भारत- चीन विवाद में अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प भी कूद गए हैं। वह कह रहे हैं कि मध्यस्थता करने के लिए तैयार हैं। ट्रम्प की अपने देश में फज़ीहत हो रही है, इसलिए वे कुछ ऐसा चाह रहे हैं जिससे उनकी इमेज बेहतर हो जाए और उसका लाभ वह चुनाव में ले सकें।
बहरहाल, अमेरिकी मध्यस्थता की कोई गुंज़ाइश दिखती नहीं है। अमेरिकी गोद में बैठी भारतीय विदेश नीति एकबारगी सोच ले तो भी चीन इसके लिए तैयार नहीं होगा, यह तय है।
ट्रंप के बयान का मतलब
लेकिन ट्रम्प की इस पेशकश को यहीं छोड़ देना ठीक नहीं होगा, क्योंकि एक तो उन्होंने पेंटागन यानी रक्षा मंत्रालय की सलाह पर यह बयान दिया होगा और दूसरे इसका अंतरराष्ट्रीय राजनीति से भी सीधा संबंध है।
ट्रंप यह बयान देकर जताना चाहते हैं कि विश्व का नेतृत्व अभी भी उनके हाथ में है न कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के। दूसरे चीन पर दबाव बनाना भी इसका मक़सद होगा ही।
चीन को घेरने की कोशिश
कई विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा विवाद सीमा के झगड़े से ज़्यादा अंतरराष्ट्रीय कारणों से बढ़ रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने चुनावी राजनीति की वज़ह से चीन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल रखा है। वह अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए चीन को खलनायक की तरह प्रस्तुत करना चाहते हैं, इसलिए तरह-तरह से उसकी नाकेबंदी करने में लगे हुए हैं। उन्होंने डब्ल्यएचओ के ज़रिए चीन पर निशाना साधा और बहुत सारे देशों को इसके लिए सक्रिय भी किया।
ट्रंप को उसमें ज़्यादा सफलता नहीं मिली क्योंकि चीन ने खुद उस जाँच के प्रस्ताव का समर्थन कर दिया, जिसे अमेरिका अपने यूरोपीय मित्रों के साथ उसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल करना चाहता था।
भारत का रवैया
इसके बाद ट्रम्प ने चीनी कंपनियों को निशाना बनाया, बहुत सारी कंपनियों को ब्लैक लिस्ट कर दिया। उन्होंने ब्रिटेन और दूसरे देशों पर भी ऐसा करने के लिए दबाव बनाया है। इसी वजह से ब्रिटेन ने 5जी योजना से चीनी कंपनी ह्वाबे को बाहर करने का मन बना लिया है। लेकिन यह तो पहले भी होता रहा है।
दिक्क़त तब हुई जब भारत भी ट्रम्प के इस खेल का हिस्सा बन गया। उसने डब्ल्यूएचओ में अमेरिकापरस्त रुख़ अपनाया। ताईवान के मामले में भी उसका रुख़ वही हो गया जो अमेरिका का है। इससे चीन चिढ़ गया।
चीनी कंपनियों को मनाही
वैसे चीन उसी समय से चिढ़ा हुआ था जब भारत ने चीनी निवेश पर कई तरह की पाबंदियाँ लगा दी थीं। ये पाबंदियाँ दूसरे देशों के लिए नहीं थीं, केवल चीन के लिए थीं। इसलिए उसे और भी ख़राब लगा और उसने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर भी कर दी थी। इसके पहले भी अमेरिकी-चीनी ट्रेड वार के समय भारत चीन विरोधी रवैया अख़्तियार करता रहा है।यह भी जगज़ाहिर तथ्य है कि अमेरिका भारत से संबंध केवल इसलिए नहीं बढ़ा रहा क्योंकि उसे उसका बाज़ार चाहिए, बल्कि वह भारत का इस्तेमाल चीन के ख़िलाफ़ करना चाहता है। यानी भारत के साथ सुरक्षा संबंधों का लक्ष्य चीन के ख़िलाफ़ मोर्चेबंदी है।
