पिछले सितंबर की तिमाही में देश की जीडीपी में आश्चर्यजनक रूप से गिरावट देखने को मिली। यह घटकर 5.4 फीसदी रह गया था जबकि उसके पहले की तिमाही में यह 6.7 फीसदी से भी ज्यादा था। इसके पहले अप्रैल-जून तिमाही में विकास की दर 6.7 फीसदी थी। 2023 में इसी तिमाही में विकास दर 8.1 फीसदी रही। यानी पहले जीडीपी विकास की दर बेहतरीन थी और वित्त मंत्रालय आने वाले समय के लिए भी आशान्वित था।
अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां और यहां तक कि विश्व बैंक भी कह रहा था कि भारत की जीडीपी विकास की दर 6.5 फीसदी से भी ज्यादा रहेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और जो हुआ वह अप्रत्याशित था। बढ़ती महंगाई, मैन्युफैक्चरिंग में गिरावट, खदान क्षेत्र में निराशाजनक प्रदर्शन से जीडीपी में वह गति नहीं आई जिसकी अपेक्षा थी। दरअसल देश के मिडल क्लास की हालत इस समय खराब है। वह मिडल क्लास जिसके कंधों पर जीडीपी विकास की गति को बढ़ाने की जिम्मेदारी है, अब थक कर हांफने लगा है।
प्राइस आइस 360 सर्वे के अनुसार, वित्त वर्ष 2021 में भारत की कुल आबादी में मिडिल क्लास का हिस्सा 30 फीसदी था। यह अगले 10 वर्षों यानी वित्त वर्ष 2031 तक बढ़कर 47 फीसदी और वित्त वर्ष 2047 तक 61 फीसदी हो जाने की उम्मीद है। दूसरे शब्दें में कहें तो जब भारत आजादी के सौ साल पूरे कर रहा होगा, तब भारत में मिडिल क्लास के लोगों की संख्या 1अरब से ज्यादा हो जाएगी। अब यही मिडल क्लास अपनी खपत से देश में कारखानों के पहियों को चलाता-दौड़ाता रहता है। लेकिन अब यह खरीदारी नहीं कर पा रहा है और इससे देश में खपत के आंकड़े निराशा पैदा कर रहे हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दो साल पहले अपने बजट भाषण में कहा था कि देश खपत बढ़ने से ही जीडीपी विकास में तेजी आई है। लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है।
इस समय जबकि महंगाई मिडल क्लास को तकलीफ दे रही है, मकानों के किराये ब़ढ़ गए हैं, स्कूलों की फीस में बेइंतिहां बढ़ोतरी हो रही है और ट्रांसपोर्ट पर होने वाला खर्च भी बढ़ गया है, मिडल क्लास की आर्थिक स्थिति डगमगाने लगी है। उसकी सैलरी भी स्थिर हो गई है जिससे वह सामान्य से भी कम खरीदारी कर रहा है।
देश में बेरोजगारी भी बढ़ी है, हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि यह सही में कितना है। इस कोविड के बाद से नौकरियों में स्थिरता कम हो गई है और प्राइवेट कंपनियों के कर्मचारी एक तरह की अनिश्चितता में जी रहे हैं और अतिरिक्त खर्च करने से कतरा रहे हैं। इसका असर छोटी कारों की बिक्री पर साफ दिखाई दे रहा है। मार्केट रिसर्चर नीलसन ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि अप्रैल से जून 2024 तक भारत में शहरी खपत में काफी गिरावट देखने में आई है और यह पर्सनल केयर उत्पादों और पैकेज्ड आटे की मांग में भारी गिरावट आई है जिससे इन्हें बनाने वाले उद्योगों के राजस्व में गिरावट आई है।
2024 की दूसरी तिमाही में उन उद्योगों की बिक्री में गिरावट आई और ये घटकर 3.8 फीसदी पर पहुंच गई जबकि पिछले चार तिमाहियों में यह 6.4 फीसदी और 6.8 फीसदी थी। इस गिरावट का मुख्य कारण रहा है महंगाई का बढ़ना। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में खुदरा मुद्रास्फीति की दर 5 फीसदी थी जबकि सच यह है कि यह इससे कहीं ज्यादा थी। रोजमर्रा के सामान जैसे दाल, तेल वगैरह की कीमतें आसमान छू रही थीं और अभी भी उच्च स्तर पर है। कोविड के कहर से निकले भारत के तेज गति से विकास की गति पर यह अंकुश लगना आने वाले वक्त के लिए एक चुनौती है।
