क्रय शक्ति बढ़ाने पर ध्यान नहीं, दिशाहीन है यह बजट! 

01:34 pm Feb 02, 2021 | जस्टिस मार्कंडेय काटजू - सत्य हिन्दी

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में जो बजट पेश किया है, वह दिशाहीन और अवास्तविक है, हालांकि यह दावा किया गया है कि यह भारत को आत्मनिर्भर बना देगा।

यह स्वास्थ सेवा, राजमार्गों और महानगरों के निर्माण (विशेषकर उन राज्यों में जहाँ जल्द ही चुनाव होंगे), और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के विनिवेश पर जोर देता है। लेकिन भारतीय लोगों के लिए भोजन और नौकरियों के बिना ये कदम क्या करेंगे?

3.5 लाख किसानों ने की आत्महत्या?

वर्तमान में चल रहे किसान आन्दोलन से हमारी अर्थव्यवस्था के कृषि क्षेत्र में भयानक संकट का पता चलता है। लगभग 3.5-4 लाख किसानों ने पिछले 25 वर्षों में आत्महत्या की है क्योंकि वे क़र्ज़ में थे। किसानों को उनकी उपज के लिए पर्याप्त पारिश्रमिक नहीं मिल रहा है।

किसान आन्दोलन क्यों?

विश्व के लगभग सभी देशों में कृषि सब्सिडी दी जाती है, यहाँ तक कि सबसे उन्नत देश अमेरिका में भी। मोटर कार, टीवी सेट या अन्य औद्योगिक उत्पादों के बिना जीवित रहा जा सकता है। लेकिन भोजन, हवा और पानी की तरह, जीवन के लिए बिल्कुल आवश्यक है। इसलिए कृषि अन्य उद्योगों से बहुत अलग है। 

कृषि करना आवश्यक है, चूंकि आधुनिक कृषि का काम सब्सिडी के बिना नहीं किया जा सकता है, राज्य को सुनिश्चित करना चाहिए कि किसानों को उनकी उपज के लिए पर्याप्त पारिश्रमिक मिलता रहे है, क्योंकि किसान घाटे में खेती नहीं करेगा।

अर्थव्यवस्था में मंदी

हाल के महीनों में, भारतीय अर्थव्यवस्था में भारी मंदी आई है, जिससे निर्माण और बिक्री दोनों में तेज़ गिरावट आई है,  जैसे ऑटो सेक्टर, रियल एस्टेट सेक्टर में बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर तक पहुँचने के  कारण बड़े पैमाने पर छँटनी हुई है। भारत में हर दूसरा बच्चा कुपोषित है, और हर दूसरी महिला एनीमिक है। कोविद ने मुसीबतों में इजाफ़ा किया है।

इसी समय, भोजन और ईंधन की कीमतें बढ़ गई हैं। भविष्य और भी निराशाजनक दिखता है, और राजनीतिज्ञों को नहीं मालूम है कि इस संकट को हल करने का क्या तरीका है। वे केवल ध्यान भटकाने के लिए कोई न कोई नाटक करते रहते हैं, जैसे गोरक्षा, योग दिवस, स्वच्छ भारत अभियान, अनुच्छेद 370 का ख़ात्मा, नागरिकता संशोधन अधिनियम, और मुसलमानों को देश की सभी समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार ठहराना, जैसा जैसे नात्सी जर्मनी ने यहूदियों के साथ किया था। 

तब, इस आर्थिक संकट से निकलने का असली रास्ता क्या है?