भारत को अमेरिका की इस सामरिक रणनीति से बचना चाहिए था। लेकिन मोदी सरकार उसके सामने बिछी जा रही है। वह भारत को चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी मोहरा बना दे रही है।
अमेरिका के इशारे पर भारत
भारत की स्वतंत्र विदेश नीति अब वाशिंगटन के इशारों पर चल रही है। यह ख़तरनाक़ स्थिति है क्योंकि इससे चीन और भी आक्रामक रुख़ अपना सकता है।इसके अलावा यह भी माना जा रहा है कि चीन पर जो अमेरिकी दबाव पड़ रहा है, उसके जवाब में ही उसने लद्दाख का मोर्चा खोला है। यानी वह एक तीर से दो शिकार कर रहा है। पहला तो यह कि भारत को परेशान कर रहा है और दूसरे दुनिया का ध्यान उन मुद्दों से भटका रहा है, जिनका इस्तेमाल ट्रम्प उसके ख़िलाफ़ कर रहे हैं। इन मुद्दों में कोरोना वायरस भी है, ताईवान भी है और ट्रेड वार भी है।
तनाव का कारोबार
फिर अमेरिका अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए दुनिया में कई जगह तनाव का माहौल बनाता रहता है। उसकी अर्थव्यवस्था हथियारों के कारोबार पर टिकी है। तनाव बढ़ने की स्थिति में उसके खरीददारों में वृद्धि होती है। अगर चीन के साथ भारत का तनाव बढ़ा तो ज़ाहिर है कि भारत उससे हथियार खरीदने में लग जाएगा।चिंता इधर भी है, उधर भी है
अलबत्ता इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत और चीन दोनों चिंतित हैं क्योंकि तनाव बढ़ता जा रहा है। लद्दाख सीमा पर चीन द्वारा अपनी मौजूदगी बढ़ाने के बाद भारत ने भी उसी तादाद में अपने सैनिक तैनात कर दिए। भारत अगर दिखा रहा है कि वह युद्ध की तैयारियाँ कर रहा है तो चीन में भी इसी तरह की हलचलें नज़र आ रही हैं।दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों के स्तर पर कई राउंड की बातचीत हो चुकी है मगर कोई हल नहीं निकल रहा है। ऐसे में सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या दोनों देश जंग की तरफ बढ़ रहे हैं
टकराव की वजह
यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब किसी के पास नहीं है। भारत- चीन सीमा पर इस तरह के तनाव पहले भी निर्मित होते रहे हैं और ऐसा भी लगा है कि टकराव को टालना मुश्किल होगा, मगर आख़िरकार दोनों देशों ने समझदारी से काम लिया और वह टल गया।
क्या इस बार भी तनातनी का यही अंजाम दोहराया जाएगा या फिर ऐसे समय में जब विश्व महामारी और आर्थिक मंदी से गुज़र रहा है तो एक और मुसीबत मोल लेकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेंगे
सवाल यह उठता है कि टकराव की क्या वही वज़ह है जो हमें दिखाई जा रही है यानी लद्दाख क्षेत्र में सरहद को लेकर विवाद। लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक भारत-चीन सीमा पर लगभग दो दर्ज़न ऐसे क्षेत्र हैं जिनको लेकर दोनों देशों के बीच विवाद है और समय समय पर ये उठते रहते हैं। चूँकि वास्तविक नियंत्रण रेखा का वैसा निर्धारण नहीं हुआ है जैसा कि पाकिस्तान के साथ लगने वाली सीमा पर इसलिए ये भी तय है कि फिलहाल इसका अंत नहीं है।
दोनों देश इस बात को बखूबी जानते हैं और इसीलिए यही कोशिश रहती है कि उन्हें बात बढ़ने के पहले निपटा लिया जाए। इसका एक तंत्र भी विकसित कर लिया गया है। राजीव गाँधी के समय जो सीमा वार्ताएं शुरू की गई थीं, उनकी वज़ह से समाधान भले ही न हुआ हो मगर उन्होंने जंग को टालने में मदद भी की है। अच्छी बात ये है कि दोनों लगातार बात कर रहे हैं।