लीजिए, अब संघ छाप नयी शिक्षा नीति में क़ानून की पढ़ाई में हिन्दू मिथक पढ़ाये जायेंगे और 'धर्म' और 'अधर्म' की शिक्षा दी जायेगी। नई शिक्षा नीति के मसौदे में यह प्रस्ताव स्पष्ट तौर पर किया गया है। यानी सरकार यह चाहती है कि वकील हिन्दू मिथकों का अध्ययन करें और किसी ग़ैर-क़ानूनी काम को उन मिथकों की कसौटी पर कसें और उसके आधार पर ही अदालत में अपने तर्क रखें।
नयी शिक्षा नीति को लेकर काम मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में शुरू हुआ था। तब से ही यह आशंकाएँ थीं कि नयी शिक्षा नीति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 'हिन्दू राष्ट्र' के तहत ढाली जायेगी। अब जब मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में नयी शिक्षा नीति के मसौदे से जो बातें छन-छन कर बाहर आ रही हैं, उससे साफ़ है कि शिक्षा नीति में बदलावों को लेकर जो आशंकाएँ उठीं थीं, वे निराधार नहीं थीं।
'हिन्दू राष्ट्र' का लक्ष्य
दरअसल, 'हिन्दू राष्ट्र' के लक्ष्य को पाने के रास्ते में संघ ने बहुत-सी राजनीतिक बाधाएँ तो पार कर ली हैं, काँग्रेस समेत ज़्यादातर विरोधी राजनीतिक दल धूल-धूसरित हो चुके हैं, जो दुबारा उठ खड़े हो पायेंगे या नहीं, यह एक बड़ा प्रश्न है। बाक़ी बच गये क्षेत्रीय दलों में से भी ज़्यादातर मौजूदा नेतृत्व, उत्तराधिकार और रणनीति के संकटों से जूझ रहे हैं और वे कब तक अपना अस्तित्व बचाये रख पायेंगे, कहा नहीं जा सकता। तो राजनीतिक विरोध को दन्तहीन करने की ओर तो संघ सफलतापूर्वक बढ़ रहा है। लेकिन इसके बावजूद 'हिन्दू राष्ट्र' बनाने के रास्ते में दो बहुत बड़ी रुकावटें हैं। एक तो संविधान के मूलभूत चरित्र में बदलाव करना और दूसरी स्वतंत्र न्यायपालिका। इसलिए यदि न्यायपालिका और समूची विधि व्यवस्था का 'हिन्दूकरण' कर दिया जाय, तो ज़्यादातर 'संवेदनशील' मामलों में संघ को अदालतों से अपने 'अनुकूल' फ़ैसले मिलने लग जायेंगे।
एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जब संविधान के मूल सेकुलर ढाँचे में बदलाव पर न्यायिक मुहर भी लग जाय। क़ानून की शिक्षा का 'हिन्दूकरण' कर अगले तीस-पैंतीस वर्षों में वकीलों और जजों की पूरी पीढ़ी की सोच अगर बदल दी जाय, तो संघ का काम आसान हो सकता है।
अभी हाल के दो मामलों में देश की सर्वोच्च अदालत से संघ की नाराज़गी खुले तौर पर और उग्र रूप से ज़ाहिर हो चुकी है। सबरीमला में महिलाओं के प्रवेश और राम जन्मभूमि के मसले पर लोग सुप्रीम कोर्ट को 'हिन्दू विरोधी' की संज्ञा से विभूषित ही कर चुके हैं।
क़ानून की पढ़ाई का 'हिन्दूकरण'
