देश के 108 बड़े अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक आँकड़ों के साथ जान बूझ कर की जा रही छेड़छाड़ पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि आँकड़े इकट्ठा करने वाली संस्थानों की स्वायत्तता ख़त्म की जा रही है और उन पर दबाव डाल कर मनमाफ़िक आँकड़े और नतीजे जारी करवाए जा रहे हैं।
साझे बयान में कहा गया है कि सेंट्रल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस, नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन जैसे संस्थान महत्वपूर्ण आँकड़े इकट्ठे करते हैं और उन्हें जनहित में जारी करते हैं। यह उम्मीद की जाती है कि इन संस्थानों के कामकाज में किसी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होगा और इनके दिए आँकड़ों की विश्वसनीयता पर कोई संदेह नहीं करेगा। आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोणों से जारी आँकड़ों की विश्वसनीयता की वजह से इन संस्थानों की पिछले कई दशक से काफ़ी प्रतिष्ठा रही है। इनके लगाए गए अनुमानों की गुणवत्ता की आलोचना तो कभी कभी हुई है, पर इसे कभी राजनीतक वजहों से प्रभावित नहीं किया गया है न ही नियंत्रित किया गया है।
बयान में चिंता जताई गई है कि बीते कुछ समय से आर्थिक आँकड़ों से जुड़े संस्थानों पर राजनीतिक दबाव डाले गए हैं और उन्हें नियंत्रित भी किया गया है।
दरअसल, बीते कुछ समय से सरकार ने इन संस्थानों पर दबाव डाल कर अपनी सुविधा के मुताबिक़ आँकड़ों में फेरबदल किया है। ये फेरबदल इसलिए कराए गए कि सरकारी दावों की पुष्टि की जा सके। अर्थशास्त्रियों ने अपने साझे बयान में कुछ उदाहरण भी दिए हैं।
जीडीपी वृद्धि दर से छेड़छाड़
साल 2015 में सकल घरेलू उत्पाद दर गणना करने का आधार वर्ष (बेस ईयर) बदल कर 2011-12 कर दिया गया। इस वजह से साल 2012-13 और 2013-14 के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर बढ़ गई। इसके बाद जो भी जीडीपी वृद्धि दर जारी की गई, वह पहले से बढ़ी हुई थी। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि साल 2016-17 में जीडीपी वृद्धि दर 8.2 पहुँच गयी, जो पहले से 1.1 प्रतिशत ज़्यादा थी। यह पूरे दशक का सबसे ऊंची दर थी। लेकिन यह दूसरे आर्थिक मानकों पर खरा नहीं उतरता है।साल 2018 में दो अलग-अलग विकास दरें दिखाई गईं। ये दोनों विकास दर एक दूसरे के बिल्कुल उलट थीं। बाद में नीति आयोग के आधिकारिक वेबसाइट से सीएसओ के बढ़े हुए विकास दर को ही रखा गया और पहले के मौलिक विकास दर को हटा दिया गया। इससे संस्थानों की विश्वसनीयात को बड़ा झटका लगा।
साल 2018 के दिसंबर में नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस ने लेबर फ़ोर्स सर्वे के आँकड़े समय पर जारी नहीं किए। साल 2011-12 के बाद श्रम क्षेत्र से जुड़े आँकड़े पहली बार आने थे, पर वे जारी नहीं किए। इसकी वजह यह थी कि बेरोज़गारी में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई थी।
नेशनल स्टैटिस्टिकल कमीशन के कार्यकारी अध्यक्ष और एक दूसरे वरिष्ठ अफ़सर ने यह माना कि रोज़गार से जुड़े आँकड़े जारी करने में देर की जा रही है और उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। यह पाया गया था कि साल 2017-18 के दौरान बेरोज़गारी में अभूतपूर्व बढ़ोतरी दर्ज की गई थी और इसी कारण से आँकड़ा जारी नहीं किया जा रहा था।
दरअसल हो यह रहा है कि सरकार के कामकाज पर सवाल उठे, इस तरह के तमाम आँकड़ों को छिपाया जा रहा है या बदला जा रहा है।
आंकड़ों से छेड़छाड़ का मामला गंभीर इसलिए है कि सरकार की योजनाओं से लेकर अर्थ जगत से जुड़े देश-विदेश के तमाम फ़ैसले इसी पर लिए जाते हैं। पूरी अर्थव्यवस्था इसी पर काम करती है। यदि यह आँकड़ा ही ग़लत होगा तो अर्थव्यवस्था के तमाम फ़ैसले भी ग़लत होंगे। इसका दूरगामी असर पड़ेगा। तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने कहा था कि उन्हें 'जीडीपी के नए आँकड़े पर ताज्जुब हो रहा है' और वे इसे 'रहस्यमय' मानते हैं। मॉर्गन स्टेनली इनवेस्टमेंट मैनेजमेट कंपनी के रुचिर शर्मा ने इसे 'बुरा मजाक' क़रार दिया। रुचिर शर्मा ने कहा, 'जबसे जीडीपी वृद्धि दर मापने का तरीका बदला गया है, मुझे नहीं पता कि भारत की विकास दर क्या है। पर कंपनियों के कामकाज को देख कर मुझे लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 6-7 प्रतिशत का विकास दर हासिल कर सकती है, चाहे किसी की सरकार आए या जाए।' रिज़र्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन ने इसे टालने के लिए कहा था कि वे इस पर कोई बात करना नहीं चाहते। बाद में रिजर्व बैंक ने इसे न मान कर अर्थव्यवस्था के दूसरे आँकड़ों, मसलन गाड़ियों की बिक्री पर भरोसा करना शुरू कर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने भी कहा कि मोदी सरकार ने जानबूझ कर आँकड़ों के साथ छेड़छाड़ की है।
इसी तरह नोटबंदी के बाद की तिमाही में आर्थिक विकास 6.1 प्रतिशत दिखाया गया, जबकि उसके पिछले साल उसी दरम्यान विकास दर 5.7 प्रतिशत था। यह आंकड़ा ठीक तिमाही पूरा होते ही जारी कर दिया गया था, जबकि आँकड़ा इकट्ठा करने, उस पर अध्ययन करने और उसे प्रकाशित करने के बीच कम से कम तीन हफ़्ते का समय लगता है। ज़ाहिर है, यह आँकड़ा ग़लत था।
सरकार ने दावा किया कि जीएसटी लागू होने के बाद की कर उगाही पिछले साल की कर उगाही से ज़्यादा है। लेकिन आँकड़े इसकी पुष्टि नहीं करते। जीएसटी लागू होने के बाद की कर उगाही पिछले साल की कर उगाही से कम थी। यही बात प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के बारे में कही जा सकती है। सरकार का दावा है कि साल 2017-18 में एफ़डीआई बढ़ा है, जबकि अंकटाड यानी युनाइटेड नेशन्स कमिटी ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट के मुताबिक यह दावा ग़लत है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने चुनाव के ठीक पहले अपनी छवि चमकाने और विकास के अपने दावों को सही ठहराने के लिए कई तरह के आँकड़ों से छेड़छाड़ की हैं। लेकिन वह इसके दूरगामी नतीजों से शायद अनजान है। इन आँकड़ों के आधार पर ही सरकार अपनी नीतियाँ तय करेगी, योजनाएँ बनाएगी, बैंक और बीमा कंपनियाँ अपना काम करेंगी, तमाम कंपनियाँ अपना कामकाज करेंगी। ग़लत आँकड़ों की वजह से ये तमाम चीजें बुरी तरह प्रभावित होंगी।