कश्मीर में जबरन धर्मांतरण पर क्यों चुप हैं उलेमा और मुसलिम संगठन?

01:06 pm Jun 30, 2021 | यूसुफ़ अंसारी - सत्य हिन्दी

जम्मू-कश्मीर में हैरान करने वाला मामला सामने आया है। आरोप है कि कश्मीर घाटी में दो सिख लड़कियों को अग़वा करके पहले उनका जबरन धर्मातंरण कराया गया। फिर उनका निकाह उनसे कहीं ज़्यादा उम्र के लोगों से करवा दिया गया। इसे लेकर बवाल मचा हुआ है। संघ के लव जिहाद जैसे मुद्दे पर मुसलमानों के साथ खड़ा रहने वाला सिख समुदाय इस घटना से उसके ख़िलाफ़ हो गया है।  

क्या है मामला?

एक घटना श्रीनगर के रैनावाडी की है। आरोप है कि वहां 18 साल की एक सिख लड़की का जबरन धर्मांतरण कराके 62 साल के एक बुज़ुर्ग से उसका निकाह करा दिया गया। बताया जाता है कि वो पहले से ही शादीशुदा और कई बच्चों का बाप है। 

लड़की के परिवार का कहना है कि बंदूक की नोंक पर लड़की का अपहरण किया गया। स्थानीय पुलिस ने 36 घंटे में लड़की को परिवार को सौंपने का आश्वासन दिया था। लेकिन श्रीनगर की अदालत ने शादी को वैध बताकर लड़की को 62 वर्ष के बुज़ुर्ग के साथ भेज दिया। दूसरी घटना श्रीनगर के महजूर नगर की है। वहां भी एक लड़की की जबरन शादी कराने का आरोप है।  

सिखों की एकजुटता

इस घटना के बाद जम्मू-कश्मीर से लेकर दिल्ली तक के सिख एकजुट होकर सड़कों पर उतर आए। दिल्ली की सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मनजिंदर सिंह सिरसा ने महत्वपूर्ण सवाल उठाया है। उन्होंने राज्य के पूर्व मुख्यमंत्रियों और मुसलिम धर्मगुरुओं से दो टूक पूछा है कि आख़िर वो इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर चुप क्यों हैं? 

सिरसा का आरोप है कि कश्मीर घाटी में हिंदू और सिख लड़कियों का जबरन धर्मांतरण और मुसलिमों से उनके निकाह का सिलसिला योजनाबद्ध तरीक़े से चल रहा है।

क़ानून की मांग

सिखों का आरोप है कि घाटी में हिंदू और सिख लड़कियों का जबरन धर्मांतरण कराके शादी की घटनाएं पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से प्रेरित हैं। उनका आरोप है कि ये सिलसिला लंबे समय से चल रहा है। लेकिन प्रकाश में अब आया है। 

सिखों ने इसे रोकने के लिए यूपी और मध्य प्रदेश की तरह जम्मू-कश्मीर में भी सख्त क़ानून बनाने की मांग की है। सिखों ने जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से शिकायत करके इस सिलसिले को ख़त्म करने के लिए ठोस क़दम उठाने की मांग की है। 

कश्मीरियत पर दाग़

जबरन धर्मांतरण बेहद गंभीर और संगीन अपराध है। ये देश के संविधान की मूल भावना और क़ानून के ख़िलाफ तो है ही। इसे नैतिक रूप से भी सही नहीं ठहराया जा सकता। न प्रत्यक्ष रूप से इसका समर्थन किया जा सकता है और न ही अप्रत्यक्ष रूप से। कश्मीर अपनी ख़ास मिलीजुली तहज़ीब के लिए पहचाना जाता है। इसे कश्मीरियत कहते हैं। जबरन धर्मांतरण की ये घटनाएं कश्मीरियत पर बदनुमा दाग़ हैं।     

ज़िम्मेदारों की चुप्पी

दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जम्मू-कश्मीर के ज़िम्मेदार लोगों ने इस पूरे मामले पर या तो चुप्पी साध रखी है या फिर बहुत सधी हुई प्रतिक्रिया दी है। राज्य के चार पूर्व मुख्यमंत्रियों में से दो ने इस पूरे मामले पर ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली है। 