इसलिए मोदी सरकार के कार्यकाल में क़ानून की पढ़ाई का 'हिन्दूकरण' करने का प्रयास किया जाना स्वाभाविक ही है। इसीलिए नई शिक्षा नीति के पेज संख्या 484 पर यह सिफ़ारिश की गई है कि ‘क़ानूनी पढ़ाई को सुधारने के लिए यह सुनिश्चित किया जाए कि यह विधि शिक्षा सामाजिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्यों के अनुकूल हो। यह लोगों की संस्कृति और परंपराओं पर आधारित हो, यह भारतीय साहित्य और पौराणिक कथाओं में वर्णित अधर्म के ऊपर धर्म की विजय का बारे में बताए और क़ानूनी संस्थानों के इतिहास की जानकारी दे।’क़ानून की पढ़ाई से जुड़ी यह सलाह अधिक घातक है और इस पर विवाद छिड़ना तय है। इसके मुताबिक क़ानून के छात्रों को मिथकों और पौराणिक कथाएँ पढ़ाई जानी चाहिए क्योंकि उन कथाओं में 'अधर्म के ऊपर धर्म की जीत' की बातें कही गई हैं। तो क्या अब वकील पौराणिक कथाओं के आधार पर जिरह करेंगे और क्या जज भी अपना फ़ैसला उन मिथकों के आधार पर सुनाएँगे, यह सवाल उठना लाज़िमी है। इसमें कहा गया है:
“
यह विधि शिक्षा की ज़िम्मेदारी है कि वह छात्रों को भारतीय लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों की जानकारी दे, ताकि क़ानूनी पढ़ाई को ज़रूरी सामाजिक परिप्रेक्ष्य और स्वीकार्यता दी जा सके। ऐसा करने के लिए यह आवश्यक है कि क़ानूनी शिक्षा लोगों की परपंराओं और संस्कृति के बारे में बताए, पौराणिक कथाओं और साहित्य में बताई गई अधर्म पर धर्म की जीत के बारे में जानकारी दे।
प्रस्तावित नयी शिक्षा नीति का एक अंश
पूरी दुनिया में लोग इस पर एकमत हैं कि किसी भी देश में क़ानून की पढ़ाई संस्कृति और क़ानून की क्लासिकल किताबों से अछूती नहीं रह सकती। इसलिए सम्बन्धित अधिकारियों के लिए यह ज़रूरी है कि वे यह सुनिश्चित करें कि पाठ्यक्रम न्याय के सिद्धान्तों, न्याय क्षेत्र, क़ानूनी सोच और क़ानून से जुड़ी दूसरी चीजों को शामिल करे।
धर्म-अधर्म
इसमें दिक्क़त यह है कि क़ानून की तमाम किताबें आधुनिक विद्वानों के द्वारा लिखी गई हैं, जिनमें अधिकतर ब्रिटिश हैं। यह समझ पाना मुश्किल है कि हिन्दुत्व और बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को क़ानून की किताबों में कैसे शामिल किया जाए। यह जानना भी कठिन है कि धर्म-अधर्म की जानकारी लेकर कोई आदमी कैसे अच्छा वकील बन पाएगा और वह कैसे किसी चीज की क़ानूनी व्याख्या उस आधार पर कर सकेगा। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि क़ानून की किताबों में किसी बात को क़ानून के लिहाज से देखा जाएगा न कि उसकी व्याख्या साहित्य और पौराणिक कथाओं के आधार पर की जा सकती है।
एक बात बिल्कुल साफ़ है कि सरकार की मंशा क़ानून की पढ़ाई में हिन्दू पौराणिक कथाओं और संस्कृत साहित्य की बातों को शामिल करना है। वह यह उम्मीद करती है कि इससे वकीलों की अगली पीढ़ी इन हिन्दू मूल्यों से भरी हो और वह हर चीज को उसी परिप्रेक्ष्य में देखे। यह पूरी विधि व्यवस्था के भगवाकरण की कोशिश है। इससे पूरी न्याय व्यवस्था का हिन्दूकरण हो जाएगा।
भाषा का सवाल
मोदी सरकार ने नई शिक्षा नीति का मसौदा एक हफ़्ता पहले ही जारी किया है। प्रस्तावित शिक्षा नीति के पेज नंबर 303 पर क़ानूनी शिक्षा में सुधार लाने के लिए प्रस्ताव दिए गए हैं। लेकिन सुधार का पूरा ज़ोर धर्म-अधर्म की शिक्षा देने और अंग्रेज़ी के अलावा स्थानीय भाषा में इसे पढ़ाने पर है। इसमें कहा गया है-
