किसानों के दिनों-दिन बढ़ते आंदोलन को देखकर सरकार समझ चुकी है कि पानी सिर के ऊपर जा रहा है। ऐसे में सरकार के साथ ही उसके समर्थक भी सिर धुन रहे हैं कि क्या किया जाए। क्या कोई ऐसा नैरेटिव चला दिया जाए जिससे किसानों के आंदोलन को जनता की नज़र में देश विरोधी साबित किया जा सके।
इसके लिए सबसे पहले बीजेपी के नेताओं और सरकार के मंत्रियों की ओर से यह कहा गया कि यह आंदोलन सिर्फ़ पंजाब के किसानों का है और बाक़ी राज्यों के किसान इन कृषि क़ानूनों के समर्थन में हैं। लेकिन जब पश्चिमी यूपी, उत्तराखंड, राजस्थान, एमपी और बाक़ी कई राज्यों में भी किसानों ने इन कृषि क़ानूनों की मुखालफ़त की तो सरकार और उसके समर्थकों ने पैंतरा बदला और कहा कि खालिस्तान समर्थक लोग इस आंदोलन को चला रहे हैं।
किसानों को खालिस्तानी कहे जाने की देश ही नहीं दुनिया भर में कड़ी प्रतिक्रिया हुई। इस हरक़त के ख़िलाफ़ कनाडा, ब्रिटेन, यूरोप के कई देशों और इसके अलावा जहां-जहां भी पंजाबी फैले हैं, वहां तक लोग सड़कों पर उतर आए। इधर, दिल्ली में किसानों का आंदोलन जोर पकड़ गया और भारत बंद के दौरान देश के कई राज्यों में किसान तो सड़क पर उतरे ही, मजूदर और कर्मचारी संगठनों ने भी ताल ठोक दी और सरकार को इस बात का अहसास कराया कि देश में लोकतंत्र अभी जिंदा है।
विपक्षी दलों का साथ मिलने से किसान आंदोलन सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक मजबूत हुआ है। लेकिन किसान नहीं चाहते कि उनके आंदोलन का राजनीतिक इस्तेमाल हो, इसलिए उन्होंने किसी भी नेता को मंच पर आने की अनुमित नहीं दी है।
शायद, सरकार को ये बात समझ नहीं आती या वह समझना नहीं चाहती कि जो किसान किसी भी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं लेकर अपने दम पर इस लड़ाई को लड़ रहे हैं वे आख़िर क्यों इसमें वामपंथियों या किसी अन्य विचारधारा के लोगों को आने देंगे।
नया नैरेटिव ले आए
अब जब किसानों ने कह दिया है कि वे देश भर में टोल प्लाजा को फ्री करेंगे, बीजेपी के नेताओं-मंत्रियों का घेराव करेंगे, अडानी-अंबानी के प्रोडक्ट्स का बहिष्कार करेंगे और 14 दिसंबर को जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शन करेंगे तो एक नया नैरेटिव चला दिया गया है कि किसानों के आंदोलन को कट्टर वामपंथियों ने हाईजैक कर लिया है।
इस तरह के नैरेटिव पिछले कुछ सालों में ही चर्चा में आए हैं। वरना पिछली सरकारों में भी निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए बड़ा आंदोलन हुआ, अन्ना आंदोलन हुआ, सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन हुए तब किसी को यह नहीं कहा गया कि आप खालिस्तानी हो, पाकिस्तानी हो, गद्दार हो, देशद्रोही हो।
हताश हो चुकी है सरकार
मोदी सरकार के हाथ-पांव ढीले हो चुके हैं। बिहार की जीत के बाद उसे लगा था कि बस अब दूर-दूर तक कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं बचा है। तब कुछ टीवी चैनलों ने ऐसा माहौल बना दिया था कि मोदी की लोकप्रियता कोरोना काल में कई गुना बढ़ गई है और देश में आज़ादी के बाद उनके क़द के आसपास टिकने वाला कोई करिश्माई नेता पैदा नहीं हुआ है।
सुनिए, किसान आंदोलन पर चर्चा-
कुछ महीने पहले जब किसान कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ पंजाब में धरना दे रहे थे और सरकार से अनुरोध कर रहे थे कि वह इन्हें वापस ले ले। लेकिन सरकार तो जीत के मद में चूर थी, उसे क्या पता था कि किसान कुछ ही दिन में दिल्ली पर चढ़ाई कर देंगे।
अब जब हालात विकट हो चुके हैं और किसान मानने के लिए तैयार नहीं हैं तो इस तरह के नैरेटिव का सहारा लिया जा रहा है। सिर्फ़ पंजाब का आंदोलन, खालिस्तानी वाले नैरेटिव के बाद इस आंदोलन को कट्टर वामपंथियों द्वारा हाईजैक करने का नैरेटिव भी औंधे मुंह गिरेगा।
बीजेपी के नेताओं, सरकार के मंत्रियों के अपने विरोधियों के लिए ऐसे बयान देना कि वे पाकिस्तानी हैं, खालिस्तानी हैं, देशद्रोही हैं, मोदी सरकार के निकम्मेपन को बताता है। भारत में अगर कोई पाकिस्तानी-खालिस्तानी रह रहा है तो सरकार क्या झक मार रही है
लोगों की नाराज़गी बढ़ेगी
इससे सरकार और उसके समर्थक मीडिया के ख़िलाफ़ लोगों में और नाराज़गी बढ़ना तय है क्योंकि लोगों को पता है कि एक वर्ग ऐसा है जो मोदी सरकार पर सवाल उठते ही तुरंत नया नैरेटिव तैयार कर देता है। मसलन जामिया के छात्रों को जिहादी बताना, शाहीन बाग़ में बैठे लोगों को पाकिस्तानी बताना, जेएनयू के छात्रों को टुकड़े-टुकड़े गैंग का बताना आदि।
अगर बीजेपी और मोदी सरकार में कुछ पढ़े-लिखे लोग बैठे हों, तो वे हुक़्मरानों को समझाएं कि ये फसल उगाने वालों का आंदोलन है, ये लोग फसल नहीं उगाएंगे तो दुनिया से अनाज खरीदकर भी 135 करोड़ लोगों का पेट सरकार नहीं भर पाएगी।
इसलिए, इस तरह के नैरेटिव खड़े करने के बजाए सरकार किसानों के साथ हमदर्दी का रास्ता अख़्तियार करे वरना हालात बेहद ख़राब होते चले जाएंगे और वैसे भी अब सरकार के बस में कुछ नहीं है। सिर्फ एक चीज बस में है और वह यह कि वह किसानों की बात मान ले।