प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज ‘एक देश एक चुनाव’ पर बातचीत के लिए सभी दलों के नेताओं की बैठक बुलाई है। इस बैठक में कोई आम राय बनेगी, इसमें संदेह है क्योंकि विपक्ष, ख़ासकर कांग्रेस तथा कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि विधानसभा चुनावों का आयोजन लोकसभा चुनाव से अलग कराने पर बीजेपी को मिलने वाला समर्थन घट जाता है (देखें चार्ट) और इस ट्रेंड को उलटने के लिए ही बीजेपी कोशिश कर रही है कि आने वाले सालों में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव साथ-साथ कराए जाएँ ताकि राष्ट्रीय मुद्दे आंचलिक मुद्दों पर हावी हो जाएँ और जो वोटर लोकसभा चुनाव में बीजेपी को वोट दे रहा है, वह विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को ही वोट दे।
क्या मोदी इसी दलीय स्वार्थ से यह मीटिंग बुला रहे हैं या वे वाक़ई चाहते हैं कि देश हमेशा चुनावी मूड में न रहे और चुनी गई सरकारें और मंत्री अपने पाँच साल का कार्यकाल जनता की सेवा में ही व्यतीत करें। प्रधानमंत्री की मंशा सही हो सकती है और नहीं भी।
हम फ़िलहाल इस टिप्पणी में उनकी मंशा के बारे में बात नहीं करेंगे। हम तो यहाँ बस यह जानने की कोशिश करेंगे कि क्या यह तय है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने से वोटर एक ही तरह मतदान करेगा। हमारे पास इसका बहुत अधिक डेटा नहीं है क्योंकि अधिकतर विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव से पहले या बाद में होते रहे हैं। लेकिन जिन तीन बड़े राज्यों के आँकड़े हमारे पास हैं, उनसे हम कोई नतीजा निकालने का प्रयास करेंगे।
2019 में जिन दो बड़े राज्यों में एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हुए, वे हैं आंध्र प्रदेश और उड़ीसा। तेलंगाना में भी इस साल विधानसभा चुनाव होने थे लेकिन वहाँ के मुख्यमंत्री केसीआर ने समय से पहले ही विधानसभा भंग करके जल्दी चुनाव करवा दिए। 2014 में भी इन तीनों राज्यों की विधानसभाओं के लिए लोकसभा चुनाव के साथ ही मतदान हुआ था। हम इन तीनों राज्यों के दो सालों (2014 और 2018/19) के आँकड़ों के आधार पर देखेंगे कि क्या वोटर ने विधायक और सांसद चुनते समय एक ही पार्टी को वोट दिया
इन तीन राज्यों के मतदान ट्रेंड से दो तरह के निष्कर्ष निकलते हैं। पहले आंध्र प्रदेश को लेते हैं जहाँ बीजेपी कोई बड़ा फ़ैक्टर नहीं है। 2014 में चूँकि उसने तेलुगू देशम के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, इसलिए उसे तब लोकसभा चुनाव में 7% वोट मिले थे जो विधानसभा में घटकर 2% रह गए थे लेकिन यह कोई नुक़सान नहीं था क्योंकि तालमेल के तहत बीजेपी लोकसभा के मुक़ाबले विधानसभा की कम सीटों पर चुनाव लड़ी थी और यह घटा हुआ वोट प्रतिशत विधानसभा चुनाव में टीडीपी के खाते में जुड़ गया।
बीजेपी की इस राज्य में राजनीतिक हैसियत 2019 में दिखी जब वह अपने बल पर लड़ी और दोनों ही चुनावों में उसे क़रीब 1% ही वोट मिला। बाक़ी दो दलों (टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस) का जन समर्थन भी दोनों चुनावों में एक जैसा रहा। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में टीडीपी को 40% और 39% और वाइएसआर कांग्रेस को 49% और 50% वोट मिले।
इस परिणाम से तो यही लगता है कि वोटर जब दोनों चुनावों के लिए एक साथ वोट करता है तो उसका व्यवहार एक जैसा रहता है और इस नतीजे से कांग्रेस की आशंका सही साबित होती है हालाँकि यहाँ हुआ इसका उलटा। यहाँ राष्ट्रीय मुद्दों ने क्षेत्रीय मुद्दों को नहीं दबाया बल्कि क्षेत्रीय मुद्दों ने ही राष्ट्रीय मुद्दों की हवा निकाल दी। ऐसा ही कुछ पश्चिम बंगाल में हुआ था जहाँ लोकसभा चुनाव स्थानीय मुद्दे (ममता-समर्थन बनाम ममता-विरोध) पर लड़ा गया।
