बंगाल को बाँटने, भारत छोड़ो आन्दोलन को कुचलने की माँग की थी श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने

04:11 pm Jan 13, 2020 | प्रमोद मल्लिक - सत्य हिन्दी

कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट के 150 साल पूरे होने पर इसका नाम बदल कर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर करने से कई सवाल खड़े होते हैं। जब कभी बंगाल अस्मिता की बात उठती है तो कई दशक बीत जाने के बाद भी नेताजी सुभाष चंद्र  बोस और रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे लोगों के ही नाम बंगालियों की जेहन में आते हैं। उनके दर्शन से मुखर्जी का दर्शन मेल खाता है, यह नहीं कहा जा सकता है। 

यह वही श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे, जिन्होंने बंगाल में भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध किया था और उसे कुचलने के उपाय बंगाल के गवर्नर को सुझाए थे। उस समय वह मुसलिम लीग-हिन्दू महासभा के उस साझा सरकार के वित्त मंत्री थे, जिसके नेता मुसलिम लीग के ए. के. फ़जलुल हक़ थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि फ़जलुल हक़ ने ही भारत के दो टुकड़े कर अलग पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव मुसलिम लीग की बैठक में पेश किया था। 

मुसलिम लीग की सरकार

डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी 1941 में मुसलिम लीग की अगुआई में बनने वाली संयुक्त सरकार में शामिल हो गए। यह सरकार हिन्दू महासभा और मुसलिम लीग की साझा सरकार थी, इसमें कांग्रेस नहीं थी। मुसलिम लीग के नेता ए.के. फ़जलुल हक़ इस सरकार के प्रीमियर यानी प्रधानमंत्री थे और श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसके वित्त मंत्री बनाए गए थे। उन दिनों राज्यों के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री ही कहा जाता था। मुखर्जी इस सरकार में अगले 11 महीने तक वित्त मंत्री बने रहे।

इसके पहले 1940 में मुसलिम लीग के लाहौर सम्मेलन में अलग पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव पारित किया जा चुका था। महत्वपूर्ण यह है कि भारत के दो टुकड़े कर मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव फ़जलुल हक़ ने ही रखा था।

जिस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल सरकार में शामिल हुए, उसके पहले ही पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव पारित हो चुका था, और जिस व्यक्ति ने वह प्रस्ताव रखा था, मुखर्जी उनके मातहत मंत्री बने थे।

टुकड़े-टुकड़े गैंग

यह कोई नहीं कह सकता कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी को इसकी कोई जानकारी नहीं थी कि वह जिसकी सरकार में शामिल होने जा रहे हैं, उन्होंने ही भारत को दो टुकड़े करने का प्रस्ताव रखा था। 

हिन्दू महासभा के संस्थापक विनायक दामोदर सावरकर ने ख़ुद श्यामा प्रसाद मुखर्जी के फ़जलुल हक़ सरकार में शामिल होने पर गर्व जताया था और इसे हिन्दू महासभा की कामयाबी के तौर पर पेश किया था। सावरकर ने 1942 में कानपुर में हुए हिन्दू महासभा के 24वें सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था : 

‘बंगाल का मामला मशहूर है। मुसलिम लीग के लोग, जिन्हें कांग्रेस भी अपनी विनयशीलता से नहीं समझा सकी थी, हिन्दू महासभा के संपर्क में आने के बाद समझौता करने को राज़ी हो गए, फ़जुलल हक़ के प्रीमियरशिप में बनी और महासभा के हमारे नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कुशल नेतृत्व में चलने वाली साझा सरकार लगभग एक साल तक सफलतापूर्वक काम करती रही और इससे दोनों ही समुदायों को फ़ायदा हुआ।’

आन्दोलन कुचलने की सिफ़ारिश

हिन्दू महासभा तो भारत छोड़ो आन्दोलन के ख़िलाफ़ था ही, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक ख़त लिख कर अंग्रेज़ों से कहा कि कांग्रेस की अगुआई में चलने वाले इस आन्दोलन को सख़्ती से कुचला जाना चाहिए। मुखर्जी ने 26 जुलाई, 1942 को बंगाल के गवर्नर सर जॉन आर्थर हरबर्ट को लिखी चिट्ठी में कहा, ‘कांग्रेस द्वारा बड़े पैमाने पर छेड़े गए आन्दोलन के फलस्वरूप प्रांत में जो स्थिति उत्पन्न हो सकती है, उसकी ओर मैं ध्यान दिलाना चाहता हूं।'

अंग्रेज़ गवर्नर को लिखी चिट्ठी में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लिखा : 

'किसी भी सरकार को ऐसे लोगों को कुचलना चाहिए जो युद्ध के समय लोगों की भावनाओं को भड़काने का काम करते हों, जिससे गड़बड़ी या आंतरिक असुरक्षा की स्थिति पैदा होती है।’


श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मंत्री, बंगाल सरकार, 26 जुलाई, 1942

इतना ही नहीं, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल के गवर्नर को लिखी उस चिट्ठी में भारत छोड़ो आन्दोलन को सख़्ती से कुचलने की बात कही और इसके लिए कुछ ज़रूरी सुझाव भी दिए। उन्होंने इसी ख़त में लिखा : 

'सवाल यह है कि बंगाल में भारत छोड़ो आन्दोलन को कैसे रोका जाए। प्रशासन को इस तरह काम करना चाहिए कि कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आन्दोलन प्रांत में अपनी जड़ें न जमा सके। सभी मंत्री लोगों से यह कहें कि कांग्रेस ने जिस आज़ादी के लिए आन्दोलन शुरू किया है, वह लोगों को पहले से ही हासिल है।'


