केंद्र सरकार के द्वारा सूचना का अधिकार (आरटीआई) क़ानून में किए गए संशोधन का देश भर में जोरदार विरोध हो रहा है। इस संशोधन के तहत केंद्र सरकार को यह ताक़त दी गई है कि वह केंद्र और राज्य स्तर पर तैनात सूचना आयुक्तों का कार्यकाल और तनख़्वाह तय करे। कई पूर्व सूचना आयुक्तों ने इस संशोधन को उनकी स्वायत्ता पर हमला बताया है और सरकार से इसे वापस लेने की अपील की है। इसी क्रम में पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गाँधी ने एक मुहिम चलाई है। गाँधी ने ऑनलाइन याचिका के माध्यम से लोगों से बिल के ख़िलाफ़ दस्तख़त करने की गुज़ारिश की है। उन्होंने याचिका में महामहिम राष्ट्रपति से गुज़ारिश की है कि आरटीआई क़ानून संशोधन बिल को संसद के पास पुनर्विचार करने के लिए वापस भेज दिया जाए। गाँधी की इस याचिका को देश भर में बड़े पैमाने पर सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों का समर्थन मिल रहा है। अभी तक लगभग 6000 से ज़्यादा लोग इस पर दस्तख़त कर चुके हैं।
गाँधी ने ऑनलाइन याचिका में कहा है कि जब भी सरकार किसी ऐसी जानकारी का ख़ुलासा नहीं करती है जिसे प्राप्त करने की लोगों को छूट है, तो देश के लोग सूचना आयोग के पास जाते हैं। यह जानकारी देने की ज़िम्मेदारी सूचना आयोग की होती है क्योंकि आरटीआई क़ानून के तहत लोगों को जानकारी देने के लिए ही उन्हें नियुक्त किया जाता है। इसलिए यह हर हाल में सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सूचना आयोग और इसमें काम करने वाले लोग पूरी आज़ादी के साथ अपने काम को अंजाम दे सकें।
गाँधी ने याचिका में कहा है कि यह संशोधन बेहद जल्दबाज़ी में लाया गया है और सूचना आयोग को दी गई स्वायत्ता को कमजोर करता है। गाँधी ने महामहिम राष्ट्रपति से अपील की है कि वह बिल को पुनर्विचार के लिए संसद को लौटाकर लोगों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करें।
गाँधी के अलावा देश के पहले सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला, सूचना आयुक्त रहे यशोवर्धन आज़ाद, दीपक संधू, एमएम अंसारी, एम. श्रीधर आचार्युलु और अन्नपूर्णा दीक्षित ने भी आरटीआई क़ानून में किए गए संशोधनों का विरोध किया है। आरटीआई कार्यकर्ता और विपक्षी पार्टियाँ भी आरटीआई क़ानून में संशोधन के विरोध में हैं।
कुछ दिन पहले पूर्व सूचना आयुक्त यशोवर्धन आज़ाद ने कहा था कि सरकार आरटीआई क़ानून को और ज़्यादा मजबूत करने, आयुक्तों की नियुक्ति में और ज़्यादा पारदर्शिता बरते जाने के बजाय इस क़ानून में संशोधन करने पर तुली हुई है। उन्होंने कहा था कि जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ के लिए लोगों से सुझाव माँगते हैं, उसी तरह उन्हें लोगों से आरटीआई क़ानून में संशोधन करने के लिए सुझाव माँगने चाहिए थे।
आरटीआई क़ानून को सबसे पहले दिसंबर 2004 में संसद में लाया गया था। उस समय इसमें यह प्रस्ताव किया गया था कि मुख्य सूचना आयुक्त को सरकार के सचिव के समकक्ष माना जाएगा और अन्य आयुक्तों को सरकार के संयुक्त सचिव के समकक्ष। लेकिन जब बाद में इस बिल को संसदीय समिति के पास भेजा गया तो समिति ने यह प्रस्ताव दिया कि आयुक्तों का क़द चुनाव आयोग के आयुक्तों के बराबर होना चाहिए, जिससे वे पूरी स्वायत्ता और आज़ादी के साथ काम कर सकें और उनके कामकाज में किसी भी तरह का दख़ल न हो। आरटीआई क़ानून अक्टूबर, 2005 में अस्तित्व में आया था।
आरटीआई क़ानून के इस्तेमाल से नागरिकों को सरकारी विभागों से जानकारी लेने का मौक़ा मिला और भ्रष्टाचार पर लगाम लगी। इससे निश्चित रूप से लोकतंत्र मजबूत हुआ और सत्ता की निरंकुशता पर भी कुछ हद तक रोक लगी थी। लेकिन पिछले कुछ सालों में आरटीआई कार्यकर्ताओं को जान से भी हाथ धोना पड़ा है। यह इस बात से साबित होता है कि देश में आारटीआई का इस्तेमाल करने वाले 45 से ज़्यादा लोगों की हत्या हो चुकी है।