अब हम उड़ीसा की तसवीर देखते हैं। यहाँ भी 2014 और 2019 में दोनों सदनों (लोकसभा और विधानसभा) के लिए एक साथ मतदान हुआ। बीजू जनता दल (बीजेडी) जो यहाँ सत्तारूढ़ दल है, उसे दोनों बार 1-2% के अंतर से क़रीब-क़रीब बराबर वोट मिले। 2014 में बीजेडी को 45%-44% वोट मिले और 2019 में 43%-45%। लेकिन बीजेपी को मिला वोट शेयर यहाँ एक नई रोशनी डालता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में जहाँ उसे 38% वोट मिले, वहीं विधानसभा चुनाव में उसे 33% वोट प्राप्त हुए। यानी हर 100 वोटरों में से 5 वोटर ऐसे थे जिन्होंने लोकसभा के लिए कमल का बटन दबाया लेकिन विधानसभा के लिए शंख (बीजेडी का चुनाव निशान) पर। और यह केवल इस बार नहीं हुआ। 2014 में भी 4% वोटर ऐसे थे जिन्होंने लोकसभा चुनाव में तो बीजेपी का साथ दिया लेकिन विधानसभा चुनाव में नहीं।
उड़ीसा के परिणाम से हमें यह नज़र आता है कि आंध्र का पैटर्न हर जगह लागू नहीं होता। ऐसे लोग हैं (और वे बहुत कम भी नहीं) जो राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर अलग-अलग दल का समर्थन करने का विवेक रखते हैं।
अब हम आते हैं तीसरे राज्य तेलंगाना पर। तेलंगाना में हुई वोटिंग की उस तरह तुलना नहीं हो सकती जिस तरह आंध्र और उड़ीसा की हमने की क्योंकि यहाँ विधानसभा चुनाव इस बार छह महीने पहले हो गए थे। लेकिन हमारे पास 2014 का भी आँकड़ा है जब दोनों चुनाव एक साथ हुए थे और उससे वही संकेत मिलता है जो उड़ीसा में मिला था।
2014 में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) को लोकसभा और विधानसभा चुनावों में एक जैसे वोट मिले थे - 35% और 34%। लेकिन बीजेपी को मिला वोट शेयर यहाँ भी रोचक कहानी कहता है। लोकसभा चुनाव के लिए जहाँ 11% लोगों ने बीजेपी को वोट दिया, वहीं विधानसभा चुनाव में 7% लोगों ने कमल के पक्ष में बटन दबाया। कहने का अर्थ यह है कि इस राज्य में भी 4% वोटर ऐसे हैं जिन्होंने सांसद और विधायक चुनने के मामले में अलग-अलग पसंद दिखाई।
इस बार के लोकसभा चुनाव में यह ट्रेंड और प्रखरता से उभरा। टीआरएस जिसने 2018/19 के विधानसभा चुनाव में 47% वोट पाकर एक इतिहास-सा रचा था, लोकसभा चुनाव में उसका वोट 6% गिरा और यह चला गया बीजेपी की झोली में। टीआरएस का वोट शेयर जहाँ 47% से घटकर 41% रह गया, वहीं बीजेपी का शेयर 7% से बढ़कर 19% हो गया मतलब 12% की वृद्धि। कांग्रेस का शेयर 2014 और 2018/19 दोनों मौक़ों पर एक समान रहा। ऐसे में लोकसभा चुनाव में टीआरएस के वोटों में कमी और बीजेपी के वोटों में वृद्धि का मतलब तो यही दिखता है कि टीआरएस के 6% विधानसभाई समर्थक ऐसा मानते हैं कि केसीआर के दिल्ली की गद्दी में बैठने की कोई संभावना नहीं है, इसलिए किसी और पार्टी का कोई दूसरा नेता प्रधानमंत्री बने, उससे बेहतर तो मोदी ही हैं। यानी यहाँ भी वोटरों का एक हिस्सा राज्य और केंद्र के लिए वोट करते समय अलग-अलग राय प्रकट कर रहा है।
यानी आंध्र को छोड़ दें तो बाक़ी दो राज्यों के तुलनात्मक नतीजों से यही पता चलता है कि साथ-साथ चुनाव कराने पर भी वोटरों का एक तबक़ा जो 4% से 12% तक हो सकता है, सांसद और विधायक चुनते समय अलग-अलग पार्टी के पक्ष में वोट कर सकता है।
अब यदि ऐसा है तो कांग्रेस चिंता क्यों कर रही है क्यों उसको लग रहा है कि यदि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा और लोकसभा चुनाव साथ-साथ होते या भविष्य में हों तो वोटर उसी तरह अलग-अलग राय नहीं देगा जैसे उसने उड़ीसा और तेलंगाना में दी है उसे क्यों डर है कि इन राज्यों का मतदाता उन राज्यों से अलग व्यवहार करेगा
मोदी के मुक़ाबले का नेता नहीं!
