ऐसे समय जब कृषि क़ानून 2020 के ख़िलाफ़ किसान आन्दोलन जन आन्दोलन बनता जा रहा है, साल भर पहले सीएए और एनआरसी के ख़िलाफ़ चले आन्दोलन को याद करना ज़रूरी है। किसान आन्दोलन की तरह ही उस आन्दोलन को भी बदनाम किया गया था, उसके ख़िलाफ़ भी सरकारी एजंसियों ने तरह-तरह के हथकंडे अपनाए थे। दोनों आन्दोलनों में यह अंतर ज़रूर है कि पिछले साल के आन्दोलन को पुलिस ने बुरी तरह कुचल दिया था। किसान आन्दोलन के साथ अब तक ऐसा नहीं हुआ है।
दिसंबर 2019 में जामिया मिलिया इसलामिया और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में समान नागरिकता क़ानून और नैशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिजंस के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त आन्दोलन चला था। लेकिन पुलिस ने 15 दिसंबर, 2019, की रात जामिया परिसर में घुस कर ज़बरदस्त कार्रवाई कर जिस तरह उसे कुचला, मानवाधिकारों को बड़े पैमाने पर उल्लंघन हुआ, उससे यह साफ हो गया कि राजनीतिक असहमति और विरोध की जगह कम होती जा रही है। उसके बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने जो रवैया अपनाया, उससे उस पर गंभीर सवाल उठे थे।
पुलिस पर एक समुदाय विशेष के छात्रों को निशाने पर लेने का आरोप भी लगा था।
जामिया मिलिया इसलामिया
'द वायर' के अनुसार, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ओर से मंज़िल सैनी ने जामिया मिलिया इसलामिया में हुई पुलिस कार्रवाई की जाँच कर रिपोर्ट दी थी। उस पर सवाल उठे थे और यह सवाल पूछा जाने लगा था कि क्या इस तरह की स्वतंत्र एजंसियाँ भी सरकार का पिट्ठू बन जाती हैं।
दिल्ली के कालकाजी और न्यू फ़्रेंड्स कॉलोनी पुलिस थानों में हिरासत में रख गए कम से कम 30 छात्रों को क़ानूनी हक़ नहीं मिलने और उनके मानिवाधिकारों का उल्लंघन करने का आरोप दिल्ली पुलिस पर लगा था।
एनएचआरसी रिपोर्ट
मानवाधिकार आयोग ने छात्रों के सिर ही ठीकरा यह कह कर फोड़ दिया था कि उन्होंने विरोध प्रदर्शन शुरू करने के पहले अनुमति नहीं ली थी। लेकिन उसने इस बात को नज़रअंदाज किया था कि पुलिस ने जामिया परिसर में घुसने के पहले विश्वविद्यालय की अनुमति नहीं ली थी।
आयोग ने यह भी कहा था कि 'स्थानीय राजनीतिक गुंडों' ने छात्रों के आन्दोलन को चलाया था, लेकिन इसके पक्ष में कोई सबूत नहीं दिया।
आयोग ने रिपोर्ट में कहा था कि सीएए और एनआरसी के ख़िलाफ़ चले आन्दोलन के पीछे की 'वास्तविक मंशा और असली लोगों की पहचान' करना ज़रूरी है। एक तरह से उसने इसे 'आपराधिक कार्रवाई' ही माना।
रिपोर्ट में यह तो कहा गया था कि छात्रों ने सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान पहुँचाया, पर पुलिस ज़्यादती पर कोई टिप्पणी नहीं की थी।
मानवाधिकार आयोग ने रिपोर्ट में इस पर टिप्पणी नहीं की थी कि किस तरह पुलिस ने छात्राओं के साथ बदसलूकी की थी, मसजिद पर हमला किया था, इमाम को बुरी तरह पीटा था, समुदाय विशेष को गालियाँ दी थीं। इसका भी उल्लेख नहीं था कि पुलिस ने ज़रूरत से ज़्यादा बल प्रयोग किया था।
अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में सीएए- विरोधी आन्दोलन को कुचलने में पुलिस ज़्यादतियों की जाँच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से करने को कहा था।
आयोग ने कहा था कि देश को सांप्रदायिक ताक़तों से बचाने के लिए पुलिस कार्रवाई ज़रूरी थी।
पुलिस ने कहा था कि छात्रों ने विश्वविद्यालय परिसर के अंदर सुनियोजित हिंसा की थी, तोड़फोड़ की थी। लेकिन वह ऐसा एक भी मामला पेश नहीं कर सकी।
ज़्यादती की अनदेखी
'द वायर' के अनुसार, अकबराबाद थाने में बंद छात्रों ने शिकायत की थी कि उन्हें गालियाँ दी गई थीं और उन्हें पीटा गया था। लेकिन मानवाधिकार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इसे सिर्फ पुलिस का 'ग़ैर-पेशेवर रवैया' माना। पुलिस यंत्रणा में 22 छात्र बुरी तरह घायल हो गए थे और मलखान सिंह अस्पताल में उनका इलाज कराया गया था, उन मेडिकल रिपोर्टों पर मानवाधिकार आयोग ने ध्यान नहीं दिया।
मॉरिसन हॉस्टल के रूम नंबर 46 में छात्रों की बुरी तरह की गई पिटाई का सीसीटीवी फ़ुटेज भी मौजूद था, लेकिन आयोग ने उसका संज्ञान ही नहीं लिया।
जामिया मिलिया इसलामिया और एएमयू, दोनों ही जगहों पर हुई पुलिस ज़्यादतियों पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट एक सी है। दोनों में ही पुलिस का बचाव किया गया है, ज़्यादतियों को अनदेखा किया गया है, उनके ख़िलाफ़ सबूत का संज्ञान नहीं लिया गया है।
अभी भी जेल में हैं छात्र
साल भर पहले चले आन्दोलन और उसे कुचलने के लिए हुई पुलिस ज़्यादतियों का मामला बंद नहीं हुआ है। दिल्ली में चले सीएए-विरोधी आन्दोलन में शामिल कई छात्र अभी भी जेलों में बंद हैं, ज़्यादातर को ज़मानत नहीं मिली है।
फरवरी, 2020 में हुए दिल्ली दंगों में पुलिस ने जिन लोगों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाखिल की, उसमें ज़्यादातर वे लोग हैं, जो इस आन्दोलन से जुड़े हुए थे। एडिशनल चार्ज शीट में तो सीपीआईएम नेता सीताराम येचुरी, अर्थशास्त्री जयति घोष, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद तक के नाम हैं। इसमें पिंजड़ा तोड़ आन्दोलन से जुडी छात्राओं के भी नाम हैं। उनमें से कई अभी भी जेलों में हैं।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इन तमाम मुद्दों पर चुप है।
सवाल यह है कि यदि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी स्वतंत्र समझी जाने वाली संस्थाएं भी इस तरह का रवैया अपनाएंगी तो लोग क्या करेंगे, कहाँ जाएंगे।