विकसित भारत का जुमला बोल देने भर से विकास नहीं होता। इससे भारत की समस्याओं का समाधान नहीं होगा। परिपक्व अर्थव्यवस्था में खेतों में काम करने वाले मजदूर वहां से निकलकर बड़े शहरों में जाते हैं, वहां इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में उन्हें काम मिलता है। उन्हें खेत मजदूर के मुकाबले बड़े शहरों में ज्यादा पैसा मिलता है और इसे असंगठित क्षेत्र कहा जाता है। लेकिन मोदी राज में उल्टा हुआ। खेत मजदूर बढ़ गये हैं। लोग खेती पर आधारित काम करने को मजबूर हैं। बेशक उनमें उन्हें बहुत मामूली आमदनी हो रही है।
द प्रिंट ने नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) द्वारा जारी 2022-23 अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण के जरिये बताया है कि खेत मजदूर बढ़ गये हैं। वे शहरों का रुख नहीं कर रहे हैं। डेटा से पता चलता है कि ग्रामीण और अर्ध-शहरी परिवारों का अनुपात जो "कृषि" पर आधारित था, 2016-17 में 48 प्रतिशत से बढ़कर 2021-22 में 57 प्रतिशत हो गया। दूसरे शब्दों में, इन पांच वर्षों में अधिक परिवार खेती पर निर्भर हो गये।
यहां सवाल उठेगा कि कोरोना काल में यह हुआ था जब कई शहरों से मजदूर गांवों में अपने घरों को लौट गये थे। 24 मार्च 2020 की शाम को चार घंटे का नोटिस देकर देशभर में तालाबंदी की घोषणा की गई थी। जिससे शहरी रोजगार पूरी तरह से चौपट हो गया। कामकाजी मजदूर के सपने बिखर गये। लाखों मजदूर अपने सामान के साथ सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घर जाने के लिए मजबूर हुए। यह बहुत बड़ा झटका था, जिससे निकलने में बहुत समय लगा। लेकिन क्या इसके बाद इस वर्ग की हालत बेहतर हुई। क्योंकि शहरों में औद्योगिकीकरण से लेकर कंस्ट्रक्शन और सेवाएं (सर्विसेज) इन्हीं मजदूरों पर आधारित हैं।
नाबार्ड ने अपना सर्वे दो साल बाद या काफी हद तक कोरोना खत्म होने के बाद किया। नाबार्ड सर्वे सितंबर 2022 से शुरू होकर दस महीनों में किया गया। तब तक लॉकडाउन खत्म हो चुका था। लेकिन इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि भारत में कोविड महामारी आने से बहुत पहले ही औद्योगिकीकरण की रफ्तार धीमी हो गई थी।
2004-05 के बाद 15 वर्षों तक, युवक खेतों पर मजदूरी छोड़कर शहरों में ज्यादा पैसे पर इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में मजदूरी करने चले गये। यही तेजी से बढ़ती हुई एक बेहतर औद्योगिक अर्थव्यवस्था की पहचान है। अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा के अनुसार, 2004-05 और 2017-18 के बीच कृषि श्रमिकों की संख्या में 6.7 करोड़ की गिरावट आई। 2019-20 के एक साल कोविड से पहले खेती में श्रमिकों की संख्या में 3.4 करोड़ की वृद्धि हुई। 2018-19 के बाद से कृषि श्रमिकों की संख्या में 6 करोड़ की वृद्धि हुई है। दूसरे शब्दों में, मोदी राज में भारतीय श्रम शक्ति गांवों की तरफ लौट गई, क्योंकि शहरों में उसके लिए रोजगार खत्म हो गये। याद कीजिए 2016 की नोटबंदी। उसके बाद का ये नतीजा है।
सरकार का अपना श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) इस बात की पुष्टि करता है। 2004-05 और 2018-19 के बीच, वर्कफोर्स में कृषि श्रमिकों की हिस्सेदारी लगातार 59 प्रतिशत से गिरकर 43 प्रतिशत हो गई। यानी यूपीए के दौरान खेत मजदूरों के कदम शहरों की तरफ थे। वे लगातार ज्यादा पैसे के लिए मजदूरी करने शहरों में जा रहे थे, बढ़ती हुई औद्योगिक अर्थव्यवस्था का यह एकमात्र संकेत होता है। लेकिन 2023-24 में खेत मजदूरों की हिस्सेदारी गांवों में बढ़कर 46 प्रतिशत हो गई है। यानी शहरों में औद्योगिकीकरण धीमा हो गया या खत्म हो गया। सौ बातों की एक बात- खेत में मजदूरी करने की इच्छा कौन रखता है? हर खेत मजदूर का सपना होता है कि वो शहर जाकर ज्यादा पैसा कमाये। लेकिन खेत मजदूर कम होने की बजाय बढ़ गये।