- विधि की शिक्षा देने वाले सरकारी संस्थानों को क़ानून की पढ़ाई अंग्रेज़ी और राज्य की भाषा में सुनिश्चित करनी चाहिए।
- क़ानून का सिलेबस लोगों की संस्कृति और परंपराओं, भारतीय साहित्य और पौराणिक कथाओं में अधर्म के ऊपर धर्म की जीत के इतिहास पर आधारित हो।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय का कहना है कि इससे पहले विधि शिक्षा से जुड़े 300 लोगों से मुलाक़ात की गयी और उनके विचार लिए गये। इनमें नेशनल लॉ स्कूल इंडियन यूनिवर्सिटी बंगलोर, बंगलुरू स्थित मंडकुर लॉ पार्टनर, रमैया कॉलेज ऑफ़ लॉ से जुड़े लोग और नेशनल लॉ स्कूल के संस्थापक प्रोफ़सर माधवन मेनन भी शामिल हैं।
मसौदे की पहली सिफ़ारिश के बारे में तर्क दिया गया है कि निचली अदालतों में स्थानीय भाषा में अदालत का काम होता है, लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का सारा कामकाज अंग्रेज़ी में होता है। इस वजह से सारे फ़ैसले और तमाम काग़ज़ात का अनुवाद करना पड़ता है, जिससे काफ़ी समय नष्ट होता है। इस वजह से अंतिम फ़ैसला आने में बहुत देर होती है।
- यह भी कहा गया है कि ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति की जाए जो क्षेत्रीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी में भी निपुण हों ताकि वे अंग्रेज़ी के अलावा स्थानीय भाषा में भी परीक्षा ले सकें।
- यह भी कहा गया है कि क़ानून से जुड़ी सामग्रियों के अनुवाद के लिए विशेष प्रकोष्ठ का निर्माण किया जाए, दो भाषाएँ जानने वाले लोग उनकी मदद करें।
इस सुझाव में सबसे बड़ा ख़तरा यह है कि वकीलों की दो श्रेणियाँ बन जाएँगी। वैसे वकील जो अंग्रेज़ी जानने के कारण हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक में वकालत करेंगे। दूसरी ओर कुछ ऐसे वकील होंगे जो निचली अदालतों में स्थानीय भाषा में ही प्रैक्टिस करते रह जाएँगे, वे कभी भी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुँच सकेंगे।
यह साफ़ है कि क़ानून की पढ़ाई के भगवाकरण से वकीलों की जो पीढ़ी तैयार होगी, वह अवैज्ञानिक सोच से भरी होगी जो किसी मसले को क़ानूनी तरीके से सोचने से पहले मिथकों में उसके समानान्तर की तलाश करगी। ज़ाहिर है, वह पौराणिक या मिथकीय सोच संविधान सम्मत हो, यह ज़रूरी नहीं। इसके साथ ही दो किस्म के वकील बन जाएँगे और उनके बीच एक तरह की विभाजक रेखा खिंच जाएगी।
इस पूरे मामले का एक राजनीतिक पहलू भी है, जो अधिक ख़तरनाक है। जिस तरह देश की राजनीति का हिन्दूकरण हो चुका है, उसका अंजाम यह है कि कांग्रेस जैसी धर्मनिरपेक्ष समझी जाने वाली पार्टी के प्रमुख भी चुनावों के पहले सिर्फ़ वोट पाने के लिए मंदिरों के चक्कर लगाते हैं और ख़ुद को 'जनेऊधारी ब्राह्मण' बताते हैं। सेक्युलर होना बुरी बात समझी जाने लगी है और सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों का 'शेखुलर' कह कर मजाक उड़ाया जाता है। ऐसे में कोई भी पार्टी क़ानून के भगवाकरण का खुल कर विरोध करेगी या उसके ख़िलाफ़ कोई जन आंदोलन खड़ा करने की कोशिश करेगी, इसकी संभावना निहायत ही कम दिखती है।