रफ़ाल सौदे पर 'द हिन्दू' में वरिष्ठ पत्रकार एन. राम के ख़ुलासे के बाद पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने एक लम्बा बयान जारी किया है। एन. राम के ख़ुलासे को 'सत्य हिन्दी' ने छापा था। चिदम्बरम ने एन. राम की उसी रिपोर्ट के आधार पर रफ़ाल सौदे से जुड़े तथ्यों की व्याख्या कर सवाल उठाया है कि मोदी सरकार ने 126 के बजाय केवल 36 रफ़ाल विमान ख़रीदने का फ़ैसला क्यों किया और इस फ़ैसले से कैसे दसाँ कम्पनी को फ़ायदा पहुँचेगा। चिदम्बरम का पूरा बयान हम यहाँ जस का तस छाप रहे हैं:
यदि सरकार यह उम्मीद कर रही थी कि रफ़ाल विमानों की ख़रीद पर उठा विवाद दब जाएगा, तो उसका ऐसा सोचना ग़लत था। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के तुरन्त बाद भी हमने यही बात कही थी। और अब 'द हिन्दू' में ख़बर छपने के बाद यह मुद्दा न केवल फिर से जीवित हो उठा है, बल्कि इसमें एक नया आयाम भी जुड़ गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 10 अप्रैल 2015 को जब पेरिस में यूपीए सरकार के 126 रफ़ाल ख़रीदने के फ़ैसले को रद्द कर उसकी जगह केवल 36 विमान ही ख़रीदने का नया सौदा करने की घोषणा की, तभी से एक सवाल लगातार उठ रहा था। वह यह कि आख़िर सरकार ने वायु सेना की 126 विमानों (7 स्क्वाड्रन) की ज़रूरत के बजाय केवल 36 विमान (2 स्क्वाड्रन) ही ख़रीदने का फ़ैसला क्यों किया?प्रधानमंत्री, या रक्षामंत्री, या वित्त मंत्री या क़ानून मंत्री ने इस सवाल का जवाब कभी नहीं दिया। यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस सवाल पर विचार करने से साफ़ इनकार कर दिया था।'द हिन्दू' की शानदार खोजी रिपोर्ट के बाद अब इस सवाल का जवाब हमारे पास है। जनहित में प्रकाशित इस रिपोर्ट के लिए हम इस अख़बार को बधाई देते हैं। रिपोर्ट के तथ्यों के अध्ययन और विश्लेषण के बाद निम्नलिखित बिन्दु उभरते हैं:
कैसे बढ़ी रफ़ाल की क़ीमत?
यूपीए सरकार से 2007 में हुए सौदे में केवल विमान ढाँचे (Bare Bones) की क़ीमत प्रति विमान 79.3 मिलियन यूरो तय की गई थी। 2011 में यह क़ीमत बढ़ कर प्रति विमान 100.85 मिलियन यूरो हो गई। 2016 में एनडीए सरकार ने क़ीमतों पर दुबारा बातचीत कर 9% 'डिस्काउंट' ले लिया, जिससे क़ीमत घट कर (संभवत: 2011 से 2016 के बीच बढ़ी क़ीमत को आधार मान कर) प्रति विमान 91.75 मिलियन यूरो हो गई।भारतीय वायु सेना ने अपनी ज़रूरतों के हिसाब से विमान में 13 बदलावों (अंग्रेज़ी में इसे 'इंडिया स्पेसिफ़िक एन्हासमेंट' या 'आईएसइ' कहा गया, सुविधा के लिए आगे हम इसे 'आईएसइ' ही कहेंगे) की माँग की। विमानों में इन बदलावों यानी 'आईएसइ' को जोड़ने के लिए कुल क़ीमत तय हुई 1300 मिलियन यूरो की। यह क़ीमत यूपीए और एनडीए दोनों के ही द्वारा किए गए सौदे के तहत चुकाई जानी थी। अब कहानी में पेंच यहीं पर आता है।
यूपीए के सौदे के तहत दसाँ कम्पनी को यह 1300 मिलियन यूरो की रक़म 126 विमानों को बेचने के बाद मिलती। लेकिन एनडीए के सौदे के तहत दसाँ को यह पूरी रक़म केवल 36 विमानों को बेचने से ही मिल जा रही है।
