स्कूलों से लेकर नौकरियों तक में एससी-एसटी वर्ग के साथ भेदभाव

06:59 pm Aug 17, 2022 | सत्य ब्यूरो

जालौर में 9 साल की उम्र के बच्चे इंद्र कुमार मेघवाल की पिटाई के बाद हुई मौत के बाद जातिगत भेदभाव और जाति के आधार पर होने वाले उत्पीड़न का सवाल फिर से आ खड़ा हुआ है। स्कूलों में होने वाला इस तरह का भयावह उत्पीड़न निश्चित रूप से दलित समाज के बच्चों के मन में डर पैदा करता है और उन्हें अपने बेहतर भविष्य के लिए आगे बढ़ने से भी रोकता है।

यह भेदभाव स्कूलों से निकलकर आगे शिक्षण संस्थानों और नौकरियों वाली जगहों पर भी है और यह बात खुद संसद की एक समिति ने बताई है। 

एससी-एसटी के कल्याण से संबंधित एक संसदीय समिति ने हाल ही में कहा था कि एम्स में एड-हॉक यानी तदर्थ आधार पर कई वर्षों तक काम करने वाले एससी-एसटी के जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर्स को नियमित करने के वक्त रिक्त पदों के लिए नहीं चुना गया। समिति ने इस बात पर चिंता जताई थी कि एम्स जैसे संस्थान में वंचित तबक़े के डॉक्टर्स के साथ ऐसा बर्ताव होता है। 

संसदीय समिति का यह आकलन और ये सिफारिशें अनुसूचित जातियों-जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास में केंद्रीय विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेजों, आईआईएम, आईआईटी, चिकित्सा संस्थानों, नवोदय विद्यालयों और केंद्रीय विद्यालयों की भूमिका पर एक रिपोर्ट का हिस्सा है। इसमें एम्स में आरक्षण नीति के कार्यान्वयन का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया गया था। 

टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार, संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि एम्स में कुल 1111 संकाय पदों में से 275 सहायक प्रोफ़ेसर और 92 प्रोफ़ेसर के पद रिक्त हैं।

संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में आरोप लगाया था कि 'उचित पात्रता, योग्यता होने के बावजूद पूरी तरह से अनुभवी एससी-एसटी उम्मीदवारों को देश के प्रमुख मेडिकल कॉलेज में प्रारंभिक चरण में भी संकाय सदस्यों के रूप में शामिल करने की अनुमति नहीं मिली।

समिति ने कहा था कि एमबीबीएस और अन्य स्नातक पाठ्यक्रमों और अलग-अलग एम्स में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में एससी-एसटी के प्रवेश का कुल प्रतिशत अनुसूचित जाति के लिए 15% और एसटी के लिए 7.5% के ज़रूरी स्तर से काफी नीचे है। 

छात्रवृत्ति योजना के लाभार्थियों में गिरावट 

इसके अलावा एक संसदीय समिति ने हाल ही में इस बात की सिफारिश की है कि एससी और एसटी समुदाय के छात्रों को प्री मैट्रिक और पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप लेने के लिए उनके माता-पिता की वार्षिक आय का ढाई लाख रुपए का जो दायरा है, उसे बढ़ाकर 8 लाख रुपये किया जाना चाहिए। समिति ने इसे लेकर चिंता जताई है कि बीते कई सालों से एससी-एसटी छात्रवृत्ति योजना के लाभार्थियों में गिरावट आती जा रही है। 

समिति का कहना था कि वह इस बात से निराश है कि ईडब्ल्यूएस वर्ग के लिए अधिकतम सीमा 6 लाख से बढ़ाकर 8 लाख कर दी गई है और लेकिन एससी-एसटी समुदाय के छात्रों के लिए यह पैरामीटर लागू नहीं किया गया है।

समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्रीय विद्यालयों में छात्रवृत्ति योजना के तहत लाभार्थियों की संख्या में पिछले कुछ वर्षों में काफी गिरावट आई है। प्री मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना के मामले में लाभार्थियों की संख्या 2017-18, 2018-19, 2019-20, 2020-21 और 2021-22 में क्रमश: 10234, 10195, 10634, 9892 और 7436 थी। 

इसी तरह पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना के आंकड़े भी निराश करने वाले हैं। रिपोर्ट के मुताबिक केंद्रीय विद्यालयों में स्कॉलरशिप योजना के लाभार्थियों की संख्या 2017-18, 2018-19, 2019-20, 2020-21, 2021-22 में क्रमश: 690, 818, 20124, 21212 और 852 है। 

समिति ने इस बात पर चिंता जताई थी कि पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप को लेकर आए आंकड़े प्री मैट्रिक स्कॉलरशिप के आंकड़ों की तुलना में कम होते जा रहे हैं। 

समिति ने कहा था कि यह गंभीर चिंता का विषय है कि मैट्रिक के बाद के पाठ्यक्रमों में भाग लेने वाले एससी-एसटी के बच्चों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है।

केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थिति

यदि बात केंद्रीय विश्वविद्यालयों की करें तो वहां आरक्षण को लेकर हालात खराब हैं। पिछले साल की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश के 44 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 6,074 पद रिक्त थे, जिनमें से 75 प्रतिशत पद आरक्षित श्रेणी के थे। अन्य पिछड़े वर्ग के आधे से ज़्यादा पद खाली पड़े थे। प्रतिष्ठित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट में ओबीसी, एससी, एसटी की स्थिति और ख़राब थी, जहां इस वर्ग के लिए सृजित कुल पदों में 60 प्रतिशत से ज़्यादा खाली पड़े थे। 

इससे पता चलता है कि एक ओर प्री मैट्रिक स्कॉलरशिप और पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना के मामले में एससी-एसटी समुदाय के लाभार्थी बच्चों की संख्या गिरती जा रही है। वहीं, दूसरी ओर नौकरियों के मामले में भी उनके साथ भेदभाव हो रहा है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एससी-एसटी समुदाय के लिए आरक्षित पद बड़ी संख्या में रिक्त हैं। ऐसे में देश की सरकार को इस बात का संज्ञान लेना चाहिए कि आखिर आजादी के इतने साल बाद भी एससी-एसटी समुदाय को उनके आरक्षण का पूरा फायदा क्यों नहीं मिल पा रहा है। जो पद उनके लिए रिक्त हैं उन्हें क्यों नहीं भरा गया है। 

इसके अलावा जातिगत उत्पीड़न और जातिगत भेदभाव को रोकने के लिए भी सरकारों को सख्त नियम बनाने चाहिए।