को रोज़गार चाहिए, व्यापार चाहिए, आर्थिक प्रगति में हिस्सेदारी चाहिए।लेकिन मौजूदा सच्चाई थोड़ा हट कर है। कृषि की बदहाली और इस धंधे के लगातार अलाभप्रद होने की वजह से हर साल लगभग 60-70 लाख लोग कृषि से जुड़े धंधे से बाहर निकल रहे हैं। यानी इतने लोग स्थापित रोज़गार से बेरोज़गार हो रहे हैं। इसके अलावा हर साल लगभग 1.30 करोड़ नए लोग बेरोज़गारों की फ़ौज़ में शामिल हो रहे हैं। ये वे लोग हैं जो पढ़ाई-लिखाई पूरी कर या बीच में छोड़ कर कामकाज की तलाश में सामने आ रहे हैं।
लगभग 2 करोड़ लोग हर साल बेरोज़गार होंगे। अगले पाँच साल में लगभग 10 करोड़ लोग नए बेरोज़गार होंगे। यदि रोज़गार सृजन नहीं हुआ तो यह जनसंख्या पहले से मौजूद बेरोज़गारों की फ़ौज को और बढ़ाएगी। सवाल है कि क्या कोई सरकार इसे नज़रअंदाज़ कर सकती है।
एनएसएसओ के आँकड़ों के हिसाब से बेरोज़गारी की दर 6.1 प्रतिशत है, यानी लगभग 4.51 अरब लोग पहले से ही बेरोज़गार हैं। इसमें अगले पाँच साल में 10 करोड़ लोग और जुट जाएँगे, यानी यदि इस दौरान रोज़गार सृजन नहीं हुआ तो अगले चुनाव के समय भारत में 4.61 अरब लोग बेरोज़गार रहेंगे।
मतदान का गणित
उदारवादी इस पर विलाप कर रहे हैं कि इस बार भी बेरोज़गारों की विशाल फ़ौज थी और बीजेपी को 303 सीटें मिली हैं। पर चुनाव से जुड़े आँकड़ों पर नज़र डालने से कई बातें साफ़ होती हैं। देश में 90 करोड़ मतदाताओं में से 67.11 प्रतिशत लोगों ने वोट दिया। यानी 60 करोड़ लोगों ने वोट दिया। इसका 37.40 प्रतिशत यानी 22.50 करोड़ लोगों ने बीजेपी को इस बार वोट दिया है। इसका मतलब यह हुआ कि 135 करोड़ आबादी में से सिर्फ़ 22.50 करोड़ लोगों ने ही बीजेपी को वोट दिया है।
सारे लोगों ने सिर्फ़ राष्ट्रवाद या हिन्दुत्व को वोट दिया होगा, यह कहना ज़्यादती होगी। कई लोगों ने रसोई गैस, शौचालय, पक्के मकान या बिजली जैसे आर्थिक कारणों से भी वोट दिया होगा। वे आर्थिक विकास और उसमें हिस्सेदारी माँगें, यह स्वाभाविक है।
बहुत लोगों ने नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व या उनके भाषण कला से प्रभावित होकर बीजेपी को वोट दिया होगा तो कुछ लोगों ने स्थानीय कारणों से बीजेपी को वोट दिया होगा। यदि बेरोज़गारों की फ़ौज के एक छोटे हिस्से ने भी बीजेपी का हाथ छोड़ दिया तो पार्टी के लिए 2019 का प्रदर्शन दुहराना मुश्किल होगा।
बात ग़रीबी की
अब ज़रा ग़रीबी रेखा की बात करें। एक मोटे आकलन के मुताबिक़, 7.50 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं, ये वे लोग हैं जिनकी रोज़ाना आय अंतरराष्ट्रीय मानक के हिसाब से 1.90 डॉलर यानी लगभग 123 रुपये है। इसके अलावा 4.50 करोड़ ऐसे लोग हैं जिनकी रोज़ाना आमदनी 3.20 डॉलर 208 रुपए है। ये लोग निम्न मध्यवर्ग में हैं। लेकिन ये बिल्कुल सीमा रेखा पर खड़े लोग हैं। यदि रोज़गार के मौके नहीं मिले या किसी दूसरी वजह से इनकी आय नहीं बढ़ी तो ये फिसल कर फिर ग़रीबी रेखा से नीचे चले जाएँगे। पी. वी. नरसिम्हा राव ने आर्थिक सुधार की प्रक्रिया शुरू की थी और उनके शासनकाल में लगभग 17 करोड़ लोगों को ग़रीबी की रेखा से ऊपर निकाला गया था।
राव आर्थिक सुधार की वजह से जाने से जाएँगे भले ही राजनीति में वह बहुत अहम न रहे हों। इसके उलट स्थिति मोदी की है। वह राजनीति में मजबूत हैं, भले ही अर्थव्यवस्था को चौपट करने का आरोप उन पर लगता हो। सवाल यह उठता है कि क्या मोदी यह जोखिम उठाएँगे कि अर्थव्यवस्था को नज़रअंदाज करते रहें।
न्यूनतम जीडीपी वृद्धि दर
अर्थव्यवस्था से जुड़ी ताज़ा बुरी ख़बर यह है कि हाल ही में ख़त्म हुए वित्तीय वर्ष 2018-19 के दौरान सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि की दर 7 प्रतिशत के नीचे पहुँच गई है, जो पिछले साल का न्यूनतम स्तर है। याद दिला दें कि नरेंद्र मोदी सरकार ने इसी साल जीडीपी दर की गणना करने का आधार वर्ष बदल दिया था। इसका मक़सद यह दिखाना था कि इस सरकार के दौरान जीडीपी दर मनमोहन सिंह सरकार की जीडीपी दर से ऊँची है। ताज़ा जीडीपी वृद्धि दर नए आधार वर्ष के मुताबिक ही है। अब सरकार के पास कोई बहाना नहीं बचा है, इसे यह मानना होगा कि विकास दर बीते 5 साल के न्यूनतम स्तर पर है।फिसलती अर्थव्यवस्था