अब सरकार के सामने कम ही विकल्प हैं। उसे अपने खजाने का मुंह खोलना होगा यानी पब्लिक स्पेंडिंग बढ़ानी होगी। वैसे इस समय देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं पर केन्द्र सरकार काफी खर्च कर रही है लेकिन इसमें और बढ़ोतरी की जरूरत है। लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है कि वह मिडल क्लास को समर्थ बनाये ताकि वह पहले की ही तरह खर्च करे। इसी मिडल क्लास की खपत करने की शक्ति से भारत ने जीडीपी ग्लोबल रैंकिंग में ब्रिटेन को पछाड़कर दुनिया में पांचवां स्थान पाया था और अब 2025 में वह जर्मनी से आगे जाकर चौथे स्थान पर पहुंचने वाला था। लेकिन अब ऐसा नहीं लगता है कि यह इस साल संभव हो पायेगा।
महंगाई पर कोई अंकुश नहीं है और रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति इस दिशा में कारगर होती नहीं दिख रही है। इसका मतलब साफ है कि सरकार को ही कुछ ठोस उपाय करना होगा। एक सीधा सा रास्ता है कि इनकम टैक्स में कटौती हो ताकि मिडल क्लास को राहत मिले। पिछले कई वर्षों से सरकार ने इनकम टैक्स में कटौती नहीं की है। अब समय आ गया है कि इसमें इतनी कटौती हो कि उसका असर लोगों की जिंदगी पर दिखे।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 12 जनवरी तक देश में डायरेक्ट टैक्स यानी इनकम टैक्स वगैरह की वसूली में लक्ष्य से 12.9 फीसदी ज्यादा की वसूली हुई और यह बढ़कर 20.64 लाख करोड़ रुपये हो गया है। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार ने इस मद में 16 फीसदी अधिक टैक्स बटोरा। यही हाल परोक्ष टैक्सों रहा। देश में जीएसटी वसूली में लगातार बढोतरी हो रही है और दिसंबर महीने में ही यह पिछले साल के इसी महीने की तुलना में 7.2 फीसदी बढ़ गई। लेकिन नवंबर माह की तुलना में यह 3 फीसदी कम है। यही सरकार के लिए भी चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि देश में खपत में गिरावट आई है और लोग खासकर मिडल क्लास के लोग कम खरीदारी कर रहे हैं।
जाहिर है कि सरकार को टैक्सों में कटौती करनी होगी और मिडल क्लास को राहत देनी ही होगी। सरकार का खजाना भरा हुआ है। यह समय है कि उसे राजकोषीय घाटे के बारे में फिलहाल सोचना बंद करना होगा। यह अच्छी बात है कि वित्त मंत्रालय राजकोषीय घाटे के बारे में गंभीर रहा है और उसने लक्ष्मण रेखा लांघी नहीं है। लेकिन अब समय आ गया है कि उसे इस बारे में न सोचकर टैक्सों में कटौती के बारे में फैसला लेना होगा। इससे अर्थव्यवस्था में गति आयेगी और फिर राजस्व भी बढ़ेगा।
सरकार को देश में ट्रांसपोर्ट की बढ़ती लागत को थामने का भी प्रयास करना होगा। डीजल की ऊंची कीमतों के कारण देश में परिवहन बहुत महंगा हो गया है। सामान लाने ले जाने की लागत बहुत बढ़ गई है जिसका असर रोजमर्रा के सामानों पर भी साफ दिख रहा है। सरकार ने रूस से सस्ती दरों पर कच्चा तेल खरीदा और उसे रिफाइन करके अच्छा पैसा कमाया लेकिन इसका लाभ भारत की जनता को नहीं मिला। इस अतिरिक्त लाभ का फायदा टैक्सपेयर को टैक्स राहत के रूप में मिले और वह अर्थव्यवस्था को गति प्रदान कर सके। पिछले बजट में वित्त मंत्रालय ने मिडल क्लास को राहत देने का एक सुनहला मौका गंवा दिया था सिर्फ यह विचार करके कि इससे राजकोषीय घाटे को कम किया जा सकता है। यह नीति कारगर नहीं रही और अब इसका असर पूरी अर्थव्यवस्था पर दिख रहा है जो धीमी होती जा रही है।
मिडल क्लास के साथ इस देश के कोरोड़ों बुजुर्गों को भी राहत और सुविधा चाहिए। इस देश में सस्ती स्वास्थ्य सेवाओं की कमी है। और ऐसे में स्वास्थ्य बीमा बहुत जरूरी हो जा रहा है। लेकिन भारत में स्वास्थय बीमा पर भारी टैक्स है। जीएसटी के रूप में सरकारें इस पर 18 फीसदी की दर से वसूली कर रही है। यह लाखों लोगों को बीमा सुविधा से दूर रखता है। केन्द्र सरकार को चाहिए कि जीएसटी काउंसिल पर दबाव डालकर इसे खत्म करवाये क्योंकि यह एक अन्यायपूर्ण टैक्स है।
बहरहाल गेंद वित्त मंत्री के पाले में है और अब देखना है कि वह कितनी राहत उस विशाल वर्ग को दे सकती है जिसने उनकी पार्टी को लोक सभा चुनाव जितवाने में उसकी पार्टी को मदद की है। यह रेवड़ियां बांटने जैसी बात नहीं है बल्कि अर्थव्यवस्था को गतिमान करने वाले वर्ग के अहसान को चुकाने की बात है। उसकी उपेक्षा बहुत महंगी पड़ेगी।