पिछले साल लद्दाख में चीनी घुसपैठ के बाद बीजेपी ने चीनी सामानों के बायकॉट की मुहिम चलाई थी और उसे राष्ट्रवाद से जोड़ दिया था। चीनी मोबाइल फ़ोन, टेलीविज़न, दूरसंचार उपकरण और दूसरे उपकरणों का बायकॉट की अपील की गई थी। सरकार ने कई चीनी ऐप को प्रतिबंधित कर दिया था और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश क़ानून में संशोधन कर चीनी प्रत्यक्ष निवेश पर एक तरह से रोक लगा दी थी।
लेकिन इस बीच एक विचित्र बात हुयी। चीन अमेरिका को पीछे छोड़ता हुआ भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया।
भारत-चीन तनाव
याद दिला दें कि अप्रैल 2020 में पीपल्स लिबरेशन आर्मी के सैनिक वास्तविक नियंत्रण रेखा पार कर भारत में घुस आए और उसके बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर बैठ गए, पीछे हटने से इनकार कर दिया। नतीजा यह हुआ कि दोनों देशों ने एलएसी पर पचास-पचास हज़ार सैनिक तैनात कर दिए और युद्ध की स्थिति बन गई। युद्ध तो नहीं हुआ, लेकिन दोनों देशों के सैनिक एलएसी पर आमने-सामने खड़े रहे।
इसी समय बीजेपी और उससे जुड़े संगठनों ने चीन के ख़िलाफ़ भारत में बड़ा माहौल बनाया। उसने कांग्रेस पार्टी और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के बीच 2008 में हुए क़रार का मुद्दा उठा कर उसे घेरा और उस पर ज़ोरदार हमला किया। बीजेपी के प्रवक्ता राहुल गांधी के देशप्रेम पर सवाल उठाते रहे, उन्हे चीन परस्त क़रार दिया और कांग्रेस से सफाई मांगते रहे।
क्या था उस क़रार में?
कांग्रेस पार्टी और सीपीसी के बीच हुए उस क़रार में दोनों दल एक दूसरे के साथ सहयोग करने और दोनों देशों के बीच रिश्ते बेहतर बनाने के मुद्दे पर सहमत हुए थे। इस पर चीन के तत्कालीन उप- राष्ट्रपति और पोलित ब्यूरो की स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य शी जिनपिंग और कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन महासचिव राहुल गांधी ने दस्तख़त किए थे। शी जिनपिंग 2012 में हू जिनताओ के रिटायर करने के बाद चीन के राष्ट्रपति बन गए।
सवाल यह उठता है कि क्या बीजेपी चीन से आर्थिक रिश्ते नहीं रखने को लेकर गंभीर थी या वह सीमा पर बिगड़े भारत-चीन संबंधों का फ़ायदा उठाना चाहती थी?
बीजेपी की मंशा पर सवाल
सवाल यह भी है कि वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से कोई रिश्ता रखने के ख़िलाफ़ थी या इसी बहाने कांग्रेस को देशद्रोही साबित करने की जुगाड़ में थी?ये सवाल इसलिए भी अहम हैं कि यह वही समय था जब केंद्र सरकार ने दवा, दूरसंचार, कार समेत कई उद्योगों में चीन पर निर्भरता को कम करने के लिए अलग-अलग कमेटियाँ बनाई थीं। कुल मिला कर फोकस इस पर था कि चीन से आर्थिक रिश्ता कम से कम रखना है। लेकिन दूसरी ओर चीन से आयात बढ़ता रहा और अब चीन से बहुत बड़े स्तर पर निवेश होने की संभावना है।
नतीजा यह हुआ कि चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापार साझेदार बन गया और अब वह सबसे बड़ा निवेशक भी बनने जा रहा है।
भारत-चीन व्यापार बढ़ा
