स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की है कि कैंसर को एक नोटिफाइड डिजीज यानी अधिसूचित बीमारी के रूप में घोषित किया जाना चाहिए। समिति ने सोमवार को राज्यसभा सचिवालय को सौंपी गई अपनी 139वीं रिपोर्ट में कहा है कि कैंसर को 'अधिसूचित बीमारी' बनाने से न केवल कैंसर से होने वाली मौतों का एक मज़बूत डेटाबेस बनेगा, बल्कि इसके सटीक कारणों और देश में बीमारी की व्यापकता को तय करने में भी मदद मिलेगी। जाहिर है जब वास्तविक कारण पता होंगे, विश्लेषण के लिए डाटा होगा और उसी के अनुसार मरीजों को सही सलाह मिलेगी तो इलाज भी बेहतर हो सकेगा।
अधिसूचित बीमारी होने से क्या फायदे मिल सकते हैं इसको कोराना महामारी से समझा जा सकता है। जब देश में कोरोना संक्रमण फैलने लगा था तो इसको अधिसूचित बीमारी घोषित किया गया। एड्स, खसरा, मलेरिया, डेंगू जैसी बीमारियाँ भी अधिसूचित बीमारियाँ हैं। इनकी रोकथाम के लिए सरकारी स्तर पर कड़े क़दम उठाए जाते हैं।
नोटिफाइड डिजीज यानी अधिसूचित बीमारी एक ऐसी बीमारी है जिसके बारे में क़ानूनन सरकारी अधिकारियों को सूचित करने की ज़रूरत होती है।
ज़्यादा संक्रामक या बड़े पैमाने पर ख़तरनाक साबित हो रही किसी बीमारी को नियंत्रित करने के लिए अधिसूचित बीमारी घोषित की जाती है। इसके तहत डॉक्टरों और स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवरों के लिए किसी बीमारी को क़ानूनी रूप से सूचित करना ज़रूरी होता है। पंजीकृत डॉक्टरों को स्थिति की तात्कालिकता के आधार पर ऐसी बीमारियों को तीन दिनों के भीतर ठीक से जानकारी देनी होती है, या 24 घंटे के भीतर फोन के माध्यम से मौखिक रूप से बताना होता है। इसका मतलब है कि हर सरकारी अस्पताल, निजी अस्पताल, प्रयोगशालाओं और क्लीनिकों को बीमारी के मामलों की रिपोर्ट सरकार को देनी होती है।
इससे जानकारी इकट्ठी की जाती है और इससे अधिकारियों को बीमारी की निगरानी करने में मदद मिलती है। इससे बीमारी के संभावित प्रकोपों की प्रारंभिक चेतावनी भी मिलती है। अधिसूचित बीमारी घोषित किए जाने के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियम, 1969 के तहत डब्ल्यूएचओ को बीमारी की रिपोर्ट करने की ज़रूरत भी होती है। ऐसा इसलिए ताकि इसकी वैश्विक निगरानी और सलाहकार भूमिका में मदद मिल सके।
किसी भी अधिसूचित बीमारी की सूचना देने में विफलता एक आपराधिक जुर्म है और राज्य सरकार ऐसी चूक करने वालों के ख़िलाफ़ ज़रूरी कार्रवाई कर सकती है।
यह प्रक्रिया सरकार को बीमारी को ट्रैक करने, उसका उन्मूलन करने और नियंत्रण करने के लिए एक योजना तैयार करने में भी मदद करती है। जाहिर है जब सरकार के पास कैंसर मरीज़ों, ऐसे मरीज़ों की मौत की वजह, बीमारियों की वास्तविक स्थिति, दवाइयों, इलाज व इसके प्रभाव के बारे में आँकड़े होंगे तो इस बीमारी से निपटने के लिए बेहतर रणनीति भी बन सकेगी।
बता दें कि केंद्र सरकार ने हैजा, डिप्थीरिया, एन्सेफलाइटिस, कुष्ठ, मेनिन्जाइटिस, पर्टुसिस (काली खांसी), प्लेग, तपेदिक, एड्स, हेपेटाइटिस, खसरा, पीला बुखार, मलेरिया डेंगू, आदि जैसी कई बीमारियों को अधिसूचित किया है। इनका क्रियान्वयन राज्य सरकारों के हाथों में है।
बहरहाल, संसदीय समिति की 'कैंसर केयर प्लान एंड मैनेजमेंट: प्रिवेंशन, डायग्नोसिस, रिसर्च एंड अफोर्डेबिलिटी ऑफ कैंसर ट्रीटमेंट' नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि मौत के वास्तविक कारण पर साफ़ साफ़ आँकड़ा नहीं है। टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार संसदीय समिति का कहना है कि मौत के वास्तविक कारण का उल्लेख किए बिना कई बार मौत को केवल कार्डियो-रेस्पिरेट्री विफलता के रूप में दर्ज किया जाता है।
रिपोर्ट के अनुसार सांसद राम गोपाल यादव की अध्यक्षता वाली समिति ने पंजीकरण, रीयल-टाइम डेटा संग्रह, परामर्श, कैंसर देखभाल के लिए सहायक संसाधनों के साथ-साथ इंटरैक्टिव टूल के लिए CoWIN जैसा पोर्टल बनाने की सिफारिश की है।
उसमें आगे कहा गया है कि उस पोर्टल पर कैंसर से प्रभावित लोगों को उपचार और इसके प्रबंधन के मार्गदर्शन करने की जानकारी भी होनी चाहिए। समिति को पूरा विश्वास है कि कैंसर को अधिसूचित बीमारी बनाने से निश्चित रूप से कैंसर से होने वाली मौतों का एक मजबूत डेटाबेस बनेगा और देश में कैंसर के प्रसार को रोकने में भी मदद मिलेगी।
रिपोर्ट के अनुसार समिति ने राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम यानी एनसीआरपी पर अपनी गहरी नाराजगी जताई है जो 1982 से जनसंख्या आधारित कैंसर रजिस्ट्री यानी पीबीसीआर और अस्पताल आधारित कैंसर रजिस्ट्री के माध्यम से काम कर रहा है। भारतीय आबादी का केवल 10 प्रतिशत ही पीबीसीआर के अंतर्गत आता है।
समिति यह भी सिफारिश करती है कि मंत्रालय पीबीसीआर के दायरे का विस्तार करने के लिए उपाय करे और देश भर में कैंसर की घटनाओं और प्रकारों के बारे में सटीक जानकारी के लिए अधिक ग्रामीण-आधारित पीबीसीआर तैयार करे।