झुकने के बजाए किसानों के साथ खड़े लोगों को निशाना बनाते दिखे मोदी

07:49 pm Feb 08, 2021 | पवन उप्रेती - सत्य हिन्दी

भारत में चल रहे किसान आंदोलन की चर्चा दुनिया भर में हो रही है। किसान संगठनों और केंद्रीय कृषि मंत्री के बीच की कई दौर की वार्ताओं के बेनतीजा रहने के बाद सभी की नज़रें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर थीं। 

उम्मीद थी कि लगभग ढाई महीने से चल रहे किसान आंदोलन के सामने मोदी संसद में कुछ झुकते दिखाई देंगे और आंदोलनकारी किसानों के हक़ में कुछ ऐसा बोलेंगे जिससे सरकार और किसानों के रिश्तों में जमी बर्फ पिघलेगी लेकिन हुआ इसका उलटा। मोदी का भाषण राजनीतिक रहा और उन्होंने आंदोलन कर रहे और इसे समर्थन देने वालों पर ही निशाना साध दिया।

मोदी ने सोमवार को राज्यसभा में कहा कि कुछ लोग लगातार देश को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं और हमें इन्हें जानना होगा। मोदी सरकार और बीजेपी का यह जाना-पहचाना पैटर्न है, जिसमें वे सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों पर यह आरोप लगा देते हैं कि वे देश को अस्थिर कर रहे हैं। 

आंदोलनजीवी कह कर कसा तंज

भाषणों के दौरान जुमलों और नए तरह के शब्दों का अकसर इस्तेमाल करने वाले मोदी ने आज एक नया शब्द दिया- आंदोलनजीवी। उन्होंने कहा, ‘पिछले कुछ समय से देश में एक नई जमात पैदा हुई है और इसका नाम आंदोलनजीवी है। यह जमात वकीलों, छात्रों, मजदूरों के आंदोलन यानी सभी जगहों पर नज़र आती है।’ मोदी ने कहा कि देश ऐसे आंदोलनजीवी लोगों से बचे। 

पीएम मोदी ने ऐसा कहकर सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों को सीधा संदेश देने की कोशिश की। बीजेपी जब विपक्ष में थी या आज भी जिन राज्यों में विपक्ष है, वह सत्ता में बैठी सरकार के ख़िलाफ़ होने वाले आंदोलनों को समर्थन देती रही है। जैसे- अन्ना आंदोलन। ऐसे में जब देश में या किसी राज्य में कोई जनांदोलन होगा तो विपक्ष निश्चित तौर पर आंदोलनकारियों की आवाज़ बनने का काम करेगा। लेकिन मोदी के भाषण को सुनकर यह लगा कि सरकार को किसानों, छात्रों या आवाज़ उठाने वाला कोई वर्ग या उस वर्ग को समर्थन देने वाले क़तई पसंद नहीं हैं। 

खालिस्तानी कहे जाने पर रहे चुप

पूरे किसान आंदोलन के दौरान बीजेपी नेताओं द्वारा सिखों के लिए खालिस्तानी, आतंकवादी जैसे शब्दों का इस्तेमाल और किसान आंदोलन में फंडिंग होने के आरोपों पर तो मोदी चुप रहे लेकिन विपक्ष को निशाने पर लेते हुए उन्होंने ये ज़रूर कहा कि कुछ लोग सिख भाइयों के दिमाग में ग़लत चीज़ें भरने में लगे हैं। 

एफ़डीआई का बेहूदा मतलब

किसान आंदोलन के समर्थन में पर्यावरणविद ग्रेटा तनबर्ग (थनबर्ग) और पॉप स्टार रियाना (रिहाना) के ट्वीट करने के बाद पूरी केंद्र सरकार और बीजेपी ने उन पर हमला बोल दिया। इसे भारत के आंतरिक मामलों में दख़ल और देश के ख़िलाफ़ साज़िश बताया। तब कई लोगों ने यह सवाल पूछा था कि किसानों के समर्थन में किए गए एक ट्वीट भर से आख़िर ऐसा क्या हो गया कि पूरी सरकार सिर के बल खड़ी हो गयी है। 

ख़ैर, मोदी ने एफ़डीआई का मतलब- फ़ॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी बताया जबकि इसका मतलब फ़ॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट होता है यानी विदेशों से भारत में आने वाला निवेश। मोदी ने कहा कि इस एफ़डीआई से हमें देश को बचाना है और ज़ागरूक रहने की ज़रूरत है। मोदी का इशारा ग्रेटा, रियाना, मियां ख़लीफा के ट्वीट की ओर था। 

देश में शायद आज़ादी के बाद यह पहला मौक़ा होगा जब लाखों लोग अपनी मांगों को लेकर राजधानी के चारों ओर आकर बैठ गए हों। पंजाब-हरियाणा से आगे यह आंदोलन कई राज्यों में फैल चुका है लेकिन सरकार अभी भी इसे एक राज्य का आंदोलन बताने पर तुली है। 

किसान आंदोलन को लेकर देखिए वीडियो- 

कुछ दिन पहले बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में जब पीएम मोदी ने कहा था कि सरकार किसानों से सिर्फ़ एक फ़ोन कॉल की दूरी पर है तो किसान नेताओं ने कहा था कि एक ओर सरकार उनके आंदोलन की जगह को किले में तब्दील कर रही है, पानी-बिजली, टॉयलेट जैसी ज़रूरी सुविधाएं तक उसने हटा लीं हैं, वहीं दूसरी ओर वह बातचीत के लिए तैयार होने का दिखावा करती है। सिंघु, टिकरी और ग़ाजीपुर बॉर्डर पर इन दिनों कई लेयर की बैरिकेडिंग और कंटीली तार लगाई गई हैं। 

किसान आंदोलन को समर्थन देने वाले विपक्षी दलों के नेता, सामाजिक संगठनों के लोग, पूर्व फ़ौजी या समाज का कोई भी वर्ग जो इनके समर्थन में उतरा है, वह मोदी सरकार को बुरी तरह खटक रहा है। 

पीएम मोदी के भाषण से एक बात साफ हो गई है कि सरकार किसानों और विपक्ष के दबाव के बीच भी कृषि किसानों को रद्द करने के लिए तैयार नहीं है। कुछ दिन पहले कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने भी कहा कि सरकार इन क़ानूनों में संशोधन के लिए तैयार है तो इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि इनमें कुछ ग़लतियां हैं। 

मोदी को देश का प्रधानमंत्री होने के नाते किसान आंदोलन के दौरान सरकार के अड़ियल रवैये के कारण निराश होकर आत्महत्या कर लेने वाले और ठंड के कारण मारे गए किसानों और उनके परिजनों के बारे में भी ज़रूर कुछ बोलना चाहिए था। लेकिन इस पर वह ख़ामोश रहे।

इतनी भयंकर ठंड में किसान खुले आसमान या छोटे-छोटे तंबुओं में रातें काटते रहे। मारे गए लोगों के परिजनों के प्रति संवेदना के दो शब्द कम से कम ज़रूर उन्हें बोलने चाहिए थे। लेकिन उन्होंने इस आंदोलन को लड़ने वालों, इसका समर्थन करने वालों पर निशाना साधकर यह बताया है कि उनकी सरकार कृषि क़ानूनों पर पीछे नहीं हटेगी और इसका समर्थन करने वाले उसके निशाने पर बने रहेंगे।