‘एक देश-एक चुनाव’ के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी राजनीतिक दलों के अध्यक्षों के साथ चर्चा के लिए 19 जून को बैठक बुलाई है। भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी अपनी इस मुहिम को अमली जामा पहनाने के लिए विपक्षी दलों को भी इसमें शामिल करना चाहते हैं। अब सवाल यह है कि क्या भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाये जा सकते हैं
‘एक देश-एक चुनाव' के मुद्दे को बीजेपी पहले से ही जोर-शोर से उठाती रही है। याद दिला दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार सार्वजनिक मंचों से इस मुद्दे पर बात कर चुके हैं। मोदी कह चुके हैं कि यह किसी एक पार्टी या एक व्यक्ति का एजेंडा नहीं है। यह देश के हित से जुड़ा काम है और इसके लिए सबको मिलकर आगे आना होगा।
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने पिछले साल विधि आयोग को पत्र लिखकर ‘एक देश-एक चुनाव’ के समर्थन में कई तर्क दिए थे। बीजेपी का तर्क है कि भारत में अलग-अलग चुनाव होने से ज़्यादा सरकारी रकम ख़र्च होती है और क़ीमती समय भी नष्ट होता है।
बीजेपी का कहना है कि अगर औसत देखा जाए तो साल में लगभग तीन सौ दिन कहीं न कहीं किसी न किसी तरह के चुनाव होते रहते हैं और आचार संहिता लागू रहती है। इसका सीधा असर विकास पर पड़ता है। तब देश के मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा था कि अगर राजनीतिक दलों में इसके लिए आम सहमति बन जाती है तो चुनाव आयोग इसके लिए तैयार है।
जनवरी 2017 में ‘राष्ट्रीय मतदाता दिवस’ पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का समर्थन किया था। आमतौर पर हमारे संवैधानिक ढाँचे में राज्य व केंद्र सरकारें पाँच साल के लिए चुनी जाती हैं। कुछ परिस्थितियाँ ऐसी भी होती हैं, जब सरकारें पाँच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पातीं तो चुनाव आयोग संभावनाएँ देखकर उन राज्यों में या केंद्र में चुनाव कराने की क़वायद करता है।
‘एक देश-एक चुनाव’ की हिमायत करने वालों का कहना है कि भारत में जैसे ही एक राज्य में चुनाव ख़त्म होते हैं तो दूसरे राज्य में चुनाव शुरू हो जाते हैं। देश में एक साथ यानी 5 साल में अगर एक बार में ही संसद, विधानसभा, नगर पालिका और पंचायतों के चुनाव कराये जाएँ तो इससे बहुत सारा समय और इसमें ख़र्च होने वाला धन बचाया जा सकता है। चुनाव संपन्न कराने के लिए चुनाव आयोग को सुरक्षा बलों की तैनाती से लेकर सरकारी मशीनरी तक की भी व्यवस्था करनी होती है।
आइए, पिछले पाँच सालों में किस तरह लगातार एक के बाद एक चुनाव होते रहे, इस पर नज़र डालकर ‘एक देश- एक चुनाव’ के मुद्दे को समझने की कोशिश करते हैं।
2014 में लोकसभा के चुनाव हुए और उसी साल हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू कश्मीर में विधानसभा के चुनाव कराये गए। 2015 में बिहार और दिल्ली में विधानसभा के चुनाव हुए। 2016 में केरल, पुडुचेरी, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव हुए।
2017 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर और गोवा में विधानसभा के चुनाव हुए। 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ राजस्थान, मेघालय, मिज़ोरम, नगालैंड, तेलंगाना, त्रिपुरा और कर्नाटक में विधानसभा के चुनाव हुए। 2019 में लोकसभा के चुनाव हुए और इस साल ही कुछ राज्यों में फिर से विधानसभा के चुनाव होने हैं। ऐसे में पाँच साल में अधिकांश समय तक चुनाव ही होते रहे।
इसके विपरीत देश के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने ‘एक देश-एक चुनाव’ का पुरजोर विरोध किया है। कांग्रेस का कहना है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने का विचार पूरी तरह ग़लत है। पार्टी का कहना है कि एक साथ चुनाव भारतीय संघवाद की भावना के ख़िलाफ़ है।
कांग्रेस ने पिछले साल विधि आयोग के सामने आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा था कि वह एक साथ चुनाव कराए जाने के विरोध में है। कांग्रेस के मुताबिक़, यह विचार लोकतंत्र की बुनियाद पर हमला है। कई अन्य छोटे दलों ने भी साथ चुनाव कराये जाने का विरोध किया है।
‘एक देश-एक चुनाव’ के विरोध में यह तर्क दिए जाते हैं कि अगर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते हैं तो राष्ट्रीय स्तर के चुनाव की गूँज में कहीं राज्यों के मुद्दे दब न जाएँ। यह भी तर्क है कि क्षेत्रीय पार्टियाँ लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय दलों के चुनाव प्रचार का मुक़ाबला नहीं कर पाएँगी क्योंकि संसाधनों के मुक़ाबले में वे उनसे कहीं पीछे हैं, ऐसे में वह पिछड़ जाएँगी और राष्ट्रीय दलों के लिए जीत हासिल करना आसान होगा।
ऐसा नहीं है कि भारत में एक देश-एक चुनाव की बात पहली बार उठी है। देश की आज़ादी के बाद 1952 में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए गए। इसके बाद 1957, 1962, 1967 के दौरान भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होते रहे। लेकिन वर्ष 1971 में हुए मध्यावधि चुनाव के बाद यह क्रम टूट गया।
इस तरह ‘एक देश-एक चुनाव’ के विरोध और समर्थन में अपने-अपने तर्क हैं। अगर केंद्र सरकार 2024 में राज्यों और लोकसभा के चुनाव साथ कराना चाहती है तो कुछ राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल में विस्तार करना होगा और कुछ का कार्यकाल कम करना होगा। इससे भी ज़रूरी बात यह है कि सरकार को इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा और इसके लिए सभी दलों में सहमति बनाने की कोशिश करनी होगी।
अंत में यही कहा जा सकता है कि अगर ‘एक देश-एक चुनाव’ के विचार से राष्ट्र को फ़ायदा होता है तो यह होना चाहिए लेकिन इसके लिए सभी पहलुओं पर व्यापक चर्चा और विचार-विमर्श किया जाना चाहिए क्योंकि यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की चुनाव प्रक्रिया को तय करने की बात है। लेकिन अगर इसे लागू करने से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को किसी तरह का नुक़सान होता हो तो इसे त्याग दिया जाना चाहिए। चूँकि पहले भी देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ होते रहे हैं, ऐसे में विधि आयोग, सरकार, सभी राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और तभी किसी अंतिम निर्णय पर पहुँचना चाहिए।