औद्योगिकीकरण

जिस तरह से न केवल किसानों को एमएसपी दिया जाना चाहिए, देश का तेजी से औद्योगिकीकरण भी होना चाहिए,  क्योंकि यही बेरोज़गारी ख़त्म करने और लोगों के कल्याण के लिए आवश्यक धन का सृजन करने के लिए एकमात्र उपाय हैI इससे करोड़ों नौकरियाँ भी पैदा होंगीI

आज का भारत 1947 का भारत नहीं है। उस समय हमारे पास बहुत कम उद्योग और बहुत कम इंजीनियर थे, क्योंकि ब्रिटिश शासकों की नीति मोटे तौर पर हमें सामंती और पिछड़ा रखना थाI आज़ादी के बाद, सीमित औद्योगीकरण  हुआI आज हमारे पास हजारों इंजीनियर, तकनीशियन और वैज्ञानिक हैं, अपार प्राकृतिक संसाधन हैं। इनसे हम आसानी से तेजी से औद्योगिक उत्पादन बढ़ा सकते हैं।

समस्या यह नहीं है कि उत्पादन कैसे बढ़ाया जाए, बल्कि भारतीय जनता की क्रय शक्ति कैसे बढ़ाई जाए।

उपाय क्या है?

भारत में हमारे पास बहुत सारे अर्थशास्त्री हैं, जिनमें से कई ने हॉर्वर्ड, येल या लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पीएचडी हैं, लेकिन किसी के पास कोई धारणा नहीं है कि यह कैसे किया जा सकता है। इसलिए मैं अपने विचार प्रस्तुत करना चाहूंगा।

1914 में अमेरिकी उद्योगपति हेनरी फ़ोर्ड ने अपने कर्मचारियों की मज़दूरी 2.25 डॉलर रोज़ाना से बढ़ा कर 5 डॉलर रोज़ाना कर दी। यह निश्चित रूप से अपने कार्यबल को स्थिर करने के लिए किया गया था, लेकिन इसने अमेरिकी जनता की क्रय शक्ति को बढ़ाया, क्योंकि अन्य अमेरिकी निर्माताओं को भी ऐसा करने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह संभावना नहीं है कि भारतीय उद्योगपति इसी तरह करेंगे।

सोवियत मॉडल?

सोवियत संघ में 1928 में प्रथम पंचवर्षीय योजना को अपनाने के बाद औद्योगिकीकरण तेज़ी से शुरू हुआ। सोवियत संघ की सरकार ने सभी वस्तुओं की कीमतें तय कर दीं और हर दो साल में उन्हें 5-10 प्रतिशत तक कम किया गया, कभी-कभी मजदूरी में 5-10 प्रतिशत की वृद्धि की गई। इस कारण अब मज़दूर अधिक सामान खरीद सकता था, क्योंकि कीमतें नियमित रूप से कम हो गई थीं।

रूसी जनता की क्रय शक्ति राज्य की कार्रवाई से बढ़ गई थी, और इस प्रकार घरेलू बाज़ार में लगातार विस्तार हुआ। उत्पादन में भी वृद्धि हुई और बढ़े हुए उत्पादन को बेचा जा सकता था, क्योंकि लोगों के पास क्रय शक्ति अधिक थी।

कैसे बढ़े क्रय शक्ति?

यह प्रक्रिया 1928 के बाद तेज़ी से आगे बढ़ी, जिसके परिणामस्वरूप सोवियत अर्थव्यवस्था का तेज़ी से विस्तार हुआ और बेरोज़गारी को मिटाते हुए लाखों नौकरियों का निर्माण हुआ।

यही 1929 की वॉल स्ट्रीट मंदी के समय हुआ, जिसके बाद अमेरिका और अधिकांश यूरोप में 'ग्रेट डिप्रेशन' यानी महामंदी आई थी। इस कारण हज़ारों कारखाने बंद हो गए और करोड़ों मज़दूर बेरोज़गार हो गएI

मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि हमें भारत में सोवियत मॉडल को अपनाना चाहिएI चाहे हम इसे निजी उद्यम या राज्य कार्रवाई द्वारा करें, हमें भारतीय जनता की क्रय शक्ति को बढ़ाना होगा।

मुझे यह कहते हुए खेद है कि बजट में इस सब पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया है।