प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने फ़ैसलों को कभी वापस नहीं लेते। बीजेपी के नेताओं और समर्थकों ने उनकी छवि ऐसे शख़्स की गढ़ी है जो कभी दबाव के आगे नहीं झुकते लेकिन आज उन्हें भी झुकना पड़ा है।
मोदी ने शुक्रवार को जैसे ही कृषि क़ानूनों को वापस लिए जाने का एलान किया तो यही बात लोगों की जुबान पर थी। लेकिन बीते एक साल में जिस तरह पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड के किसानों ने दिल्ली के बॉर्डर्स पर खूंटा गाड़ दिया था उससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी लगने लगा था कि उन्हें किसानों की मांग माननी ही पड़ेगी।
सभी राजनीतिक दलों विशेषकर कांग्रेस ने किसानों की आवाज़ को पुरजोर तरीक़े से उठाया। राहुल गांधी ने कई बार कहा कि ये तीनों कृषि क़ानून दो-तीन उद्योगपतियों के फ़ायदे के लिए लाए गए हैं और सरकार को ये क़ानून वापस लेने ही पड़ेंगे। राहुल ने कहा था कि किसानों का हक़ छीना जा रहा है। राहुल ट्रैक्टर चलाकर संसद भी पहुंचे थे।
शिरोमणि अकाली दल ने भी कृषि क़ानूनों के मुद्दे को लगातार उठाया। अकाली दल के सांसदों ने बीते संसद सत्र के दौरान लगातार प्रदर्शन कर सरकार से इन क़ानूनों को वापस लेने की मांग की थी।
किसानों की नाराज़गी को देखते हुए ही शिरोमणि अकाली दल और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी ने एनडीए से नाता तोड़ लिया था जबकि हरियाणा में बीजेपी के साथ रहने की वजह से दुष्यंत चौटाला लगातार किसानों के निशाने पर थे।
कई राज्यों में जबरदस्त विरोध
किसान आंदोलन के कारण बीजेपी के नेताओं को जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ रहा था। पंजाब में तो बीजेपी के नेताओं का छोटे-छोटे कार्यक्रम तक करना मुश्किल हो गया था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी कई जगहों पर बीजेपी नेताओं का गांवों में घुसना मुश्किल हो गया था।
हरियाणा में सरकार चला रही बीजेपी-जेजेपी के नेताओं को किसानों के ग़ुस्से का शिकार होना पड़ा। नवंबर, 2020 में दिल्ली के बॉर्डर्स पर किसान आंदोलन शुरू होने के बाद से ही किसानों ने हरियाणा में कई बार इन दलों के नेताओं को कई जगहों से उल्टे पांव लौटने को मज़बूर कर दिया था।
कई जिलों में खाप पंचायतों ने एलान किया था कि वे बीजेपी-जेजेपी के नेताओं को अपने इलाक़े में घुसने नहीं देंगे। इस दौरान पुलिस के साथ कई बार किसानों की अच्छी-खासी भिड़ंत हुई थी।
राजस्थान में कुछ जगहों पर किसान खासे आंदोलित थे और उत्तराखंड के तराई वाले इलाक़े में भी किसान आंदोलन बेहद मज़बूत था। बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के नेताओं के लिए इस विरोध को झेल पाना मुश्किल हो गया था।
थके नहीं थे किसान
एक साल के लगातार संघर्ष के बाद भी किसान थके नहीं थे। किसान नेता लगातार कहते थे कि अगर पांच साल तक भी किसान आंदोलन चला तो वे इसे चलाएंगे। उन्होंने हाल ही में संसद मार्च का भी आह्वान किया था।
संघ की ओर से बीजेपी नेतृत्व और मोदी सरकार को किसान आंदोलन के बारे में फ़ीडबैक दिया जा चुका था कि यह भारी पड़ सकता है। ऐसे में मोदी सरकार को किसानों और विपक्ष के राजनीतिक दबाव के आगे झुकते हुए उनकी मांगों को मानना ही पड़ा।