एनडीटीवी ने एक ख़बर में वाणिज्य मंत्रालय के हवाले से कहा है कि इस दौरान भारत-चीन दोतरफा व्यापार 77.7 अरब डॉलर तक पहुँच गया था। यह उसके एक साल पहले के आयात-निर्यात के आँकड़े 85.5 अरब डॉलर से कम था। लेकिन यह भारत का सबसे बड़ा दोतरफा व्यापार था, यह अमेरिका से होने वाले दोतरफा व्यापार से भी ज़्यादा था। इस दौरान भारत-अमेरिका दोतरफा व्यापार 75.9 अरब डॉलर था।
इस तरह यह साफ़ है कि जिस समय सत्तारूढ़ दल चीनी सामानों के बायकॉट की मुहिम चला रहा था, उसकी सरकार चीन से दोतरफा व्यापार कर रही थी।
इसी दौरान चीन ने भारत में 40 अरब डॉलर का निवेश किया, यह इस दौरान का सबसे बड़ा विदेशी निवेश था। इसके साथ ही भारत वह देश बन गया, जहाँ इस दौरान चीन ने सबसे अधिक निवेश किया है।
भारत सरकार ने इस दौरान दक्षिण एशिया से होने वाले आयात पर शुल्क कम कर दिया ताकि उन देशों की चीन पर निर्भरता कम हो और वे भारत से आयात ज़्यादा करें। लेकिन सच तो यह है कि इस दौरान ही इन देशों से चीन को होने वाले निर्यात में 11 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
मामला सिर्फ आयात-निर्यात का ही नहीं है। इसी दौरान चीनी कंपनियों से निवेश के प्रस्ताव बड़े पैमाने पर भारत को मिले। सरकार उन प्रस्तावों पर विचार कर रही है।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने कहा है कि ग्रेट वॉल मोटर और एसएआईसी समेत 45 चीनी निवेश परियोजनाएँ भारत सरकार की अनुमति का इंतजार कर रही हैं। वे किसी न किसी चरण में रुकी हुई हैं और समझा जाता है कि उन पर केंद्र सरकार की मुहर जल्द ही लग जाएगी।
चीनी निवेश की लंबी दीवाल?
ग्रेट वॉल मोटर अमेरिकी कंपनी जनरल मोटर्स के भारत स्थित संयंत्र को ख़रीदना चाहता है। समझा जाता है कि यह 25-30 करोड़ डॉलर का निवेश होगा।
ग्रेट वॉल मोटर्स कुल मिला कर एक अरब डॉलर का निवेश भारत में करना चाहता है।
चीनी मोटर कंपनी एसएआईसी भारत में 2019 से ही कार निर्माण के क्षेत्र में है और ब्रिटिश ब्रांड एमजी मोटर के नाम से काम करता है। इसने अब तक 40 करोड़ डॉलर का निवेश किया है। यह इसके अतिरिक्त 65 करोड़ डॉलर और निवेश करने की बात कर चुका है। वह जल्द ही यह निवेश करेगा और उसे उससे जुड़ी इजाज़त का इंतजार है।
150 निवेश प्रस्ताव
‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ ने एक ख़बर में कहा है कि छोटी-बड़ी 150 चीनी निवेश परियोजनाएँ भारत आने वाली हैं। सरकार ने इन्हें तीन श्रेणियों में बाँट रखा है। मोटर कार, रसायन, इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे उद्योगों से जुड़ी निवेशों को ग़ैर-संवेदनशील क्षेत्र मानती हैं, यानी इन क्षेत्रों से जुड़े निवेशों की अनुमति आसानी से दे दी जाएगी।
दूसरी ओर डेटा और वित्त को सरकार संवेदनशील क्षेत्र मानती है, ये वे क्षेत्र हैं, जिनमें सरकार काफी विचार विमर्श के बाद ही निवेश की अनुमति देगी।
लेकिन यह साफ है कि सरकार चीन से होने वाले निवेश की राह में जानबूझ कर रोड़े अटकाना नहीं चाहती है। वह चीन से होने वाले निवेश के पक्ष में है और उसे बढ़ावा देना चाहती है। ऐसे में सवाल ये है कि दूसरों की देशभक्ति पर प्रश्नचिंह्न लगाने का मक़सद पूरी तरह से राजनीतिक था और सरकार को चीन से व्यापार करने में कोई गुरेज़ नहीं था । यानी सरकार का राष्ट्रवाद एक दिखावा था।