मेरी समझ से इसके दो कारण हैं जो मूलतः एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक, कांग्रेस के पास राष्ट्रीय स्तर का कोई नेता नहीं है जो मोदी के मुक़ाबले ठहर सके इसलिए जहाँ भी राष्ट्रीय मुद्दे हावी होते हैं, वहाँ पर कांग्रेस मात खा जाती है। दो, कांग्रेस के पास इन तीन राज्यों में क्षेत्रीय स्तर का ऐसा कोई करिश्माई और सर्वसम्मत नेता नहीं है जो पूरे राज्य से वैसा ही समर्थन खींच सके जो केसीआर को तेलंगाना में, जगनमोहन रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू को आंध्र में और नवीन पटनायक को उड़ीसा में हासिल है। इसलिए कांग्रेस को लगता है कि क्षेत्रीय स्तर पर उनके नेता विधानसभा चुनावों पर पड़ने वाले मोदी के प्रभाव को उस तरह बेअसर नहीं कर पाएँगे जिस तरह ये क्षेत्रीय दलों के नेता कर पाते हैं।इसे आप यूँ समझ सकते हैं कि क्षेत्रीय दलों के नेता कबड्डी में माहिर हैं जबकि मोदी कुश्ती में। तो जब राज्य में कबड्डी का मुक़ाबला होता है तो जीत हमेशा क्षेत्रीय दलों के नेताओं की होती है। इस जीत में क्षेत्रीय गौरव और अस्मिता का भी बड़ा हाथ होता है जिसका लाभ इन नेताओं को मिलता है क्योंकि उसकी काट बीजेपी नेताओं के पास नहीं होती। लेकिन कांग्रेस इस तरह क्षेत्रीयता के नाम पर वोट नहीं माँग सकती। एक हिंदुत्व को छोड़ दें तो उसके और बीजेपी के मुद्दे हमेशा से एक रहे हैं। दूसरे शब्दों में उनमें हमेशा कुश्ती का ही मुक़ाबला होता है जिसमें हिंदुत्व की लंगोट पहन और जय श्रीराम के नारों के बीच मोदी पहलवान कांग्रेस के छोटे-बड़े सभी पहलवानों को चित करने का माद्दा रखता है।
लेकिन कांग्रेस में एक क्षेत्रीय नेता है जो कुश्ती के इस मैच में मोदी को हरा सकता है। वह हैं पंजाब के अमरिंदर सिंह जिनके कारण वहाँ इस बार मोदी का वैसा जादू नहीं देखने को मिला जैसा बाक़ी राज्यों में दिखा है।
पंजाब में बीजेपी और अकाली दल का वोट शेयर वहाँ 2014 के मुक़ाबले में केवल 2% बढ़ा है जबकि कांग्रेस का 33% से 40% हो गया। इसमें आम आदमी पार्टी के बिखरे हुए वोटों का हाथ ज़रूर है लेकिन वे वोट इसीलिए कांग्रेस के पास गए क्योंकि वहाँ एक नेता था जो ये वोट खींच सकता था।
यदि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के पास अमरिंदर जैसे नेता होते तो कांग्रेस ‘एक देश एक चुनाव’ को मान सकती थी और यह देश के लिए अच्छा क़दम होता। लेकिन यहाँ तो उसके अस्तित्व का सवाल है। आख़िर ऐसी चाल में वह क्यों फँसना चाहेगी जहाँ उसकी हार-ही-हार है! इंसान की मौत जब आती है, तब आती है लेकिन कोई बिना कारण ख़ुदकशी थोड़े ही करता है, वह भी किसी दुश्मन के कहने पर जो आपको ख़त्म करने के लिए हर जायज़-नाजायज़ तरीक़ा अपना रहा है!