श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मंत्री, बंगाल सरकार, 26 जुलाई, 1942

इसी चिट्ठी में मुखर्जी ने लिखा, ‘भारतीयों को ब्रिटिश पर भरोसा करना चाहिए, ब्रिटेन के लिए नहीं, किसी ऐसे लाभ के लिए नहीं जो ब्रिटेन उन्हें दे सकता है, बल्कि सुरक्षा और प्रांत की स्वतंत्रता के लिए।’

मशहूर इतिहासकार आर. सी. मजुमदार इस ख़त के बारे में लिखते हैं : श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस चिट्ठी का अंत कांग्रेस के आन्दोलन के बारे में बताने के साथ किया। उन्होंने इसकी आशंका जताई कि इस आन्दोलन की वजह से आंतरिक गड़बड़ी होगी और आंतरिक सुरक्षा को ख़तरा पैदा हो जाएगा। उन्होंने यह भी लिखा कि इस आन्दोलन को कुचल देना चाहिए। उन्होंने इसके साथ ही यह भी बताया कि किस तरह इस आन्दोलन को कुचला जा सकता है। यह याद दिला दें कि आर. सी. मजुमदार को रोमिला थापर की तरह वामपंथी इतिहासकार कोई नहीं कहता है। ये उनके विचार थे। 

बंगाल विभाजन की माँग

श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर कोलकाता पोर्ट ट्र्सट का नाम रखना बंगाल के साथ क्रूर मजाक इसलिए भी है कि इन्ही मुखर्जी ने बंगाल के विभाजन की माँग की थी। बंगाल का पहली बार विभाजन 1905 में हुआ, लंबे आन्दोलन के बाद उसे 1911 में रद्द कर दिया गया। पर 1946-47 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक बार फिर इसके विभाजन की माँग की।

मुखर्जी ने 2 मई, 1947 को तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड लुईस माउंटबेटन को एक चिट्ठी लिख कर कहा था कि भारत का विभाजन हो या न हो, बंगाल का विभाजन ज़रूर होना चाहिए। यह भी अजीब विडंबनापूर्ण स्थिति है कि बंगाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री हुसैन शहीद सुहरावर्दी बंगाल को एकजुट रखना चाहते थे।

उनकी इस मुहिम में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भाई शरत चंद्र बोस और बंगाल सरकार में मंत्री किरण शंकर राय उनके साथ थे। लेकिन मुखर्जी ने इसका ज़ोरदार विरोध किया था और वह धार्मिक आधार पर प्रांत का बँटवारा चाहते थे।

क्या कहा प्रधानमंत्री ने

प्रधानमंत्री ने कोलकाता में कहा कि सरकार से इस्तीफ़ा देने के बाद डॉ. मुखर्जी के विचारों पर उस तरह से अमल नहीं किया गया जिस तरह से किया जाना चाहिए था। उन्होंने यह भी कहा कि डॉ. मुखर्जी ने देश में औद्योगिकरण की नींव रखी थी। 

सवाल यह है कि मोदी श्यामा प्रसाद मुखर्जी के किन विचारों की बात कर रहे हैं। वे भारत की आज़ादी की लड़ाई को कुचलने का समर्थन करते हैं, भारत के दो टुकड़े करने की नीति का समर्थन करते हैं  या बंगाल के विभाजन की बात का समर्थन करते हैं। 

श्यामा प्रसाद मुखर्जी 1941-42 में कुल मिला कर 11 महीने बंगाल के वित्त मंत्री थे। पर ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता है जिससे यह कहा जा सके कि उन्होंने राज्य के औद्योगिक विकास की नींव रखी थी।

उस समय जिस तरह का सामाजिक-राजनीतिक उथलपुथल चल रहा था, किसी तरह के औद्योगिकीकरण की कल्पना नहीं की जा सकती है और इसके लिए मुखर्जी को ज़िम्मेदार नहीं माना जा सकता है। पर सवाल तो यह है कि प्रधानमंत्री ने जो कहा, उसका क्या मतलब है।

बंगाली अस्मिता के प्रतीक

दरअसल, मोदी श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बहाने पश्चिम बंगाल में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए ज़मीन तैयार करने की कोशिश के तहत ऐसा कर रहे हैं। पर मामला उल्टा पड़ सकता है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी कभी भी पश्चिम बंगाल के आदर्श नहीं रहे। वहां के आदर्श आज भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही हैं। 

पश्चिम बंगाल के लोग यह भी पूछ सकते हैं कि मुखर्जी जिस हिन्दू महासभा में थे, उसके संस्थापक विनायक दामोदर सावरकर ने तो अंग्रेजों की मदद के लिए फ़ौज बनाने में मदद की थी। जब नेताजी ने बर्मा (आज का म्यांमार) को पार करते हुए भारत के पश्चिमोत्तर में हमला किया था तो उन्हें रोकने के लिए अंग्रेज़ों ने उसी फ़ौज को आगे किया था, जो सावरकर की मदद से खड़ी की गई थी।

मोदी का यह मुखर्जी प्रेम उल्टा न पड़ जाए। लेकिन यह मोदी की रणनीति भी हो सकती है। मुमकिन है, वह इसी बहाने बंगाल के लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश कर रहे हों। वह इसी बहाने बंगाल में भी ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हों।