मान लें कि दसाँ से हमको हर महीने एक रफ़ाल की डिलीवरी मिलती तो अगर 126 विमानों की ख़रीद की गई होती तो दसाँ को 1300 मिलियन यूरो की यह रक़म 126 महीनों में यानी साढ़े दस सालों में (या शायद कुछ पहले) चुकाई गई होती। लेकिन अगर सिर्फ़ 36 विमान ही ख़रीदे जाते हैं, और उनकी डिलीवरी 2019 से 2022 (चिदम्बरम के मूल वक्तव्य में 2009 से 2012 लिखा है, लेकिन संभवत: यह टाइपिंग की ग़लती है) के बीच होती है तो दसाँ को यह 1300 मिलियन यूरो सिर्फ़ 36 महीनों में ही मिल जाएँगे।
दसॉ को दुहरा फ़ायदा
इससे दसाँ को दो तरह से फ़ायदा होगा। पहला प्रति विमान क़ीमत का, क्योंकि अगर 126 विमान ख़रीदे गए होते तो प्रति विमान क़ीमत सिर्फ़ 10.3 मिलियन यूरो बढ़ती। लेकिन नए सौदे में केवल 36 विमानों के ख़रीदे जाने के कारण प्रति विमान क़ीमत 36.11 मिलियन यूरो बढ़ जाएगी। दूसरा यह कि अगर 'रक़म के मौजूदा मूल्य' को आधार बनाया जाए, तो दसाँ को मिलने वाले 1300 मिलियन यूरो का मूल्य (यदि उसे 2022 तक यह पैसा मिल जाता है) नए सौदे में बहुत बढ़ जाता है, बनिस्बत इसके कि उसे यूपीए के पुराने सौदे के तहत यह पूरा पैसा 2029 तक या उसके आसपास मिल पाता। दसाँ को एनडीए सरकार ने यही उपहार अप्रैल 2015 से अगस्त 2016 के बीच दिया है। दसाँ को एक और तरीक़े से फ़ायदा होगा। अगर सरकार बाक़ी के 90 विमानों (यानी 36+90=126) का ऑर्डर भी दसाँ को देती है, तो निश्चित रूप से दसाँ 'आईएसइ' युक्त विमानों के लिए प्रति विमान वही क़ीमत वसूलेगी, जिस पर उसने 36 विमान बेचने का सौदा किया है। हालाँकि 'आईएसइ' की पूरी की पूरी लागत वह 36 विमानों को बेच कर ही निकाल चुकी होगी। शायद इसीलिए सरकार ने और अधिक विमान ख़रीदने के 'फ़ॉलो ऑन' (मूल ऑर्डर के 50 प्रतिशत विमानों की ख़रीद उसी क़ीमत और शर्तों पर) का प्रावधान सौदे में से हटा दिया।दसॉ की दसों उंगलियाँ घी में
मुझे लगता है कि इससे दसाँ तो बहुत मौज में होगी।
सरकार ने देश को दो तरह से नुक़सान पहुँचाया। पहला तो यह कि सरकार ने वायु सेना को 90 रफ़ाल विमानों से वंचित कर राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता किया है। वायु सेना को इन विमानों की सख़्त ज़रूरत है। दूसरा यह कि उसने केवल दो स्क्वाड्रन ख़रीदे हैं, जिनकी प्रति विमान क़ीमत पहले के समझौते की तुलना में 25 मिलियन यूरो ज़्यादा होगी।
2016 की विनिमय दरों के मुताबिक़ यह रक़म 186 करोड़ रुपये बैठती है। यानी भारत प्रति विमान 186 करोड़ रुपये ज़्यादा चुकाएगा।'द हिन्दू' की रिपोर्ट एनडीए सरकार के निर्णय लेने की प्रक्रिया पर भी कई गम्भीर सवाल उठाती है। मनोहर पर्रीकर तो पूरे मामले को सीसीएस (सुरक्षा पर कैबिनेट कमेटी) के मत्थे थोप कर निकल लिए। चतुर व्यक्ति हैं वह! हम आज प्रक्रिया पर टिप्पणी नहीं करेंगे। लेकिन भारत की तरफ़ से यह सौदा करने के लिए गठित टीम के उन तीन सदस्यों को बधाई देना ज़रूरी है, जिन्होंने हर प्रकार को दबावों के बावजूद हर ग़लत मुद्दे पर 4-3 के वोट से अपनी असहमति जताई। यह 4-3 का वोट ख़ुद पूरी कहानी कह देता है। क्या इसके पहले के किसी रक्षा सौदे में कभी ऐसा हुआ? इस सौदे में ऐसा क्या ख़ास था कि सारी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए हर फ़ैसला 4-3 के बहुमत से लिया गया!इसमें अब कोई सन्देह नहीं कि रफ़ाल विमान सौदे की गहराई से जाँच संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) द्वारा की जानी चाहिए। कांग्रेस जेपीसी जाँच की अपनी माँग फिर दोहराती है।