सुप्रीम कोर्ट ने कहा- धर्मनिरपेक्षता संविधान की सबसे खास विशेषता

10:09 am Oct 22, 2024 | सत्य ब्यूरो

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को इस बात पर जोर दिया कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की एक "खास विशेषता" है। जिसे इसकी मूल संरचना का हिस्सा माना गया है। जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा- “इस न्यायालय के कई निर्णय हैं जो बताते हैं कि धर्मनिरपेक्षता हमेशा संविधान की मूल संरचना का हिस्सा थी। अगर कोई संविधान में लिखे गये समानता के अधिकार और भाईचारे शब्द के साथ-साथ भाग III के तहत तमाम मौलिक अधिकारों को देखता है, तो एक स्पष्ट संकेत है कि धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मुख्य विशेषता के रूप में रखा गया है।“

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में "समाजवाद" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को शामिल करने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, वकील विष्णु शंकर जैन और अन्य ने याचिकाएं दायर कर इन शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाने की मांग की है। जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की बेंच ने सुनवाई के दौरान साफ कर दिया कि ये शब्द संविधान की प्रस्तावना में क्यों शामिल किये गये हैं।

1976 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पेश किए गए 42वें संवैधानिक संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में "समाजवाद" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्द शामिल किए गए थे। इस संशोधन ने संविधान की प्रस्तावना में भारत को "संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य" से बदलकर "संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य" कर दिया।

सुनवाई के दौरान, जैन ने कहा कि डॉ. बीआर अंबेडकर ने कहा था कि "समाजवाद" शब्द को शामिल करने से व्यक्तिगत स्वतंत्रता में कमी आएगी। उन्होंने कहा कि प्रस्तावना को संशोधनों के माध्यम से संशोधित नहीं किया जा सकता है।

इस पर जस्टिस खन्ना ने कहा कि समाजवाद के अलग-अलग अर्थ हैं और किसी को "पश्चिमी देशों में अपनाए गए अर्थ को नहीं लेना चाहिए।"

समाजवाद शब्द का मतलब यह भी है कि अवसर की समानता और देश की संपत्ति का समान रूप से वितरण।'


-सुप्रीम कोर्ट, 21 अक्टूबर 2024 सोर्सः लाइव लॉ

याचिकाकर्ताओं में से एक अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि वह न तो "समाजवाद, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता" शब्दों के खिलाफ हैं और न ही उन्हें संविधान में शामिल करने के खिलाफ हैं। बल्कि 1976 में इन शब्दों को प्रस्तावना में शामिल करने के खिलाफ हैं। जबकि प्रस्तावना तो 26 नवंबर 1949 से लागू है। उन्होंने कहा कि एक शब्द जोड़ने से देश पर कोई वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ता है, लेकिन भविष्य की सरकारों के लिए विवाद और भ्रम का पिटारा खुल जाता है, जो इसके साथ खेल सकते हैं और प्रस्तावना से शब्द हटा सकते हैं।

दूसरी ओर, सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि प्रस्तावना 26 नवंबर, 1949 को की गई एक घोषणा थी और इसलिए बाद के संशोधन के माध्यम से इसमें और शब्द जोड़ना मनमानापन था। उन्होंने कहा कि यह चित्रित करना गलत है कि वर्तमान प्रस्तावना के अनुसार, भारतीय लोग 26 नवंबर, 1949 को भारत को एक समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बनाने के लिए सहमत हुए थे। पीठ ने कहा कि वह मामले की जांच करेगी और इसे 18 नवंबर को आगे की सुनवाई के लिए पोस्ट कर दिया।

9 फरवरी को शीर्ष अदालत ने सवाल किया था कि क्या संविधान को अपनाने की तारीख 26 नवंबर, 1949 को बरकरार रखते हुए प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है। जस्टिस दत्ता ने उस समय टिप्पणी की थी, "शैक्षणिक मकसद के लिए, क्या एक प्रस्तावना जिसमें तारीख का उल्लेख है, को अपनाने की तारीख में बदलाव किए बिना बदला जा सकता है। लेकिन, हां प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है। इसमें कोई समस्या नहीं है।"

वकील विष्णु शंकर जैन ने कहा कि भारत के संविधान की प्रस्तावना एक निश्चित तारीख के साथ है, इसलिए बिना चर्चा के इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता। स्वामी ने कहा कि 42वां संशोधन अधिनियम आपातकाल (1975-77) के दौरान पारित किया गया था। 2 सितंबर, 2022 को शीर्ष अदालत ने स्वामी की याचिका को सुनवाई के लिए बलराम सिंह और अन्य द्वारा दायर अन्य लंबित मामले के साथ टैग कर दिया था। स्वामी और सिंह दोनों ने प्रस्तावना से "समाजवाद" और "धर्मनिरपेक्ष" को हटाने की मांग की है।

स्वामी ने अपनी याचिका में दलील दी है कि प्रस्तावना को बदला, संशोधित या निरस्त नहीं किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि प्रस्तावना में न केवल संविधान की आवश्यक विशेषताओं को दर्शाया गया है, बल्कि उन मूलभूत शर्तों को भी दर्शाया गया है जिनके आधार पर एक एकीकृत समुदाय बनाने के लिए इसे अपनाया गया था।