डॉ. फ़ारूक़ अब्दुल्ला और ग़ुलाम नबी आज़ाद पूरे मामले पर चुप हैं। दोनों का न कोई बयान आया और न ही इन्होंने ट्विटर पर कोई प्रतिक्रिया दी। बाक़ी बचे दो पूर्व मुख्यमंत्रियों ने घटना से सिख-मुसलिम में पड़ रही दरार पर तो अफ़सोस  जताया है लेकिन जबरन धर्मांतरण जैसे अतिसंवेदनशील मुद्दे पर एक शब्द भी नहीं कहा। 

महबूबा का दर्द

जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने ट्विटर पर इस घटना को लेकर अपना दुख साझा किया है। उन्होंने धर्मांतरण पर एक शब्द भी नहीं कहा। उन्होंने उम्मीद जताई है कि इस मामले की आख़िरी तह तक जांच होगी और सच सामने आएगा। ऐसा लगता है कि जबरन धर्मांतरण की घटना पर उन्हें यक़ीन नहीं है। 

उन्होंने लिखा है, “कश्मीर में दो सिख लड़कियों की घटना की ख़बर सुनकर व्यथित हूं। जम्मू-कश्मीर में मुसलिम और सिख सबसे बुरे समय में शांति से सह-अस्तित्व में रहे हैं। उम्मीद है कि जांच एजेंसियां इस मामले की तह तक तेज़ी से पहुंचेंगी।” 

उमर की चिंता

सूबे के दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी धर्मांतरण के मूल मुद्दे से ज़्यादा इस घटना से दरकती सिख-मुसलिम एकता को लेकर चिंतित दिखे। उन्होंने भी जबरन धर्मांतरण पर एक शब्द तक नहीं कहा। उन्हें भी ये घटना सिख और मुसलिम समुदाय के बीच दूरियां पैदा करने की साज़िश लगती है।

उन्होंने लिखा है, “कश्मीर में सिखों और मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने के किसी भी कदम से जम्मू-कश्मीर को अपूरणीय क्षति होगी। सदियों पुराने रिश्तों को नुकसान पहुंचाने की अनगिनत कोशिशों को झेलते हुए दोनों समुदायों ने एक-दूसरे का साथ दिया है।”

क्या कहता है इस्लाम?

क़ुरआन में मुसलमानों को हिदायत दी गई है कि ईसाई और यहूदी औरतों को छोड़कर दूसरे धर्मों की स्त्रियों से तब तक विवाह ना करें जब तक कि वे इस्लाम क़ुबूल न कर लें। लेकिन क़ुरआन की इस हिदायत को जबरन किसी का धर्म परिवर्तन के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। अपनी पहचान छुपाकर झूठ बोलकर या दबाव डालकर तो बिल्कुल नहीं। 

क़ुरआन में यह भी साफ़ कहा गया है कि दीन के मामले में कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है। कोई गैर मुसलिम इस्लाम तभी क़ुबूल कर सकता है जब वह दिल से उसे सच्चा दीन माने। किसी को बहला-फुसलाकर, लालच देकर या डरा-धमका इस्लाम क़ुबूल नहीं करवाया जा सकता।

क्या कहता है संविधान?

भारतीय संविधान दो अलग-अलग धर्मों के लोगों को स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत बग़ैर अपना धर्म बदले शादी करने की इजाज़त देता है। धर्म के मामले में विवाद होने पर इस क़ानून का फ़ायदा उठाया जा सकता है। देश में न जाने कितने लोगों ने इसे क़ानून के तहत शादी की हुई है। 

वो बग़ैर अपना धर्म बदले खुशी से एक-दूसरे के साथ जिंदगी गुजार रहे हैं। फिल्म इंडस्ट्री राजनीति और पत्रकारिता जगत में ऐसे हजारों उदाहरण हैं। कभी अंतर धार्मिक विवाह करने के लिए लड़का-लड़की को घर से भागना पड़ता था। लेकिन अब तो इसे काफी हद तक सामाजिक स्वीकार्यता मिल चुकी है। बाकायदा अरेंज्ड मैरिज भी होने लगी हैं। 