मोदी भक्त अभी भी नहीं मानेंगे। तो उनके लिए यह आंकड़ा है। 2023-24 में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में वर्कफोर्स गिरकर 11% रह गई। यानी गांवों से आने वाले रुक गये, क्योंकि उनके लिए मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की चेन रोजगार पैदा नहीं कर रहा था। 'मेक इन इंडिया', 'आत्मनिर्भर भारत' और अमृत काल जैसे नारे ढकोसले या दिल को बहलाने के लिए काफी हैं। वास्तविकता से कोसों दूर। मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर ही देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार बताता है। उसकी एक चेन है, जिसमें हर स्तर पर छोटे से लेकर बड़े पदों तक रोजगार पैदा होते हैं।
इन हालात को दो तरह से रखा जा सकता है। एक तो यही कि मोदी सरकार के इरादे तो नेक हैं लेकिन वो कुछ भी करने में अक्षम है। वह चाहती है कि भारत का औद्योगीकरण हो और कौन नहीं चाहेगा? लेकिन ऐसा करने में वो असमर्थ है। लेकिन जब आप जवाहर लाल नेहरू और यूपीए सरकार की नीतियों को कोसना बंद करके अपने गिरेबान में नहीं झाकेंगे तब तक आप कुछ नहीं कर पायेंगे। आपने रोजगार सृजन नहीं किया, आपके कार्यकाल में खेत मजदूर बढ़े और शहरों में रोजगार खत्म हो गये। आंकड़े सामने हैं। यूपीए सरकार का रोजगार सृजन और संतुलित विकास का रेकॉर्ड बहरहाल आप से बेहतर था।
अब आप दूसरी स्थिति पर नजर डालें। मोदी सरकार लगातार चुनाव प्रचार के मोड में रहती है। वो राजनीतिक फंडिंग की भूख के जाल में फंस गई है। यह साफ है कि मोदी बड़े कारोबारियों के खुले समर्थन से सत्ता में आए, और बड़े कारोबारी अब अपना हिस्सा प्राप्त कर ररे हैं। उसने छोटे और मझोले उद्योगों की तरफ से आंखें बंद कर लीं। ईडी, सीबीआई और आयकर जैसी एजेंसियों का डर छोटे उद्योगपतियों के लिए भी खड़ा किया गया। बड़े कारोबारियों ने एकाधिकार वाले बिजनेस शुरू कर दिये, यानी दूसरों के लिए फलने-फूलने के मौके बंद कर दिये गये। इसका सबसे बड़ा उदाहरण देश के एयरपोर्ट हैं। अधिकांश पर एक ही कारोबारी ग्रुप का कब्जा है। विदेश से आने वाली कंपनियों को यहां के दो बड़े कारोबारियों के जरिये काम करने पर ही तमाम सुविधायें दी गईं। कई कंपनियों को भारत छोड़ना पड़ा। यह स्थिति किसी भी अर्थव्यवस्था के लिये अच्छी नहीं होती जब मोनोपली (एकाधिकार) बिजनेस को बढ़ावा दिया जाता हो।
भारत की अर्थव्यवस्था को समझने के लिए किसी काबिलियत की जरूरत नहीं है। भारत को ऐसी नीतियों की जरूरत है जो छोटे व्यवसायों को बढ़ावा दे, क्योंकि यही क्षेत्र 90 फीसदी इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी नौकरियां पैदा करते हैं। पूंजी और तकनीक आसानी से बाजारों तक पहुंच बना सकें। लोग खेतों पर मजदूरी छोड़कर शहरों में तभी आयेंगे जब आकर्षक नौकरियाँ उपलब्ध होंगी जो उन्हें थोड़ी सी आर्थिक सुरक्षा प्रदान करेंगी। एक बेहतर एमएसएमई क्षेत्र बनाना, जिसके लिए ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स का डर न हो।
इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए कि भारत के लिए खेती-किसानी जरूरी नहीं है। वो भी बेहद जरूरी है। क्योंकि भारत अभी भी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था बनी हुई है। लेकिन मोदी सरकार को कम मजदूरी वाले कामों में फंसे श्रमिकों के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर और सर्विसेज की बेहतर भुगतान वाली नौकरियों में ट्रांसफर करने के लिए एक रास्ता तो बनाना होगा। राजनीतिक लाभ के लिए एकाधिकारवादी (मोनोपली बिजनेस) खेल खेलना हमें विकसित भारत के करीब नहीं लाएगा। संतुलन जरूरी है।