लेकिन इसके साथ ही यह भी देखना होगा कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति क्या है। सच तो यह है कि अर्थव्यवस्था के सभी इंडीकेटर यही बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था धीमी चल रही है, लगतार फ़िसल रही है।सोसाइटी ऑफ़ ऑटो मैन्युफ़ैक्चरर्स ने बीते महीने जारी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कार की बिक्री शहरी इलाक़ों में वित्तीय वर्ष 2018-19 के दौरान सिर्फ़ 2.70 प्रतिशत की दर से बढ़ी। यह पिछले 5 साल का न्यूनतम स्तर है। भारतीय अर्थव्यवस्था दिसंबर महीने में 6.60 प्रतिशत की दर से बढ़ी, जो बीते 5 साल का न्यूनतम है।
वाहनों की बिक्री गिरी
इकोनॉमिक टाइम्स की ख़बर के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2017-18 के दौरान निसान मोटर ने 38 तो हुंदे ने 23 डीलर बंद कर दिए। होंडा, मारुति, महिंद्रा एंड महिंद्रा और टाटा मोटर्स के डीलर भी कामकाज समेटने पर मजबूर हुए। मोटरगाड़ी बिक्री में गिरावट से यह स्पष्ट होता है कि पूरे कार उद्योग पर संकट है। गाड़ी कम बिकने का मतलब है कि कम गाड़ियाँ बनाई गई हैं, यानी कम उत्पादन हुआ है। कम उत्पादन का मतलब है कि ऑटो सेक्टर में मंदी है।सेवा क्षेत्र में गिरावट
बीते महीने जारी मासिक आर्थिक सर्वेक्षण से यह बात सामने आई कि सेवा क्षेत्र दो साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया है। निकेई इंडिया सर्विस बिज़नेस एक्टिविटी इनडेक्स अप्रैल के अंत में गिर कर 51 अंक पर पहुँच गया। यह पिछले साल के सितंबर के अंक से भी नीचे है। इसकी एक वजह चुनाव की वजह से सेवा क्षेत्र के कामकाज में आई अड़चन मानी जाती है, पर चुनाव अकेला कारण नहीं है। समझा जाता है कि यह दिखाता है कि पूरी अर्थव्यवस्था ही धीमी रफ़्तार से चल रही है।उपभोक्ता सामानों की माँग घटी
इसके पहले यह ख़बर आई थी कि तेल-साबुन और खाने-पीने जैसे उपभोक्ता सामान की माँग घट गयी है। नीलसन की रिपोर्ट में कहा गया है कि तत्काल खपत उपभोक्ता माल यानी एफ़एमसीजी उद्योग की वृद्धि दर धीमी होकर इस साल 11-12 प्रतिशत रह जाने की संभावना है। यह वर्ष 2018 के मुकाबले क़रीब दो प्रतिशत कम होगा। इसे अर्थव्यवस्था के धीमी होने या विकास की रफ़्तार के कम होने का संकेत माना जाता है। इसका साफ़ अर्थ यह हुआ कि सामान ख़रीदने की लोगों की क्षमता कम हुई है। इससे यह भी पता चलता है कि लोगों की आय में गिरावट आयी है।औद्योगिक उत्पादन वृद्धि दर भी घटी
मार्च में ही एक और अर्थव्यवस्था की ख़राब तसवीर आयी थी। देश की औद्योगिक उत्पादन वृद्धि दर जनवरी 2019 में पिछले वर्ष की समान अवधि के 7.5 फ़ीसदी से घटकर 1.7 फ़ीसदी हो गई है। यह बड़ी गिरावट है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी सीएसओ के आधिकारिक आँकड़े में कहा गया है कि माह-दर-माह आधार पर भी औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) की वृद्धि दर में गिरावट आयी है। माना जा रहा है कि विनिर्माण क्षेत्र, विशेष रूप से पूँजीगत सामान और उपभोक्ता सामान क्षेत्र के सुस्त प्रदर्शन की वजह से आईआईपी की वृद्धि दर कम हुई है। रेटिंग एजेंसी केयर ने भी कुछ ऐसे ही कारण गिनाए हैं। इसका कहना है कि विनिर्माण क्षेत्र में गिरावट का अंदाज़ा पहले से ही था। इसके अलावा पहले से ही बड़ा स्टॉक पड़ा हुआ था और माँग नहीं बढ़ने से उत्पादन में कमी आयी।बात घूम कर फिर वहीं पहुँचती है। क्या कोई सरकार इन तमाम चीजों की अनदेखी कर सकती है? खास कर तब जब चुनाव ख़त्म हो चुके हों और लोगों को अब नारेबाज़ी नहीं, काम चाहिए। अर्थव्यवस्था पर लिए गए फ़ैसलों का नतीजा आते-आते थोड़ा समय लगेगा। इसलिए मोदी सरकार 2.0 अर्थव्यवस्था पर ध्यान देगी, इसे साबित करने के लिए उसे समय देना होगा।