आदर्श है अब्दुल्ला परिवार 

अंतर धार्मिक विवाह के मामले में जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला का परिवार आदर्श है। फ़ारूक़ अब्दुल्ला मुसलिम हैं लेकिन उनकी पत्नी मौली ईसाई हैं। उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने दिल्ली के हिंदू आर्मी ऑफिसर की बेटी पायल नाथ से शादी की थी। हालांकि साल 2011 में उनका तलाक़ हो गया। 

फारूक अब्दुल्ला की बेटी सारा ने कांग्रेस नेता और राजस्थान के उप मुख्यमंत्री रहे सचिन पायलट से प्रेम विवाह किया है। उनके दूसरे दामाद ईसाई हैं। अलग-अलग धर्मों में रहते हुए शादी के बंधन में बंधने की वजह से इस परिवार को लेकर कभी कोई सवाल नहीं उठे।

सोच बदलना ज़रूरी

शादी जैसे मामले सांप्रदायिक रंग ना लें, इसके लिए बेहद ज़रूरी है कि मुसलिम समाज के धर्म गुरुओं को आगे आकर समाज को समझाना चाहिए कि अगर कोई लड़की अपना धर्म नहीं बदलना चाहती तो उससे स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत शादी की जा सकती है। 

भारतीय संविधान देश के सभी नागरिकों को अपनी मर्जी से किसी भी धर्म को चुनकर उस पर अमल करने के साथ-साथ उसके प्रचार-प्रसार की भी इजाज़त देता है। ऐसे में शादी के नाम पर किसी को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करना, न तो संवैधानिक रूप से ठीक है और ना ही नैतिक रूप से।

घटना के विरोध में प्रदर्शन करते सिख।

क्यों ख़ामोश हैं उलेमा?

धर्मांतरण जैसे बेहद संवेदनशील मुद्दे पर मौलवियों, मुफ्तियों जैसे मुसलिम धर्मगुरुओं की चुप्पी समझ से परे है। एक तरफ तो ये लोग दावा करते हैं कि इस्लाम मुसलमानों को अपने देश के क़ानूनों को मानने की इजाज़त देता है। दूसरी तरफ स्पेशल मैरिज एक्ट जैसे मुद्दे पर इनके मुंह से एक शब्द नहीं निकलता। 

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मुसलिम समाज में अभी भी बड़े पैमाने पर ऐसे लोग हैं जो यह मानते हैं कि किसी ग़ैर मुसलिम लड़की से तब तक शादी नहीं की जानी चाहिए जब तक कि वह इस्लाम क़ुबूल न कर ले। कई बार इसके लिए दबाव भी बनाया जाता है।

मुसलिम संगठनों की भूमिका

इस मामले में मुसलिम संगठनों की अहम भूमिका हो सकती है। मुसलिम संगठन खुले दिल से अगर इस मुद्दे को समझें और समाज की सोच बदलने के लिए आगे आएं तो शादी के नाम पर आए दिन होने वाले जबरन धर्मांतरण की समस्या से निजात पाई जा सकती है। 

अक्सर यह भी देखा गया है कि अलग-अलग धर्मों के लड़का-लड़की एक दूसरे से प्रेम में पड़ने के बाद कई बार ऑनर किलिंग का शिकार हो जाते हैं। कई प्रेमी युगल घर से भाग कर शादी कर लेते हैं। इनमें से कईयों का तो जिंदगी भर के लिए अपने मां-बाप से रिश्ता नाता टूट ही जाता है। कईयों को रिश्ते सुधारने में बरसों लग जाते हैं।  

आपराधिक चुप्पी

सवाल यह उठता है कि जब प्रेम जाति धर्म देखकर नहीं होता तो फिर शादी क्यों जाति और धर्म देखकर की जाए। ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर मुसलिम धर्मगुरुओं और संगठनों की चुप्पी इस मायने में आपराधिक है कि उनकी ख़ामोशी की वजह से इन मुद्दों पर समाज में बेवजह का तनाव पैदा होता है। इसे रोकने की ज़िम्मेदारी सभी की है। मुसलमानों की तरफ़ से उनके रहनुमाओं की ज़्यादा है।