तलाक़-गुजारा भत्ते के लिए बने समान क़ानून, कोर्ट ने केंद्र से मांगा जवाब

11:55 am Dec 17, 2020 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड को लेकर समय-समय पर यह बहस चलती रहती है कि मोदी सरकार इसे कभी न कभी ज़रूर लेकर आएगी। लेकिन इसी के बीच एक नया मामला यूनिफ़ॉर्म डाइवोर्स लॉ का आया है। इसका मतलब है कि सभी धर्मों में तलाक़ का आधार समान यानी एक जैसा होना चाहिए। 

बीजेपी के नेता अश्विनी उपाध्याय ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। उपाध्याय का कहना है कि भारत संवैधानिक देश है और इसके तहत सभी लोग बराबर हैं। लेकिन अलग-अलग धर्मों में तलाक़ का आधार अलग-अलग है और महिलाओं के गुजारा भत्ते को लेकर भी नियम एक समान नहीं हैं। 

उपाध्याय ने याचिका में कहा है कि यह संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है और तलाक़ का आधार और गुजारा भत्ते को लेकर एक समान नियम बनाए जाने की ज़रूरत है। उनका कहना है कि यह मामला लैंगिक समानता का है। 

उपाध्याय की ओर से बुधवार को वरिष्ठ अधिवक्ता पिंकी आनंद और मीनाक्षी अरोड़ा अदालत में पेश हुईं और याचिका में लिखी बातों को आधार बनाकर महिलाओं के लिए तलाक़ और गुजारा भत्ते के लिए अलग-अलग नियम होने की दलील रखी। उन्होंने कहा कि अलग-अलग धर्मों के ये नियम समानता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं और महिला के सम्मान के अधिकार का भी अपमान करते हैं। 

सीजेआई एसए बोबडे, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस वी. रामासुब्रमण्यन की बेंच ने आशंका व्यक्त की कि याचिका पर सुनवाई करने से हो सकता है कि ऐसा करना धार्मिक अल्पसंख्यकों के पर्सनल लॉ में दख़ल हो क्योंकि यह उनके लिए संवेदनशील मामला है।

अदालत के आशंका जताने के बाद पिंकी आनंद ने बेंच को याद दिलाया कि शीर्ष अदालत ने मुसलमानों में तुरंत तीन तलाक़ को असंवैधानिक बताया है। मीनाक्षी अरोड़ा ने दलील रखी कि महिला और लैंगिक समानता का अधिकार ये दोनों बातें एक हैं। उन्होंने सवाल उठाया कि गुजारा भत्ते का अधिकार अलग-अलग धर्मों की महिलाओं के लिए अलग-अलग कैसे हो सकता है 

इस पर सीजेआई ने कहा, ‘क़ानून किसी के साथ भेदभाव नहीं करता है बल्कि लोग अपने पर्सनल लॉ के कारण ऐसा करते हैं। क्या इसे क़ानून के द्वारा लिंग के आधार पर किसी के साथ भेदभाव करना कहा जा सकता है’

बेंच ने पूछा कि क्या हम अलग-अलग धर्मों की महिलाओं के लिए इस मामले में बने नियमों को बिना उन धर्मों के पर्सनल लॉ में दख़ल दिए ख़त्म कर सकते हैं। इसके बाद शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर इस मामले में उसका जवाब मांगा है। 

याचिकाकर्ता ने कहा है कि हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन धर्मों में हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 और हिंदू एडॉप्शन एंड मेटेंनेंस एक्ट 1956  के तहत होते हैं। जबकि मुसलिमों के लिए मुसलिम वूमेन एक्ट, 1986, ईसाइयों के लिए इंडियन डाइवोर्स एक्ट 1869 और पारसियों के लिए पारसी मैरिज एंड डाइवोर्स एक्ट 1936 है। उन्होंने कहा है कि इनमें से सभी क़ानून गुजारा भत्ता और तलाक़ के लिए अलग-अलग नियम वाले हैं। 

अदालत ने 1995 के सरला मुद्गल मामले में टिप्पणी की थी कि जब 80 प्रतिशत से ज़्यादा नागरिकों को नागरिक संहिता के तहत लाया गया, तो सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता नहीं होने को किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता।

समान नागरिक संहिता पर आलोचना

पिछले साल एक मामले में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार की यह कह कर आलोचना की थी कि हिन्दू अधिनियम 1956 में लागू होने के 63 साल बीत जाने के बाद भी संविधान के अनुच्छेद 44 की अनदेखी की गई है और समान नागरिक संहिता लागू करने की कोई कोशिश नहीं की गई है।

जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बहल के खंडपीठ ने एक अहम फ़ैसले में कहा था कि अनुच्छेद 44 के तहत देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान क़ानून लागू करने में अब तक कामयाबी नहीं मिली है।